चैत्र नवरात्रि केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि मानव चेतना के उत्थान और दिव्य शक्ति के साथ से जुड़ने का एक शक्तिशाली अवसर है। प्रत्येक दिन माँ के एक रूप की पूजा चक्रों को जागृत करती है, जो मूलाधार से सहस्रार तक चेतना को ऊपर उठाती है। इसका परिणाम होता है कि साधक के भीतर अज्ञान, अहंकार, क्रोध और लोभ रूपी आंतरिक असुरों का नाश होता है। इससे आत्म-शुद्धि होती है और शरीर, मन, और आत्मा लयबद्ध हो जाते हैं। तब चैत नवरात्रि के अंतिम दिन धरा पर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का आविर्भाव होता है। यह इस बात का प्रतीक है कि अहंकार, अज्ञान, और नकारात्मकता (तमस और रजस) पर विजय प्राप्त करते ही आत्मा अपने मूल स्वरूप में प्रकट हो जाती है।
हम जानते हैं कि प्राचीन काल से ही प्रकृति के तीन कार्यों सृजन, संरक्षण और संहार के आलोक में एक ही निराकार देवी के तीन स्वरूपों महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की आराधना की जाती रही है। दुर्गा सप्तशती की पूरी कथा बेहद प्रचलित है। यहां हम यह समझने की कोशिश करेंगे कि महामाया के तीन स्वरूपों और असुरों के बीच जो लड़ाई चलती रहती है, उसके आध्यात्मिक मायने क्या हैं। गुरूजन बताते हैं कि ईश्वर के निराकार रूप ने जब साकार रूप धारण किया तो उसे प्रकृति कहा गया। उस प्रकृति के दो छोर हैं। एक छोर है पुरुष (आत्मा या शुद्ध चेतना) और दूसरा है माया। यानी एक ही मां-बाप की दो संतानें हैं। आत्मा तो ईश्वर के साथ लयबद्ध है। पर माया टुकड़ों में बंटी हुई है और उसे ही असुर कहा गया है।
शास्त्रों में उल्लिखित सुर और असुर के बीच की संघर्ष-कथा भले किसी काल-खंड की बात हो, पर मौजूदा समय में भी वैसा ही संघर्ष हमारे भीतर हर पल चल रहा होता है। आध्यात्मिक नजरिए से देखें तो शुद्ध चेतना सुर है तो काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि असुर हैं। चूंकि हम सबका तन, मन, बुद्धि आदि माया के अधीन है, इसलिए मां का आवाह्न जरूरी होता है। ताकि हमारे भीतर के असुरों का संहार हो सके। सवाल है कि हमारे भीतर आसुरी शक्तियां इतनी प्रबल क्यों हो जाती हैं? अज्ञान और अहंकार के कारण व्यक्ति अपनी गलतियों को स्वीकार नहीं करता, जिससे आंतरिक तनाव बढ़ता है। जब भावनात्मक अस्थिरता आती है तब चिंता और अवसाद जैसी समस्याएं बढ़ती हैं। ये समस्याएं लंबे समय तक बनी रह गईं तो नकारात्मक प्रवृत्तियां हावी हो जाती हैं। इन सबका प्रभाव यह होता है कि आसुरी शक्तियां प्रबल हो जाती हैं। दुर्गा सप्तशती (देवीमाहात्म्यम्) के शक्तिशाली मंत्र भक्तों को आध्यात्मिक शक्ति, सुरक्षा, और आंतरिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने में मदद करते हैं।
कैसे? इसका उत्तर बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती देते हैं। उनके मुताबिक, दुर्गा सप्तशती दुर्गा मंत्र बहुत शक्तिशाली तांत्रिक मंत्र हैं। सौंदर्य लहरी, दुर्गा के बत्तीस नाम और अन्य सभी नवरात्रि मंत्र और अभ्यास मानव मानस को जगाने के लिए डिज़ाइन किए गए हैं। जिस तरह मानसिक स्तर, भावनात्मक स्तर, प्राणिक स्तर और शारीरिक स्तर होता है, उसी तरह हमारे जीवन में भी कंपन का स्तर होता है। यह कंपन स्तर शरीर में सबसे सूक्ष्म होता है और यह केवल आवृत्ति पर प्रतिक्रिया करता है। मंत्र शरीर में, व्यक्तित्व में ऐसी आवृत्तियाँ पैदा करते हैं, जो सूक्ष्म व्यक्तित्व को उत्तेजित और जागृत करती हैं। सूक्ष्म व्यक्तित्व का यह खुलना हृदय का खुलना भी है। तर्क एक सीमा तक जीवन को नियंत्रित करता है। तर्क, बुद्धि के बाद विश्वास, भावना आती है और विश्वास के बाद विलय, तादात्म्य आता है। जब यह विलय हमारे अंदर सूक्ष्म मानसिक स्तर, आध्यात्मिक स्तर पर होता है, तो हम ब्रह्मांड, जीवन, आत्मा, सृष्टि के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं। हम जीवन को अधिक जिम्मेदारी से जीना सीखते हैं, सदियों से प्राप्त ज्ञान की सराहना करते हैं और उसे लागू करते हैं। मंत्र निश्चित रूप से इस आंतरिक जागृति को पाने की कुंजी हैं।
पर, आधुनिक युग में कोई भी व्यक्ति अपनी प्राचीन मान्यताओं को केवल विश्वास के आधार पर मानने को तैयार नहीं है। ब्रिटिश विद्वान और भारतीय तंत्र शास्त्र के अध्येता सर जॉन वुड्रॉफ ने “द सर्पेंट पावर” नामक पुस्तक की जब रचना की तभी पश्चिमी देशों के साथ ही भारत के तथाकथित अभिजात्य वर्ग ने भी कुंडलिनी शक्ति को मान्यता दी। जापानी शोधकर्ता और योगी डॉ. हिरोशी मोटोयामा ने कुंडलिनी को “प्राण” से जोड़ा। उनकी सन् 1981 में प्रकाशित पुस्तक “थ्योरीज ऑफ़ द चक्राज” में एएमआई मशीन, जो भारतीय योग परंपरा में वर्णित मेरिडियन (ऊर्जा चैनल) और चक्रों (ऊर्जा केंद्र) की कार्यप्रणाली को मापने के लिए डिज़ाइन की गई थी, से चक्रों की विद्युत चालकता मापी गई। उसका परिणाम आया तो दुनिया ने माना कि यौगिक साधनाओं से चक्रों में असामान्य ऊर्जा का प्रवाह होता है।
मौजूदा समय में भी मंत्रों की वैज्ञानिकता पर दुनिया भर में शोध-कार्य चलते रहते हैं। कमाल यह कि अब तक के सभी परिणाम ऋषियों के अनुभवों से मेल खाते हुए हैं। वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि कुछ आवृत्तियाँ मस्तिष्क की तरंगों को प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिए, “ॐ” की ध्वनि प्रति सेकंड 432 कंपन उत्पन्न करती है। इस कंपन को हृदय चक्र या अनाहत चक्र की आवृत्ति कहा जाता है, जो प्रेम, करुणा, और शांति से जुड़ा है। चैत्र नवरात्रि में, जहाँ माँ दुर्गा की शक्ति और श्रीराम की शुद्ध चेतना की साधना होती है, हृदय चक्र की प्रासंगिकता को समझा जा सकता है।
जर्नल ऑफ अल्टरनेटिव एंड कंप्लीमेंटरी मेडिसिन (2016) के मुताबिक, ध्वनि चिकित्सा पर शोध के दौरान पता चला कि विशिष्ट आवृत्तियाँ शरीर के तंत्रिका तंत्र और मांसपेशियों को प्रभावित करती हैं। “लं” जैसे बीज मंत्रों की कम आवृत्ति वाली ध्वनि पेल्विक क्षेत्र में कंपन पैदा करती है, जो मूलाधार चक्र से संबंधित है। इस तरह स्पष्ट है कि ध्वनि तरंगें चक्रों को उत्तेजित करती हैं, क्योंकि वे विशिष्ट आवृत्तियों के माध्यम से शरीर और मस्तिष्क के ऊर्जा केंद्रों के साथ जुड़ी हुई हैं। जाहिर है कि चैत्र नवरात्रि में मंत्र जप के साथ साधना साधक को अपने भीतर की शक्ति को जागृत करने और जीवन में संतुलन लाने में मदद करती है। यह प्राचीन ज्ञान और आधुनिक विज्ञान का एक सुंदर संयोजन है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)