सोने की लंकापुरी के बारे में तो हम सब जानते ही हैं। पर उसे बनाया किसने और क्यों? इस बात को लेकर चर्चा कम ही होती है। पुराण कथाओं के मुताबिक, सर्वदृष्टा, सर्वस्रष्टा, सर्वज्ञाता विश्वकर्मा भगवान ने लंकापुरी का निर्माण किया था। पर क्या रावण के लिए? इस सवाल को लेकर कई कथाएं प्रचलित हैं। एक कथा है कि जब भगवान शिव ने पार्वती से विवाह किया, तो उन्होंने विश्वकर्मा से उनके रहने के लिए एक सुंदर महल बनाने को कहा। विश्वकर्मा ने सोने से बना एक महल बनाया!
कथा है कि गृह प्रवेश समारोह के लिए, शिव ने बुद्धिमान रावण को गृहप्रवेश अनुष्ठान करने के लिए आमंत्रित किया। पवित्र समारोह के बाद जब शिव ने रावण से दक्षिणा के रूप में कुछ भी मांगने के लिए कहा, तो महल की सुंदरता और भव्यता से अभिभूत रावण ने शिव से सोने का महल ही मांग लिया! शिव को रावण की इच्छा माननी पड़ी, और सोने की लंका रावण का महल बन गई। दूसरी, मान्यता है कि असुर माल्यवान, सुमाली और माली असुरों के लिए एक विशाल भवन चाहते थे। उन्होंने इसके लिए भगवान विश्वकर्मा से प्रार्थना की तो विश्वकर्मा जी ने समुद्र तट पर अवस्थित त्रिकूट पर्वत पर सोने की लंका बना दी थी। तीसरी कथा है कि रावण के सौतेले भाई कुबेर देव सोने की लंका के राजा थे। जब रावण शक्तिशाली हुआ तो उसने कुबेर से सोने की लंका छीन ली थी। लेकिन लंकापुरी का निर्माण विश्वकर्मा भगवान ने किया, इसकी पुष्टि सभी शास्त्रों से होती है।
वैदिक देवताओं में विश्वकर्मा भगवान को श्रेष्ठ स्थान मिला हुआ है। इसका प्रमाण है ऋग्वेद (8, 92, 2) का यह मंत्र – विश्वकर्मा विश्वेदेवा महाँ असि। वेदाचार्यों की मानें तो शिल्प-स्थापत्य के देवता के रूप में विश्वकर्मा की जो मान्यता आज के भारतीय समाज में विद्यमान है, वह भले ब्राह्मण ग्रन्थों, गृहसूत्रों और पुराणकाल की देन है। मगर, इस मान्यता की नींव भारतीय उपमहाद्वीप में ऋग्वैदिक काल में ही पड़ चुकी थी। विश्वकर्मा भगवान को लेकर प्रबल मान्यता है कि वे सर्वदृष्टा, सर्वस्रष्टा, सर्वज्ञाता हैं। नाम, धारण और सृष्टि प्रलय के उपरान्त यह संसार उनमें ही लीन हो जाता है। महीधर ने यजुर्वेद का इसका भाष्य करते हुए कहा है- जो विश्वकर्मा इन सब प्राणियों को प्रलय काल में अपने अन्दर समेटकर स्वयं चैन से बैठ जाता है, अतीन्द्रिय ज्ञानी, सृष्टि यज्ञ का होता वह प्रभु हमारा पिता है।
ऋग्वेद के 10वें मण्डल का 81वां सूक्त सृष्टि सृजन और विलय की प्रक्रिया से सम्बद्ध माना गया है। आचार्य श्रीराम शर्मा की व्याख्या है कि सृजन के क्रम में परमात्म चेतना विश्वकर्मा का रूप धारण कर लेती है। वही पोषण के लिए पूषा बन जाती है। उत्पत्ति, विलय दोनों क्रम चलते रहते हैं, पहले वालों को संव्याप्त करते हुए अथवा उनकी आहुतियाँ देकर विलय करते हुए दिव्य चेतना नवीन लोकों में प्रवृत्त रहती है। तभी लंकापुरी के आलावा भगवान् कृष्ण के लिए द्वारकापुरी, ऋषि दधीचि की अस्थियों से इन्द्र के लिए वज्रगृह, युधिष्ठिर के लिए इन्द्रप्रस्थ आदि का निर्माण संभव हो पाता है।
वैसे भी मानना होता है कि विश्वकर्मा भगवान की सूक्ष्म शक्तियां सदैव काम करती रहती है। वरना कला, वास्तुकला और शिल्प कौशल पर विश्वकर्मा भगवान का प्रभाव विभिन्न संस्कृतियों में देखना संभव न होता। भारतीय उपमहाद्वीप में अवस्थित भव्य मंदिरों, महलों और मूर्तियों में उनकी दिव्य उपस्थिति से तो हम सब रू-ब-रू होते ही रहते हैं। खजुराहो मंदिर, कोणार्क का सूर्य मंदिर और मीनाक्षी मंदिर में जैसी जटिल नक्काशी है, विस्तृत भित्तिचित्र है और राजसी स्थापत्य है, वह सामान्य अभियंत्रण बुद्धि से कदापि संभव नहीं हो सकता। तभी भक्तगण किसी भी नए उद्यम या निर्माण परियोजना को शुरू करने से पहले विश्वकर्मा भगवान से आशीर्वाद लेते हैं। ताकि सफलता, सुरक्षा और समृद्धि सुनिश्चित हो सके।
हम सभी आधुनिक युग के विश्वकर्मा के रूप में विख्यात डॉ मोक्षगुण्डम विशवेशवरैया की रचनात्मकता और तकनीकी क्षमता के कायल हैं। पर उनके मामले में भी मानना पड़ता है कि पुरुषार्थ के बावजूद दैवी कृपा के बिना अनूठे कार्यों को अंजाम देना कदापि संभव न हुआ होगा। उनमें विद्यमान दैवीय गुणों का प्रमाण अनेक प्रसंगों से मिलता है। एक प्रसंग पर गौर कीजिए। डॉ विशवेशवरैया मैसूर के दीवान थे और राजकीय कार्य से कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक स्कूल शिक्षक ने उन्हें रोका और छात्रों के बीच दो शब्द बोलने का विनम्र आग्रह किया। डॉ विशवेशवरैया इस आग्रह को ठुकरा न पाए औऱ चले गए बच्चों के बीच। वे आमतौर पर ऐसा करते नहीं थे। इसलिए कि बगैर तैयारी कहीं कुछ भी बोल देना उनके स्वभाव में शामिल नहीं था। खैर, जब बच्चों को संबोधित करके वहीं से निकले तो उन्हें यह बात सालने लगी कि वे जो कुछ बोल आए, वे बच्चों के लिए ज्यादा उपयोगी न थे। लिहाजा, कुछ समय बाद उन्होंने स्कूल के शिक्षक से फिर से समय लिया और पूरी तैयारी से वहां गए और बच्चों को संबोधित किया। जाहिर है कि उनके संबोधन खूब सराहना हुई। पर, जरा सोचिए कि यदि उन पर दैवी कृपा न होती तो ऐसा विचार आना संभव था? सच तो यह है कि आमतौर पर ऐसे बातों पर पुनर्विचार ही नहीं किया जाता।
लेकिन उनकी संवेदनशीलता और सजगता का गहरा संदेश बच्चों के बीच गया। इसमें दो मत नहीं कि शीर्ष पद पर आसीन होते हुए कोई व्यक्ति इतना संवेदनशील तभी हो सकता है, जब उस पर ईश्वर की असीम कृपा हो। डॉ विशवेशवरैया के जीवन को देखें तो कहना होगा कि उन पर सृजन के देवता विश्वकर्मा भगवान की असीम कृपा थी। तंत्र विद्या के ज्ञानी भी कहते हैं कि विश्वकर्मा पूजा विधि-विधान और ध्यानपूर्वक की जाए तो चक्रों का जागरण होता है, जिनसे सृजन कार्य में लगे लोगों की मेधा-शक्ति में इजाफा होता है। दैवी शक्तियां सूक्ष्म रूप से उनके माध्यम से काम करने लगती हैं। इसे एक उदाहरण के जरिए समझिए। विश्वकर्मा भगवान को उनकी बुद्धिमत्ता, कौशल, और रचनात्मकता के लिए जाना जाता है। इसलिए उनकी आराधना को अक्सर स्वाधिष्ठान चक्र से जोड़ कर देखा जाता है, जिसका संबंध हमारी रचनात्मकता से भी माना गया है।
अब जबकि शिल्प और शिल्पकारों के एकीकरण के लिए हर स्तर पर प्रतिबद्धता दिखाई देने लगी है, विश्वकर्मा भगवान का संदेश सर्वग्रह्य हो गया है। वैसे में, आध्यात्मिक साधनाएं उस संदेश को धारण करने में मददगार साबित होंगी। विश्वकर्मा जयंती पर वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य को शत्-शत् नमन।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)