भक्तिकाल के महान और अनूठे संत कबीर दास भारतीय योग परंपरा के एक अनमोल रत्न हैं। उनका जीवन एक ऐसी रोशनी की तरह था, जो लोगों को सच्ची भक्ति का मार्ग दिखाता था। वे स्वयं भक्ति में लीन रहते थे और दूसरों को भी प्रभु के प्रति प्रेम और समर्पण का रास्ता सिखाते थे। उन्होंने साबित किया कि बिना भक्ति के कोई भी धार्मिक कार्य, जैसे योग, यज्ञ, व्रत या दान निष्फल है। उन्होंने ब्रह्म को नाद (दिव्य ध्वनि) का स्वरूप माना और आत्मानुभूति के आधार पर घोषणा की कि नादयोग साधना ब्रह्म की प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग है।
संत कबीर ने जिस सहजयोग को प्रचलित किया था, वह समन्वित योग का एक रूप था, जिसमें हठयोग, राजयोग, कुंडलिनी योग, मत्रयोग, नादयोग और लययोग का समन्वय है। आज जब पूरी दुनिया में योग के नाम पर आसन और प्राणायाम की धूम है, संत कबीर समन्वित योग के विशालकाय महल में बिना किसी भेदभाव के ज्ञानी-अज्ञानी सबको सहजता से प्रवेश दिलाते रहे। कमाल यह कि साधक भी सहज रूप से रूपांतरित होते रहे। उस जमाने के लिहाज से यह क्रांतिकारी कदम था। आज जिस तरह सर्वत्र उन्माद फैला हुआ है, उनकी शिक्षाएं बेहद प्रासंगिक हो चली हैं। हालांकि सहजयोग अपने मूल स्वरूप में अब शायद ही उपलब्ध है। पर. उनके साहित्य में कर्मयोग, ज्ञान और भक्ति की महिमा का बखान इस तरह है कि कोई उसके अंश मात्र का भी अनुसरण करे तो जीवन के झंझावातों से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण में ज्ञान का सर्वोच्च रूप आत्मज्ञान है। उपनिषदों में कहा गया है, “आत्मानं विद्धि” यानी स्वयं को जानो। संत कबीर के जीवन पर दृष्टिपात करे तो कहना होगा कि वे ज्ञान लेकर ही जन्मे थे। मृत्युलोक में तो गुरू रामानंदाचार्य से मिले मंत्र की सहज साधना से उस ज्ञान का आवरण भर हटा था। इस लिहाज से संत कबीर का मृत्युलोक में पदार्पण कोई सामान्य घटना नहीं थी। पर, एक जुलाहा रामानंदाचार्य जी का शिष्य कहलाए, यह काशी के पंडितों को स्वीकार्य न था। वह समय था ही ऐसा कि ज्ञान, भक्ति और धर्म के नाम पर अनेक भ्रांतियां फैली हुई थीं। संत कबीर एक तरफ “पंडित वाद वदन्ते झूठा..” कहकर ऐसी विषमताओं और पाखंडों को चुनौती देते रहे तो दूसरी ओर सबकी खैर भी मनाते रहे – “कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर….।” ताउम्र समाज में फैले अज्ञान रुपी अंधकार को मिटाने के लिए ज्ञान और भक्ति का दीपक जलाते रहे। कुछ रोचक प्रसंगों उनकी शिक्षाओं की बारीकियों को समझना आसान होगा।
“जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहि।“ संत कबीर ने ठीक ही कहा है कि जब तक मनुष्य “मैं” और “मेरा” के भ्रम में फंसा रहता है, वह ईश्वर के साथ एकता का अनुभव नहीं कर सकता। काशी के पंडितों को अहंकार की शास्त्रीय समझ तो थी। पर व्यक्तिगत जीवन में आडंबर और अहंकार परिलक्षित होता था। ऐसे में गुरू रामानंदाचार्य जी को एक युक्ति निकालनी पड़ी। कबीर दास को मिले “राम” मंत्र की अलौकिक शक्ति का प्रदर्शन करवाना पड़ा। गुरू के इशारे पर कबीर दास ने जैसे ही उनकी पर्ण कुटीर को छुआ, वैसे ही कुटीर के तिनके-तिनके से राम-राम की आवाज निकलने लगी। अनहद नाद के इस चमत्कार को देखकर सबकी बोलती भले बंद हो गई। पर, अहंकार आसानी से घुटने कहां टेकता। इसलिए संत कबीर को पूर्ण रूप से स्वीकार्यता तब भी न मिली थी।
पर समय का चक्र ऐसा घूमा कि अपनी शास्त्रार्थ की कला के लिए विख्यात पंडितों को संत कबीर की शरण में जाना पड़ा। इस विनती के साथ कि दक्षिण भारत से आ रहे शास्त्रार्थी पद्मनाभ जी से वे खुद शास्त्रार्थ करें। वरना, पद्मनाभ जी से हार गए, तो काशी की कीर्ति पर बट्टा लग जाएगा। पद्मनाभ जी प्रख्यात विद्वान थे। शास्त्रार्थ में अजेयता के लिए प्रसिद्ध थे। उनके पास हजारों ग्रंथों का विशाल संग्रह था, जिन्हें वे गाड़ियों में भरकर अपने साथ शास्त्रार्थ के लिए ले जाते थे। दक्षिण के कई दिग्गज विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित करने के बाद काशी आ रहे थे।
जाहिर है कि काशी के विद्वानों में हड़कंप मचा हुआ है। ऐसे में बाबा विश्वनाथ से ही उम्मीद बंधती थी। मंदिर जा कर प्रार्थना की और आशीर्वाद मांगा कि उनकी प्रतिष्ठा बनी रहे। उसी दौरान उन्हें प्रेरणा मिली कि इस शास्त्रार्थ के लिए संत कबीर को चुना जाए। इसी प्रेरणा के कारण विद्वतजन संत कबीर के पास गए थे। संत कबीर दुविधा में पड़ गए – “मसि कागद छूऔं नहीं, कलम गहौं नहि हाथ। पद्मनाभ जी इतने बड़े विद्वान हैं, और मैं एक अपढ़। उनसे शास्त्रार्थ कैसे संभव है?” खैर, काफी अनुनय-विनय के बाद शास्त्रार्थ के लिए तैयार हो गए। जब पद्मनाभ जी काशी पहुंचे, तो शास्त्रार्थ के लिए बड़ी सभा का आयोजन किया गया। सभी शास्त्रार्थ को लेकर उत्सुक थे। एक तरफ अपढ़ बुनकर और दूसरी तरफ महान विद्वान।
संत कबीर ने शास्त्रार्थ शुरू किया और पद्मनाभ जी से एक साधारण, पर गहन सवाल पूछा, “आपने पढ़कर समझा, या समझकर पढ़ा?” यह प्रश्न केवल शास्त्रीय ज्ञान की गहराई को नहीं, बल्कि ज्ञान के वास्तविक उद्देश्य और उसकी आंतरिक समझ को चुनौती देता था। यानी यदि पढ़कर समझे तो किताबी ज्ञान हुआ और यदि समझ कर पढ़ना पड़ा तो ऐसी समझ को लानत है। पद्मनाभ जी इस गूढ़ार्थ को समझ गए। उन्होंने तत्काल अपने सारे ग्रंथों को गंगा जी में प्रवाहित कर दिया और संत कबीर के चरणों में नतमस्तक हो गए। तब संत कबीर ने कहा – “पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।” सच्चा ज्ञान अहंकार तोड़ता है और जीवन में प्रेम की गंगा प्रवाहित होने देता है।
उनके जीवन से जुड़े ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जिनसे उस आत्मज्ञानी संत की शिक्षाओं की अविरल धारा प्रवाहित होती है। ज्ञान और भक्ति के चरमोत्कर्ष पर संत कबीर का मन ऐसा मस्त हुआ कि चुप हो गए – “मन मस्त हुआ तब क्यूँ बोले……..” ऐसा ही होता है। पर, उनकी वाणी हमें जटिलताओं से मुक्त होकर सरलता की ओर लौटने का न्योता देती है। ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा तिथि को यानी 11 जून को इस महान संत की जयंती है। इस मौके पर, हम केवल दीपक न जलाएँ, बल्कि अंतर्रात्मा को प्रकाशित करने की कोशिश करें। ध्यान रहे कि संत कबीर हमें सांत्वना देने नहीं आए थे, बल्कि आंतरिक क्रांति बीज रूपी मशाल थमाने आए थे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)