योग और अध्यात्म इस शताब्दी की महान शक्ति है। पर इससे हमारा जीवन, हमारा समाज कितना बदलेगा? शास्त्रों में उल्लेख है और प्राचीन काल से ऋषि मुनि कहते रहे हैं कि संसार त्रिगुणात्मक है। यानी तमस्, रजस और सत्व इन तीन गुणों की लीला भूमि है। इसलिए यह भ्रम तो नहीं रहना चाहिए कि शक्तिशाली योग के वैश्विक संस्कृति बनने से तमाम विषमताएं दूर हो जाएंगी। पर इतना जरूर है कि हमारे विचार औऱ ज्ञान की गुणवत्ता बेहतर हो जाएगी। इसलिए कि योग मनुष्य के आंतरिक व्यक्तित्व परिवर्तन का विज्ञान है। इससे जीवन की समस्याओं को समझ कर सकारात्मक दिशा में बढ़ने की दृष्टि मिलती है।
सवाल है कि आसन, प्राणायाम और ध्यान के नाम पर कुछ भी कर लेने से बात बन जाएगी? नहीं, बिल्कुल नहीं। सिद्ध संतों की मानें तो योग के सभी अंगों और उपांगों को ध्यान में रखते हुए समन्वित योग से बात बनेगी। भारत योग और अध्यात्म की वैश्विक राजधानी है। पर समन्वित योग विद्या के प्रचार-प्रसार पर काफी काम किए जाने की जरूरत है।
यह सुखद है कि 20वीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती के शिष्य और बिहार योग विद्यालय, मुंगेर के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की महासमाधि के बाद उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती भी समन्वित योग को शास्त्रसम्मत और विज्ञानसम्मत तरीके से जनता तक ले जाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। ये बातें हमें अपने हिस्से का काम करने के लिए प्रेरित करती हैं। पूज्य गुरूओं का आशीर्वाद सोने पे सुहागा की तरह है।