भारतीय वैदिक ग्रंथों के संदेश पूरी प्रामाणिकता के साथ धरोहर के रूप में संरक्षित रहे, इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है? भारत कभी विश्व गुरू अपनी बौद्धिक धरोहर की बदौलत ही था। आधुनिक युग में भी हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम अपनी धरोहर को न केवल संरक्षित करें, बल्कि उसे गर्व के साथ विश्व पटल पर स्थापित करें। इस लिहाज से विश्व धरोहर दिवस (18 अप्रैल) के मौके पर श्रीमद्भागवत गीता और भरत मुनि के नाट्यशास्त्र का यूनेस्को के मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर में शामिल किया जाना वाकई गौरव की बात है। वैसे, यह पहला मौका नहीं है, जब वैदिक ग्रंथों के रूप में भारतीय आध्यात्मिक धरोहर को यूनेस्को ने अपने रजिस्टर में स्थान दिया है। पूर्व में रामायण सहित भारत के कुल चौदह अभिलेख यूनेस्को के रजिस्टर में शामिल किए जा चुके हैं। यह भारतीय आध्यात्मिक धरोहर को वैश्विक मान्यता मिलने जैसा है।
हम जानते है कि पूर्व में वैदिक ग्रंथों से लेकर ऐतिहासिक महत्वों वाले दस्तावेजों को या तो नष्ट करने की कोशिश की गई या उसे तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया। यह काम विशेष रूप से मध्यकाल में, विदेशी आक्रमणकारियों और औपनिवेशिक शासकों ने अपनी सुविधानुसार किया। ताकि भारतीय संस्कृति और ज्ञान को कमतर दिखाया जा सके। उदाहरण के लिए, वेदों, उपनिषदों और गीता जैसे ग्रंथों को प्रायः केवल धार्मिक या पौराणिक माना गया और इनके दार्शनिक, वैज्ञानिक और सामाजिक महत्वों को नजरअंदाज किया गया। यूनेस्को की ‘मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर’ में भारतीय ग्रंथों के शामिल होने से वैश्विक मंच पर उनकी प्रमाणिकता और महत्व का पता चलता है और उसमें तोड़-मरोड़ की संभावना कम होगी। यदि तोड़-मरोड़ की कोशिश हुई भी तो उसे विश्व पटल पर चुनौती देना आसान होगा।
यूनेस्को की ‘मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर’ में भारतीय ग्रंथों को शामिल किए जाने का महत्व इस बात से भी समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे दुनिया भर में हर भारतीय के लिए गर्व का क्षण बताया और कहा कि यह हमारे शाश्वत ज्ञान और समृद्ध संस्कृति की वैश्विक मान्यता है। गीता और नाट्यशास्त्र ने सदियों से सभ्यता और चेतना का पोषण किया है। उनकी अंतर्दृष्टि दुनिया को प्रेरित करती रहती है। बीते साल भी, तीन भारतीय ग्रंथों यथा, रामचरितमानस, पंचतंत्र, और सहृदयलोक-लोकन को ‘मैमोरी ऑफ द वर्ल्ड कमेटी फॉर एशिया एंड द पेसिफिक रीजन रजिस्टर में शामिल किया गया था। ऐसा पहली बार हुआ कि भारत की तीन कृतियों को एक-साथ सूची में शामिल किया गया था। वैसे, अच्छी बात है कि भारतीय ग्रंथों को मूल स्वरुप प्रदान करके उसे दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे शैक्षणिक संस्थानों के पाठ्यक्रम में शामिल करके युवा पीढ़ी को उनकी गहराई और प्रासंगिकता से परिचित कराया जा रहा है। इससे भारतीय स्वयं अपनी विरासत को समझेंगे। इससे उसकी प्रामाणिकता बनी रहेगी।
वैसे, साक्ष्यों से स्पष्ट है कि दुनिया रामचरितमानस और श्रीमद्भगवद् गीता जैसे वैदिक ग्रंथों का महत्व समझने लगी है और यह अकारण नहीं है। जीवन का शाश्वत संदेश देने वाली श्रीमद्भगवद्गीता से इस बात को आसानी से समझा जा सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता है तो पाँच हजार वर्ष पुरानी है, पर आज भी उतनी ही प्रासंगिक, उतनी ही प्रेरक है। यह जीवन का वह प्रकाश है, जो हमें अंधेरे में रास्ता दिखाता है। युद्ध क्षेत्र में, जब अर्जुन अपनी धनुष छोड़ देता है, जब उसका मन उदास हो जाता है, क्योंकि वह अपने ही लोगों के खिलाफ तलवार उठाने को तैयार नहीं, तब श्रीकृष्ण उसका मार्गदर्शन करते हैं। वे कहते हैं, “अर्जुन, जीवन को डर से मत देखो। जीवन को उसी रूप में स्वीकार करो, जैसा वह है। हर कदम पर लड़ो, क्योंकि जीवन कोई सुंदर स्वप्न नहीं, यह एक युद्ध है।”
इस बात को सामान्य दृष्टि से नहीं समझा जा सकता है। मेरे पूज्य गुरु परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती इसकी आध्यात्मिक व्याख्या करते हुए कहते हैं, “हम सभी के भीतर भी सदैव एक युद्ध चल रहा होता है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें तो पांडव और कौरव केवल बाहर नहीं, बल्कि हमारे भीतर की भी दो शक्तियां हैं। एक शक्ति हमें आगे ले जाना चाहती है, दूसरी हमें पीछे खींचती है। ये इच्छाएं, ये महत्वाकांक्षाएँ, ये डर, ये निराशाएँ – ये सब हमारे भीतर के योद्धा हैं, जो युद्ध जैसे हालात उत्पन्न किए रहते हैं। इसलिए, इस युद्ध से भाग कर कल्याण संभव नहीं है। संघर्ष को स्वीकारना होगा। यहीं गुरू की भूमिका होती है, जो श्रीकृष्ण की तरह सारथी बनते हैं, जो रास्ता दिखाते हैं। यह शरीर एक रथ बनता है, और तुम, वह योद्धा, जो इस जीवन की लड़ाई लड़ रहा है।“
श्रीमद्भगवद् गीता से हमें शिक्षा मिलती है कि इस युद्ध में योग के सहारे जीत हासिल करनी है। योग का मतलब केवल आसन या ध्यान नहीं। योग वह कला है, जो चेतना को निम्नतम स्तर से उच्चतम शिखर तक ले जाती है। और योग की शुरुआत कहाँ से होती है? जब उदास होते हैं, जब निराश होते हैं, जब जीवन खिलाफ खड़ा होता है। गीता का पहला अध्याय है “अर्जुन-विषाद-योग” – उदासी का योग। यानी, योग तब शुरू होता है जब हम टूट रहे होते हैं। ऐसे में, गीता से संदेश मिलता है कि हमें अपने भीतर के अर्जुन को जगाना होगा, अपने भीतर के श्रीकृष्ण को सुनना होगा, और इस जीवन के युद्ध को योग के साथ, प्रेम के साथ, और साहस के साथ लड़ना होगा। योगबल से ही ऐसा संभव है। इसलिए, गुरूजन कहते हैं कि कर्म योग के साथ राज योग, भक्ति योग, और ज्ञान योग का अभ्यास करो। यह साधना तुम्हें उन संघर्षों से मुक्त करेगी जो तुम्हारे भीतर छिपे हैं। और जब तुम्हारा मन इन संघर्षों के प्रभाव से मुक्त हो जाएगा।
आंतरिक युद्ध केवल भारतीयों की समस्या नहीं है, बल्कि पूरी मानव जाति को इस दौर से गुजरना होता है। दुनिया ने माना कि भारत का ज्ञान, जो हज़ारों वर्षों से मानव चेतना का मार्गदर्शन कर रहा है, अब यह सबके लिए जरूरी है। इसलिए, यह वैश्विक धरोहर के रूप में मान्य हो चुका है। विश्व धरोहर दिवस पर श्रीमद्भागवत गीता और भरत मुनि के नाट्यशास्त्र को यूनेस्को द्वारा अपने मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर में शामिल किया जाना इस बात का द्योतक है कि भारत भूमि में विश्व गुरु के रूप में उभरने के बीज मौजूद हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व अध्यात्म विज्ञान विश्लेषक हैं।)