भारतीय मूल की अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री सुनीता विलियम्स नौ महीने बाद धरती पर सकुशल वापसी के बाद अब आध्यात्मिक कारणों से चर्चा में हैं। हम सब जानते हैं कि सुनीता विलियम्स अपनी भारतीय विरासत से मजबूती से जुड़ी हुई हैं। तभी वह अपने अंतरिक्ष मिशनों के दौरान कभी भगवद्गीता और रामायण साथ लेकर गई तो कभी गणेश भगवान की मूर्ति। उन्होंने अंतरिक्ष में दीपावली तक मनाई थी।
चुनौतीपूर्ण अंतरिक्ष यात्रा के दौरान उनके धैर्य, साहस और आत्मविश्वास को उनके आध्यात्मिक रुझानों के संदर्भ में देखा जा रहा है। तो क्या सुनीता विलियम्स को कठिन वक्त में भगवद्गीता से धैर्य (कर्तव्य पर ध्यान), साहस (आत्मा की अजेयता), और आत्मविश्वास (ईश्वर और स्वयं पर भरोसा) की प्रेरणा मिली होगी? श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है, “सभी धर्मों को त्याग कर मेरी शरण में आ, मैं तुझे सभी संकटों से मुक्त करूँगा।“ ऐसे में, जब स्टारलाइनर की वापसी में तकनीकी बाधाओं के कारण परिस्थितियां उनके नियंत्रण से बाहर थीं, तो सुनीता को यह विश्वास रहा होगा कि एक उच्च शक्ति उनकी रक्षा कर रही है? ऐसे अनेक सवाल हो सकते हैं, जिनके बारे में सुनीता विलियम्स ही बेहतर जानती होंगीं। पर यह अनुमान तो लगाया ही जा सकता है कि अध्यात्म के प्रति उनका झुकाव कठिन वक्त में कितना संबल प्रदान किया होगा।
इस लेख में धैर्य, साहस और आत्मविश्वास को वैदिक, मनोवैज्ञानिक और यौगिक साक्ष्यों के आधार पर परिभाषित करने की कोशिश है। इससे अंतरिक्ष यात्रा के दौरान सुनीता विलियम्स की मन:स्थिति का आकलन करना भी आसान होगा। वेदांत के दृष्टिकोण से, धैर्य, साहस और आत्मविश्वास तब सिद्ध होते हैं, जब व्यक्ति माया के पर्दे को हटाकर अपने सच्चे स्वरूप, आत्मा को पहचान लेता है। ये गुण साधना के फलस्वरूप प्रकट होते हैं और जीवन को ब्रह्म के साथ एकरूप करने में सहायक बनते हैं। लेकिन मनोविज्ञान इन्हें मस्तिष्क, भावनाओं, और व्यवहार के वैज्ञानिक ढांचे में विश्लेषित करता है। ये तीनों मिलकर व्यक्ति को संपूर्णता और सफलता की ओर ले जाते हैं। योग विद्या में उपाय बताए गए हैं कि किन यौगिक साधनाओं से धैर्य, साहस, और आत्मविश्वास जैसे गुणों को विकसित किया जा सकता है। जैसे, प्राणायाम, आसन, ध्यान तन-मन को संतुलित करते हैं, जबकि आध्यात्मिक साधनाएँ जैसे, स्वाध्याय, मंत्र साधना व भक्ति योग आत्मा की शक्ति को जागृत करती हैं। ये दोनों मिलकर व्यक्ति को भावनात्मक, मानसिक, और आत्मिक स्तर पर सशक्त बनाते हैं।
उपनिषदों में धैर्य को “तितिक्षा” के रूप में वर्णित किया गया है, जो एक साधक के लिए आवश्यक गुण है। तितिक्षा का अर्थ है सुख-दुख, शीत-उष्ण, और अन्य द्वंद्वों को शिकायत किए बिना सहन करना। छांदोग्य उपनिषद में उद्दालक अपने पुत्र श्वेतकेतु को सिखाते हैं कि सत्य की खोज में धैर्य आवश्यक है। यहाँ धैर्य को ज्ञान प्राप्ति के लिए एक आधार के रूप में देखा गया है। भगवद्गीता में धैर्य को “धृति” (संयम और दृढ़ता) और “तितिक्षा” के रूप में परिभाषित किया गया है, जो कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का हिस्सा है। द्वितीय अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “हे अर्जुन, इंद्रियों के विषय शीत-उष्ण और सुख-दुख को जन्म देते हैं। ये आते-जाते और अनित्य हैं। इन्हें धैर्यपूर्वक सहन कर।” यहाँ धैर्य को जीवन के क्षणिक सुख-दुख से ऊपर उठने की क्षमता के रूप में बताया गया है। भागवत पुराण में राजा ऋषभदेव और उनके पुत्र भरत की कथा है, जिसमें गर्भवती हिरणी की मौत और उसके अनाथ बच्चे के माध्यम से धैर्य, संयम और आत्म-ज्ञान का सुंदर चित्रण है।
वैदिक साहित्य में साहस को केवल शारीरिक बल या युद्ध कौशल तक सीमित नहीं रखा गया, बल्कि इसे मानसिक दृढ़ता, आत्मिक शक्ति, और धर्म के पालन के लिए आवश्यक गुण के रूप में भी परिभाषित किया गया है। श्रीमद्भागवत गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “हे पार्थ, कायरता मत अपनाओ, यह तुम्हें शोभा नहीं देता। हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्यागकर उठो।“ यहाँ साहस को हृदय की दृढ़ता और कर्तव्य के प्रति निष्ठा के रूप में परिभाषित किया गया है। हमने हाल ही होलिका दहन किया और प्रह्लाद – हिरण्यकश्यप की कथाएं पढ़ी-सुनी। प्रहलाद की कहानी का संदेश है कि साहस का असली रूप तब प्रकट होता है, जब व्यक्ति अपने विश्वास और सत्य पर अडिग रहता है, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी विपरीत हों।
अब अंत में आत्म-विश्वास की बात। वैदिक दर्शन में आत्मविश्वास को अहंकार (ईगो) से अलग, आत्मा की शाश्वत प्रकृति और ब्रह्म के साथ एकता से जोड़ा गया है। सामवेद के छांदोग्य उपनिषद का महावाक्य है – “तत्त्वमसि।” यानी तू वही है, आत्मा और ब्रह्म एक हैं। उद्दालक अपने पुत्र श्वेतकेतु को बताता है कि जब व्यक्ति अपनी आत्मा को ब्रह्म के रूप में पहचान लेता है, तो उसमें स्वाभाविक आत्मविश्वास उत्पन्न होता है। यह आत्मविश्वास अज्ञान और भय से मुक्ति देता है। इसी तरह बृहदारण्यक उपनिषद् का वाक्य है, “अहम् ब्रह्मास्मि।” अर्थात मैं ब्रह्म हूँ। यह महावाक्य आत्मविश्वास का चरम रूप है, जहाँ व्यक्ति अपने सच्चे स्वरूप को जानकर किसी भी बाहरी परिस्थिति से प्रभावित नहीं होता। श्रीमद्भागवत गीता का श्लोक, “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन“ का गूढ़ार्थ भी भिन्न नहीं है। यह विश्वास कि कर्तव्य का पालन ही पर्याप्त है, आत्मविश्वास का आधार बनता है।
इन वैदिक साक्ष्यों से पता चलता है कि आध्यात्मिक गुणों वाले व्यक्तियों में धैर्य, साहस और आत्मविश्वास जैसे गुण स्वाभाविक रूप से विकसित होते हैं। रामायण और श्रीमद्भागवत गीता का पारायण करने वाली सुनीता विलियम्स को संकट की घड़ी में इन ग्रंथों से जरूर प्रेरणा मिलती रही होगी। पर, उनके विघ्नहर्ता गणेश जी में आस्था के क्या मायने? शिव पुराण की कथा है कि गणेश जी ने त्रिपुरासुर के खिलाफ शिव की सहायता की और विघ्नों को दूर किया था। सुनीता विलियम्स के मन में जरूर भाव आता रहा होगा कि श्री गणेश जी उनकी बाधाएं दूर करेंगे। वैसे, मूर्ति साथ ले जाने का मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी कम नहीं। मनोविज्ञान में इसे प्लेसिबो इफेक्ट कहा जाता है। यानी भरोसा हो तो पानी का बूंद भी कोरामिन जैसा असर दिखा जाता है। खैर, सुनीता विलियम्स की आध्यात्मिकता और वैदिक साक्ष्यों के आधार पर युवाओं के कदम वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की ओर बढ़ जाएं तो इससे बड़ा कल्याण होगा। ध्यान रहे कि अध्यात्म पथ के पथिकों को मार्ग मिल ही जाता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)