अब यह कोई रहस्य नहीं रहा कि आधुनिक जीवन की जटिलताओं में ध्यान यानी मेडिटेशन मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक संतुलन का सरल, प्रभावी उपाय है। चाहे मानसिक तनाव कम करना हो, एकाग्रता बढ़ानी हो, भावनात्मक संतुलन बनाना हो, स्वास्थ्य जीवन जीना हो या आत्म-खोज के मार्ग पर आगे बढ़ना हो, ध्यान ही इन सबकी कारगर और आजमायी हुई दवा है।
जीवन में ध्यान घटित हो, इसके लिए हमारे संतों और योगियों ने अनेक मार्ग सुझाए, अनेक विधियां बतलाई, जो उनके अनुभवों पर आधारित हैं और आधुनिक विज्ञान भी उन विधियों की पुष्टि करता है। पर, आज पृथ्वी दिवस (22 अप्रैल) है और मैं एक ऐसे ध्यान की चर्चा करने जा रहा हूं, जिससे न केवल व्यक्तिगत लाभ मिलता है, बल्कि पर्यावरणीय इकोसिस्टम को अखंड बनाने में मदद मिलती है। उस ध्यान का नाम है वन स्नान।
फिनलैंड आजकल वन स्नान के लिए ज्यादा मशहूर हो गया है। वहां के लोगों में वन स्नान का चलन तेजी से बढ़ता जा रहा है तो दुनिया के दूसरे भागों के समर्थ लोग भी वन स्नान के लिए फिनलैंड जाने लगे हैं। ताकि मानसिक स्वास्थ्य और खुशी मिल सके। आपने अखबारों में पढ़ा होगा कि फिनलैंड लगातार विश्व के सबसे खुशहाल देशों में शुमार है। इसका प्रमुख कारण वहां के लोगों का प्रकृति के साथ गहरा जुड़ाव माना जाता है। वैसे, “वन-स्नान” मूल रुप से जापानी अवधारणा है, जिसे जापानी में “शिनरिन-योकु” कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है – “जंगल के वातावरण को अपने अंदर समाहित करना” या “जंगल में स्नान करना”, लेकिन पानी के नहीं, बल्कि पेड़ों और प्रकृति की ऊर्जा में। जापान के इस स्नान की चर्चा ओशो ने भी अपनी पुस्तकों में की है।
खैर, फिनलैंड का वन स्नान भी वन में जाकर किसी तालाब में या झरने के नीचे स्नान करने जैसा नहीं होता। फिर वन स्नान के दौरान क्या करते हैं लोग? जंगलों में जाकर प्रकृति के साथ लयबद्ध होकर समय बिताते हैं। वे न तो मोबाइल देखते हैं, न बातें करते हैं, बस प्रकृति के साथ रहते हैं। यह अभ्यास एक तरह का डिजिटल डिटॉक्स भी होता है, जहाँ व्यक्ति तकनीक से दूर होकर, फिर से प्रकृति से जुड़ता है। वन-स्नान के दौरान व्यक्ति धीरे-धीरे जंगल में चलता है, पेड़ों की बनावट, पत्तों की सरसराहट, पक्षियों की आवाज़, और हवा की खुशबू को गहराई से अनुभव करता है। इस दौरान कोई पेड़ों से संवाद करता दिखता है तो कोई चिड़ियों से अपने मन की बात कहता, या गीत गाता दिखता है।
ऐसा करके अनेक लोग गहन ध्यान की अवस्था प्राप्त करते हैं। इससे उन्हें मानसिक शांति और तनाव से राहत मिलती है। फिनलैंड में ही नहीं, जापान, दक्षिण कोरिया और पश्चिमी देशों में भी वन स्नान पर शोध हुआ तो पता चला कि इससे ब्लड प्रेशर कम होता है, कोर्टिसोल (तनाव हार्मोन) का स्तर घटता है, इम्यून सिस्टम मजबूत होता है और ध्यान व मानसिक स्पष्टता में सुधार आता है। इन परिणामों से पता चलता है कि “वन-स्नान” एक बाहरी भ्रमण नहीं, बल्कि आंतरिक शांति की यात्रा है। यह अभ्यास हमें सिखाता है कि प्रकृति ही सबसे बड़ा चिकित्सक है – बस हमें खुद को उसके हवाले करने की ज़रूरत है।
भारत के लिए वन स्नान के क्या मायने? भारत की सभ्यता का उद्गम वन-जीवन से हुआ है। ऋषि-मुनियों की तपस्थली, वेदों की रचना, आयुर्वेद और योग का उदय—इन सबका मूल वन ही रहा है। वेदों में “अरण्य” (वन) न केवल प्राकृतिक स्थान है, बल्कि तप और ज्ञान का केंद्र भी है। उपनिषदों में ‘अरण्यक’ ग्रंथ विशेष रूप से वन में निवास कर रहे ऋषियों की ज्ञान परंपरा को दर्शाते हैं। वनवास का अर्थ त्याग और आत्मशुद्धि से है, न कि मात्र घर से बाहर रहना। पंचवटी, चित्रकूट, दंडकवन, जैसे स्थान भारतीय धर्मग्रंथों में पवित्र स्थल माने जाते हैं। रामायण और महाभारत के अनेक प्रसंग वनों में घटित हुए, जहाँ ऋषियों और देवताओं ने आत्मशक्ति अर्जित की।
रामचरितमानस में अरण्यकाण्ड वह खण्ड है, जहाँ भगवान राम, सीता और लक्ष्मण का वनवास एक गहन आध्यात्मिक यात्रा में परिवर्तित होता है। रामचरितमानस का अरण्यकाण्ड उस शाश्वत सत्य को उजागर करता है कि वन में जाकर ही ‘स्व’ की खोज होती है, जहाँ भगवान राम स्वयं एक सामान्य मनुष्य के रूप में हर अनुभव से गुजरते हैं और अंततः मर्यादा पुरुषोत्तम बनते हैं। इस तरह भारतीय वन केवल पेड़ों के समूह नहीं, बल्कि संस्कृति के जीवंत केंद्र रहे हैं। पर, आज स्थिति क्या है? हम अपने गौरव, अपनी विरासत, परंपरा और स्वर्णिम भविष्य की परवाह किए बिना जंगलों की कटाई करते जा रहे हैं। सच तो यह है कि हम पृथ्वी का सेवक नहीं, बल्कि स्वामी बनकर पर्यावरणीय इकोसिस्टम को तहस-नहस करने के लिए तमाम काम करते हैं। नतीजा है कि धरती ही खतरे में है।
समय की मांग है कि हम सबको भी अपने मन में “वन स्नान” का भाव जगाना चाहिए। आधुनिक मनुष्य थकावट और तनाव महसूस करता है, लेकिन इसका कारण काम नहीं बल्कि अपने आंतरिक मौन और शांति से टूट चुका संपर्क है। मनुष्य अपनी ऊर्जा के स्रोत से जुड़ नहीं पाता। यंत्रवत जीवन ने समय तो बचाया है, पर उसे सही दिशा न दे पाने के कारण उलझनें बढ़ गई हैं। ऐसे में ध्यान (मेडिटेशन) कोई विलास नहीं, बल्कि आवश्यकता है। ध्यान के लिए समय नहीं, समझ और सजगता चाहिए। हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी स्थिति में हो, ध्यान कर सकता है। इससे जीवन में स्पष्टता आएगी। जलवायु परिवर्तन के खतरों के प्रति सजग हो पाएंगे। समझना आसान होगा कि अपने गुणवत्तापूर्ण जीवन समय और ऊर्जा का उपयोग किस तरह करना है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व अध्यात्म विज्ञान विश्लेषक हैं।)