आध्यात्मिक खोज का पथ कभी सुगम नहीं होता। यह एक ऐसी यात्रा है, जो हृदय की गहराइयों से शुरू होती है और अनंत की ओर बढ़ती है। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। उनका जन्म एक जमींदार परिवार में हुआ था। पिता पुलिस अधिकारी थे। किशोरावस्था में ही उनके मन में आध्यात्मिक जिज्ञासा ने जन्म ले लिया था। संसार की क्षणभंगुरता और जीवन के गहरे अर्थ की खोज ने उन्हें बेचैन कर दिया। लिहाजा, घर की सुख-सुविधाओं का परित्याग कर सत्य की तलाश में निकल पड़े थे। वे सबसे पहले राजस्थान गए। अध्यात्म में अभिरुचि रखने वाली मुंहबोली बहन के कहने पर वहां एक संन्यासी से मिले।
वे तंत्र शास्त्र के शास्त्रीय पक्ष के विद्वान थे और एक आश्रम के संचालक थे। परमहंस जी छह महीने तक उनके सान्निध्य में तंत्र का अध्ययन करते रहे। दूसरी तरफ योग शिष्य पा कर गुरु अपने उत्तराधिकारी के रूप में देखने लगे। लेकिन परमहंस जी को यह स्वीकार्य नहीं था। वह तो खुद ही अकूत संपत्ति का परित्याग करके आत्मज्ञान के लिए निकले थे। इसलिए अभी किसी झमेले में पड़ने को तैयार न थे। वे सत्य की गहराई में उतरना चाहते थे। एक रात, चुपके से आश्रम से निकल गए।
परमहंस जी योग्य गुरु की तलाश करते हुए सहारनपुर के निकट लक्सर पहुंच गए। वहाँ उनकी मुलाकात एक जटाधारी महात्मा से हुई। उस महात्मा ने परमहंस जी की जिज्ञासा जानने के बाद उन्हें ऋषिकेश स्थित काली कमलीवाले बाबा के आश्रम तक पहुंचा दिया और कहा, “यहीं खोजना, गुरु मिल जाएंगे।” इस घटना से उनके जीवन में एक और मोड़ आई। अगले दिन, वे कैलाश आश्रम में स्वामी विष्णुदेवानंद जी महाराज से मिले और संन्यास की दीक्षा माँगी। स्वामी विष्णुदेवानंद ने उन्हें यह कहते हुए पास ही अवस्थित स्वामी शिवानंद जी के आश्रम में भेज दिया कि वे संन्यास नहीं देतें।
परमहंस जी जब स्वामी शिवानंद आश्रम पहुँचे, तो वह क्षण उनके जीवन का निर्णायक क्षण बन गया। अपने जमाने के महानतम संत स्वामी शिवानंद सरस्वती को देखते ही उनकी सारी खोज समाप्त हो गई। उनके हृदय में एक अपूर्व शांति और श्रद्धा का उदय हुआ। अब मन में न कोई सवाल था और न कोई शंका। विश्वास और प्रेम घनीभूत होता गया। आत्मा की आवाज सुनाई दी, “यहीं रह जाओ सत्यानंद!”
परमहंस जी को तुरंत ही महसूस हो गया था कि आश्रम में जीवन आसान नहीं है। वहाँ कोई भौतिक सुख-सुविधाएँ नहीं थीं। रोज़ भिक्षा माँगनी पड़ती थी, छोटी कुटिया में रहना पड़ता था, और मच्छर, बिच्छू, और साँपों का भय बना रहता था। खुद ही बर्तन माँजना, खाना बनाना, गंगा से पानी लाना और जलावन के लिए लकड़ी काटना दिनचर्या का हिस्सा बन गया था। स्वामी शिवानंद जी से मुलाकात भी मुश्किल से होती थी, क्योंकि वे अपनी कुटिया में रहते थे। बावजूद परमहंस जी का मन आनंद से भरा रहता था। यह गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण और भक्ति का प्रमाण था। फिर वह शुभ घड़ी आई जब स्वामी शिवानंद जी ने उन्हें संन्यास की दीक्षा दी और कालांतर में योग व आध्यात्म का वह मार्ग दिखाया, जिसे परमहंस जी ने दुनिया भर में फैलाया।
परमहंस जी की इस आध्यात्मिक यात्रा से हमें सीख मिलती है कि गुरु की खोज बाहरी नहीं, बल्कि आंतरिक होती है। सच्चा गुरु वही है, जिसके दर्शन मात्र से मन शांत हो जाए, श्रद्धा जागृत हो जाए, और जीवन का उद्देश्य स्पष्ट हो जाए। एक बात और। गुरु की प्राप्ति केवल भाग्य से नहीं, बल्कि तीव्र जिज्ञासा, साहस और समर्पण से होती है। यह कथा प्रत्येक साधक को प्रेरित करती है कि सत्य की खोज में धैर्य, विश्वास और समर्पण ही वह कुंजी है, जो सच्चे गुरु से मिला देती है।