हनुमान जयंती की शुभकामनाएं। हम सब जानते हैं कि श्रीराम जी के साथ श्री हनुमान जी का पावन, अनुपम और अद्वितीय संबंध है। तभी उनके श्रीमुख से निकला, “शारीरिक रूप से मैं प्रभु का सेवक हूँ, मानसिक रूप से वह मेरे मित्र हैं और आध्यात्मिक रूप से वह और मैं एक ही हैं।” आइए, इस खास मौके पर इस कथन का गूढार्थ समझते हैं, जो श्री हनुमान जी की भक्ति, प्रेम और आध्यात्मिक गहराई का प्रतीक है। यह हम सबके लिए बेहतरीन और जीवन को रूपांतरित कर देने वाला संदेश है।
वैदिक ज्ञान और भारतीय संस्कृति के आधार पर हम जानते हैं कि संबंध वही होता है, जो भौतिक या भावनात्मक आकर्षण से परे और शरीर, वाणी या मन की सीमाओं से ऊपर उठकर आत्मिक स्तर पर जुड़ा हो। इस कसौटी पर प्रभु श्रीराम और श्रीहनुमान जी के संबंधों जैसी गहराई शायद ही कहीं देखने को मिलती। पूज्य गुरूदेव और विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती इस संबंध की बड़ी ही सुंदर व्याख्या करते हैं। वे कहते हैं, “जीवन में मैंने अब तक जितने भी संबंधों के बारे में पढ़ा या सुना है, उनमें सबसे सुंदर और सर्वोत्तम संबंध श्रीराम और हनुमान जी के बीच का है। एक बार किसी ने हनुमान जी से पूछा, “आपका श्रीराम से कैसा संबंध है?” हनुमान जी ने जो उत्तर दिया, वह अत्यंत सुंदर और गूढ़ था: “शारीरिक रूप से मैं प्रभु का सेवक हूँ, मानसिक रूप से वह मेरे मित्र हैं और आध्यात्मिक रूप से वह और मैं एक ही हैं।”
अब, श्री हनुमान जी के उत्तर का गूढ़ार्थ समझिए। जब श्री हनुमान जी कहते हैं, “शारीरिक रूप से मैं प्रभु का सेवक हूँ” तो यह दास्य भाव है। कैसे? “प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं। जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं॥” हनुमानजी ने शरीर की सीमा को पार कर असंभव कार्य किया। समुद्र लांघन करके लंका पहुँचे और सीता माता का संदेश ले आए। हम जानते हैं कि यह कितना कठिन कार्य था और इसमें कितनी बधाएं आई थीं। पर, हनुमान जी क्या कहते है? वे कहते हैं कि यह ठीक है कि उनके लिए रामकाज ही जीवन का सर्वोच्च कर्तव्य है। वह हर कार्य उनकी ही सेवा भावना से प्रेरित होकर करते हैं। परन्तु, उन्होंने जो कुछ किया, वह श्रीराम जी की ही शक्ति थी। यह बात हम सभी पर लागू होती है। यदि आप यह मानते हैं कि, “शारीरिक रूप से सेवक हूँ,” तो उस स्तर पर आपके अहंकार का क्या होता है? अहंकार का पूरी तरह लोप हो गया होता है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से भावना प्रकट होती है कि, “ईश्वर स्वामी हैं और मैं केवल उनके आदेश का पालन करने वाला एक सेवक हूँ।”
मानसिक रूप से जब आप यह अनुभव करते हैं कि, “वह और मैं मित्र हैं,” तो इसे सख्य भाव कहते हैं। रामचरितमानस के किष्किंधाकांड में प्रसंग आता है, “सुनत बचन प्रीति अधिकाई। भक्ति प्रगटि रघुबीरहि भाई॥” जब हनुमानजी ने वानर रूप में श्रीराम और लक्ष्मण से पहली बार संवाद किया तो उनकी वाणी में विनय, ज्ञान, भक्ति, विवेक, और संस्कारों की मिठास थी। पर, श्रीराम केवल उनके वचन ही नहीं सुन रहे थे, वे हनुमानजी के अंतर्मन को भी देख रहे थे। उनके हृदय से निकली प्रेममयी, समर्पण-युक्त वाणी ने श्रीराम के अंतःकरण में प्रेम का ज्वार उठा दिया। क्यों? इसलिए कि उन्होंने देखा कि श्री हनुमान एक सच्चा भक्त, मित्र और आत्मतत्त्व को जानने वाला दिव्य आत्मा है! तब, श्रीराम के मन में हनुमान के लिए भ्रातृ-स्नेह प्रकट हो गया। इसका अर्थ हुआ कि मित्र वह होता है, जिससे आप निर्भय होकर अपने हृदय की बात कह सकते हैं, और जो बिना किसी भेदभाव के आपके अंतर्मन को समझ सके। उस स्तर पर विश्वास, अपनापन और निकटता होती है।
और अंततः जब आप यह अनुभव करते हैं कि, “आध्यात्मिक रूप से वह और मैं एक हैं,” तब कोई भेद ही नहीं रह जाता। यह संबंध भक्ति, प्रेम और आत्मा की एकता का सर्वोच्च उदाहरण है। आत्मज्ञान की सर्वोच्च अवस्था में हनुमानजी यह जानते हैं कि उनका आत्मा और प्रभु का आत्मा एक ही ब्रह्म स्वरूप हैं। यह अद्वैत वेदांत का गूढ़ सत्य है। तभी वे कहते हैं, “राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम।” यह संकेत है कि हनुमानजी सामान्य भक्ति से आगे बढ़कर ज्ञान-भक्ति में प्रविष्ट हो चुके हैं, जहाँ ‘प्रभु और मैं अलग नहीं’ का बोध होता है।
इस बात को ऐसे समझिए। तुलसीदासजी कहते हैं: “जानत तुम्हहि तुम्हहि हउँ जानउँ। अस प्रभु दास तुलसी मानउँ॥” प्रभु! आपको जानने से ही मैंने इस जीवन का अर्थ जाना है। आप ही मेरे आराध्य हैं, आप ही मेरे परमात्मा हैं, और आप ही वह दर्पण हैं जिसमें मुझे मेरी आत्मा की झलक मिलती है। यह भक्ति और ज्ञान का अद्भुत समन्वय है, जहाँ भक्त अहंकार रहित होकर भगवान को ही अपना सच्चा स्वरूप मान बैठा है।
श्री हनुमान जी श्री राम के साथ अपने संबंधों को लेकर दास्य भाव से जो उद्गार व्यक्त करते हैं, उसमें तीन बातें सन्निहित हैं – सेवा, प्रेम, और एकता। वे खुद शारीरिक रूप से वे सेवक हैं, जो हमें कामना रहित कर्म का संदेश देते हैं। यानी यह कर्मयोग की बात हो गई। वे मानसिक रूप से भगवान के मित्र हैं, जो हमें प्रेम और विश्वास का पाठ पढ़ाते हैं और आध्यात्मिक रूप से वे श्री राम के साथ एक हैं, जो हमें आत्मिक सत्य यानी अद्वैत की ओर ले जाते हैं। सेवा, प्रेम और एकता इस युग की भी मांग है। इसके बिना जीवन का रूपांतरण तो दूर, भौतिक जीवन में भी सुख-शांति का अभाव बना रहेगा। श्री हनुमान जयंती का यह गहरा संदेश हम सबके लिए अनुकरणीय है।
जय श्रीराम। जय हनुमान।