हर महान यात्रा में एक नया मोड़ आता है। योग के द्वितीय अध्याय के रुप में वह मोड़ आ चुका है, जो अभी-अभी अपने प्रारंभिक कदमों के साथ विश्व के सामने उभर रहा है। जब भगवान राम को वनवास का आदेश मिला था, तो वह एक मोड़ था, नया अध्याय था, जो उन्हें राजसुख छोड़कर सत्य, धर्म और सेवा के पथ पर ले गया। उनकी यह यात्रा केवल व्यक्तिगत त्याग की नहीं, बल्कि समाज के कल्याण और अधर्म पर धर्म की विजय की थी। इसी तरह योग के मामले में भी एक नया मोड़ आया तो नए अध्याय की शुरुआत हो गई। यह शुरुआत आधुनिक भारत के वैज्ञानिक संत और विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की प्रेरणा से हुई है।
वैदिक योग का यह परिमार्जित स्वरूप योग को केवल शारीरिक अभ्यास तक सीमित नहीं रहने देगा, बल्कि इस गहन विद्या के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन का मशाल प्रज्ज्वलित करेगा। जैसे श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समाज के प्रति उसके कर्तव्य का बोध कराया, वैसे ही यह नया अध्याय हमें आज के विश्व की चुनौतियों, जैसे तनाव, असंतुलन, और दिशाहीनता का जवाब बनने को प्रेरित करता है। यह अध्याय कर्म, भक्ति, ज्ञान और राज योग का समन्वय है, जो हर व्यक्ति को सत्यम् (सत्य की खोज), शिवम् (शुभता का आलिंगन), और सुंदरम् (जीवन का सौंदर्य) से जोड़ता है। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं, “समय की मांग है कि योग के अभ्यासों को अधिक गहन एवं व्यापक बनाया जाए। ताकि विचारों, व्यवहारों और कर्मों को रूपांतरित किया जा सके।“
हालांकि पूरी दुनिया में जिस योग की धूम मची हुई है, वह उस योग से भिन्न है, जिसकी परिकल्पना बीसवीं सदी के संतों ने की थी। योग का वैदिक स्वरुप तो इससे भी अलग था। वैदिक काल में, योग केवल संन्यासियों की गुफाओं में साधना का विषय होता था। यह एक ऐसी विद्या थी, जो आत्मा को परमात्मा से जोड़ती थी, मन को शांति और शरीर को संतुलन देती थी। पर, समय के साथ योग विद्या का यह रहस्य गुफाओं से निकलकर परिमार्जित रूप में विश्व के हर कोने में फैल गया। स्वामी शिवानंद सरस्वती, स्वामी कुवलयानंद, स्वामी सत्यानंद सरस्वती जैसे समन्वित योग के प्रवर्तकों ने देशकाल को ध्यान में रखकर मानव के कल्याण के लिए शास्त्रानुकूल, परन्तु वैज्ञानिक साक्ष्यों के आधार पर योग विधियां विकसित की थीं। आज दुनिया भर में योग के नाम पर जो दुकानदारी चल रही है, वह हठयोग का विकृत रूप भर है।
पर, जिस तरह बिहार योग विद्यालय और कैवल्यधाम जैसे पारंपरिक योग विद्या के संस्थान हिमालय की तरह पूरी दृढ़ता के साथ खड़े हैं, उसी तरह ऐसे योगाभ्यासियों की संख्या भी कम नहीं, जो योगाभ्यास तक सीमित न रहकर योगसाधक बनना चाहते हैं। योग का द्वितीय अध्याय ऐसे ही अभ्यासियों के लिए है। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती योगाभ्यासियों को योग साधक बनने की प्रेरणा देने के लिए ही योग-यात्रा पर निकले हुए हैं। इस यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव दिल्ली का त्यागराज स्टेडियम होगा, जहां वे आगामी 9 मई से लेकर 11 मई तक बिहार योग परंपरा की शिक्षाओं पर आधारित योग विद्या व्यावहारिक ज्ञान देंगे। योग का यह द्वितीय अध्याय केवल अभ्यास तक सीमित नहीं है, बल्कि योग को एक गहन विद्या, जीवनशैली और सामाजिक क्रांति के रूप में स्थापित करने का संकल्प है।
दस साल पहले यानी सन् 2014 में दिल्ली के त्यागराज स्टेडियम में ही हजारो योग साधकों को परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती का सानिध्य प्राप्त हुआ था। उनकी वह यात्रा केवल योग प्रशिक्षण तक सीमित नहीं थीं, बल्कि समाज में योग की स्थिति और लोगों की अपेक्षाओं को समझने का एक गहरा प्रयास थीं। हर कार्यक्रम में भारी भीड़ और उत्साह से पता चला कि लोगों का योग से अभूतपूर्व जुड़ाव बन चुका है। लेकिन योगाभ्यासियों ने जब अपना अनुभव साझा किया तो एक महत्वपूर्ण तथ्य उभरकर आया। पता चला कि वे अपने योगाभ्यास में ठहराव का अनुभव कर रहे हैं। ऐसा महसूस करने वालों में नब्बे फीसदी अभ्यासी हठयोग, यानी योग के शारीरिक पक्ष, तक ही सीमित थे। योग का आध्यात्मिक पक्ष गौण था।
इन यात्राओं से प्राप्त अनुभवों से स्वामी जी ने महसूस किया कि योग के तरीके को फिर से परिभाषित करने की जरूरत है। इसलिए कि योग केवल शारीरिक अभ्यास के रूप में ही प्रचलन में रहेगा तो स्वामी सत्यानंद सरस्वती का संकल्प अधूरा रह जाएगा। लिहाजा उन्होंने योग में प्रयोग अपनी उस यात्रा के दौरान ही शुरू कर दिया था। प्रशिक्षण पद्धति को पुनर्गठित करते हुए हठयोग के साथ-साथ राजयोग, क्रियायोग, कर्मयोग, भक्तियोग, और ज्ञानयोग के आयामों को शामिल किया। साधकों ने पाया कि उनका यौगिक अनुभव पहले से कहीं अधिक गहन और प्रेरणास्पद हो रहा था। यह केवल अभ्यास का परिवर्तन नहीं था, बल्कि योग के प्रति एक नई चेतना का जागरण था।
योग यात्राओं के समापन के बाद, स्वामी निरंजनानंद ने भविष्य की योजनाओं पर ध्यान केंद्रित किया। मुख्य प्रश्न था – योग की विधियाँ समाज की वास्तविक ज़रूरतों को कैसे पूरा कर सकती हैं? अगला चरण क्या होना चाहिए? इस चिंतन का निष्कर्ष था कि यौगिक अनुभव को गहन बनाना ही द्वितीय अध्याय का प्राथमिक ध्येय होना चाहिए। लिहाजा, योग के मूल लक्ष्य – शारीरिक, मानसिक, और आध्यात्मिक विकास को ध्यान में रखते हुए, प्राचीन योग शास्त्रों, ऋषियों की तपस्या, और यौगिक परंपराओं का गहन अध्ययन किया गया। फिर योग की दिशा, कार्यशैली, और भविष्य के लिए एक स्पष्ट रोडमैप तैयार किया गया। अब बिहार योग परंपरा में योग के प्रति दृष्टि, प्रशिक्षण विधि, और गतिविधियों को पूरी तरह बदल चुका है। योग की प्रस्तुति अब अधिक गहन, स्पष्ट, और प्रेरणादायक बन चुकी है।
योग का द्वितीय अध्याय केवल एक नया चरण नहीं है; यह योग का पुनर्जनन है। ध्यान रहे कि बिहार योग विद्यालय केवल एक संस्था नहीं है, बल्कि उनकी प्रेरणा, समर्पण, और बलिदान का प्रतीक है। उनका सपना था कि एक ऐसी संस्कृति का निर्माण हो, जो मानव चेतना को नई ऊंचाइयों तक ले जाए। योग के द्वितीय अध्याय के रुप में उनका सपना नया आकार ले रहा है। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की मौजूदा योग-यात्रा को उसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। यह एक ऐतिहासिक कदम है, नई सुबह की शुरुआत है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)