किशोर कुमार //
राष्ट्रीय चेतना के अग्रदूत युगावतार श्री अरविंद घोष की 152वीं जयंती निकट है तो बात उनके संदर्भ में ही होगी। पर एक क्षेपक है। यशोधरा गहरी नींद में थीं। नवजात राहुल भी सो रहा था। ऐसा न था कि राजकुमार सिद्धार्थ के प्रेम में कोई कमी थी। फिर, राजकुमार ही थे तो सुख-सुविधाओं में भी कोई कमी न थी। फिर भी आधी रात को चुपके से अज्ञात की ओर चल पडे थे। क्यों? क्योंकि योग बल नहीं था और इसके बिना मन की गहराई से उठे सवाल का जबाव मिलना कठिन था कि मैं हूं कौन?
पर श्री अरविंद ने आज के पुदुच्चेरी की ओर रूख क्यों कर लिया था? पारिवारिक पृष्ठभूमि और शिक्षा ऐसी थी कि उनके भी राजसिक जीवन जीने में कोई बाधा नहीं आने वाली थी। जब क्रांतिवीर बने तो उनके मार्ग के सिपाहियों यानी आजादी के दीवानों को उनकी काफी जरूरत थी। क्रांति वीरों की आंखों का तारा बने हुए थे। बावजूद, तपस्या में लीन क्यों हो गए थे? अलीपुर बम कांड के एक साल के भीतर ऐसा क्या हुआ कि कैदखानने में श्रीमद्भगवतगीता पढ़ते और उसकी व्याख्या करते-करते इस तरह रूपांतरित हुए कि धरती और स्वर्ग के बीच सेतुबंध लगाने का सपना संजो बैठे थे?
इन गूढ़ सवालों का जबाव ढूंढना तो सबके लिए प्राय: मुमकिन नहीं होता। पर राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने झलक दिखलाई। उन्होंने अपने लेखों में बार-बार उल्लेख किया, “संसार में चिन्तकों का एक खासा दल श्री अरविन्द को केवल मनीषी, दार्शनिक और कवि समझकर संतोष कर लेता है। पर बात इससे आगे की है। वे मनुष्य के आसन्न आध्यात्मिक विकास के नेता, योगी और युगावतार थे। उन्होंने योग और दर्शन पर जो ग्रंथ लिखे, वे मनुष्य की ऊँची-से-ऊँची मेधा के श्रेष्ठ प्रमाण हैं। पर जरा सोचिए, कि क्या केवल मेधा के बल पर सावित्री जैसे काव्य की रचना की जा सकती थी? नहीं। सावित्री काव्य बुद्धि की रचना नहीं है। वह उस शक्ति का चमत्कार है, जो बुद्धि की सीमा के परे विहार करती है।“
सच है कि चेतना की अतिमानसिक अवस्था, जो मन की उच्चतर अवस्था के रूप में ज्ञात है, को प्राप्त होने के बाद श्री अरविंद अवतारी पुरूष की तरह हो गए थे। उनके आश्रम साधक इस बाद को शिद्दत से महसूस करने लगे थे। श्री अरविंद का सर्वे भवन्तु सुखिनःउद्घोष का ताप पहले से ज्यादा शक्तिशाली हो गया था। सभी जीवों को सुख मिले, सभी जीवों को शांति मिले, सभी जीवों को आरोग्य मिले, सभी जीवों को ऐश्वर्य मिले और सभी जीव मोक्ष को प्राप्त करें, यह किताबी बातें नहीं, प्रार्थना बन गई थी। वे कहते थे कि तुम यदि कुछ करना ही चाहते हो तो अपनी चेतना का विस्तार करो। उनके इस कथन के सात-आठ दशक बाद इस बात की अहमियत सामान्य जन को भी महसूस होने लगी है, जब ज्ञात हुआ है कि 80 फीसदी बीमारियाँ मानव की आन्तरिक चेतना के विघटन से उपजती और पनपती हैं।
खैर, तब आश्रम गए नए-नए साधकों के मन में सहज सवाल होता कि वे अतिमानसिक अवस्था कैसे प्राप्त कर सकते हैं? ऐसे ही एक साधक से श्री अरविंद ने कहा था – “रात में बाहर पीठ के बल लेट जाएं, तारों को देखें और उनके साथ खुद को पहचानने की कोशिश करें, और एक विशाल दुनिया में दूर चले जाएं, और इस तरह अनुपात की सारी समझ, पृथ्वी और उसकी सभी छोटी चीज़ों के क्रम को पूरी तरह से खो दें, और आकाश की तरह विशाल हो जाएं – आप ब्रह्मांड जितना विशाल नहीं कह सकते, क्योंकि हम इसका केवल एक छोटा सा हिस्सा ही देख पाते हैं, लेकिन सभी तारों वाले आकाश जितना विशाल हो जाते हैं। और इस तरह, आप जानते हैं, कुछ समय के लिए छोटी-छोटी अशुद्धियाँ दूर हो जाती हैं, और व्यक्ति बहुत बड़े पैमाने पर चीज़ों को समझ पाता है। यह एक अच्छा अभ्यास है।“
श्री अरविंद कहते थे कि योग विद्या में इतनी शक्ति है कि योग की जिस धारा में बहोगे, उसी से सत्य जान लोगे। पर सच है कि श्री अरविंद ने आम लोगों के यौगिक विकास को ध्यान में रखकर जो कुछ कहा, उसे कालांतर में उसी रूप में प्रचार नहीं मिला। दिनकर जी ने जैसा कहा था, श्री अरविंद की चर्चा ज्यादातर उनकी बौद्धिकता के संदर्भ में होती रही। आध्यात्मिक साधक उनकी चेतना की परम अवस्था को लेकर उलझे रहे, जबकि श्री अरविंद ऐसे विचारों को असंगत मानते थे। वे कहते थे कि जो भगवान को पा लेता है, वह जीवन खो बैठता है और जो जीवन पर विजय प्राप्त कर लेता है, तो भगवान को खो देने का डर रहता है। ऐसा न हो, इसके लिए जरूरी है कि मानसिक और भावनात्मक संतुलन बना रहे।
श्री अरविंद कहते, योग का लक्ष्य तो मानसिक चेतना को निर्मल अवस्था में तथा एकाग्र शक्ति में उठा ले जाना है। ताकि वास्तविक सत्ता का पूर्ण ज्ञान हो सके। ज्ञानयोग इसके लिए सबसे उपयुक्त है। पर दो महान साधना पद्धतियां ऐसी भी हैं, जिनसे ऐसा ही परिणाम हासिल किया जा सकता है। वे हैं – “हठयोग और राजयोग। ज्ञान मार्ग की विधि से इन विधियों का बड़ा भेद है। पर मूलसूत्र वही है जो ज्ञानयोग का है। श्री अरविंद तो एक कदम और आगे बढ़कर कहते थे – भूल मत करना। केवल हठयोग भी परम देव की प्राप्ति का एक मार्ग है। पर ध्यान रहे कि जिस तरह ज्ञानयोग में मानसिक निश्चलता की शक्ति का मूल्य है। उसी तरह हठयोग में शारीरिक निश्चलता की शक्ति महत्वपूर्ण है।“ यही अवस्था हठयोग को व्यायाम से अलग करती है। आसन की निश्चल स्थिति का पहला उद्देश्य है कि शरीर पर जो चंचल क्रिया बलात् थोपी जाती है, उससे मुक्त रहना। ताकि प्राण-शक्ति अंदर धारण किया जा सके। हठयोग की शक्ति का राज यही है।
श्री अरविंद की राष्ट्र सेवा की जितनी भी चर्चा की जाए, कम है। स्वतंत्र्यवीर के रूप में उनकी राष्ट्र-सेवा को भला कौन भूल सकता है। पर आध्यात्मिक नेता के रूप में उनका योगदान अतुलनीय है। उनके आध्यात्मिक संदेश हमे आज भी प्रेरित करते हैं। आध्यात्मिक चेतना के अग्रदूत को 152वीं जयंती (15 अगस्त) पर सादर नमन।
(लेखक ushakaal.org के संस्थापक संपादक हैं।)