मनुष्य की अनूठी क्षमता है कि वह अपने विचारों के अनुरूप परिवर्तित हो सकता है। जीवन में दो प्रक्रियाएँ हैं, बनना यानी साधना के माध्यम से नए गुण अपनाना और होना यानी उन गुणों की अभिव्यक्ति। व्यक्तित्व का निर्माण समाज, संस्कृति, शिक्षा और प्रकृति की छह शक्तियों यथा, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद व मात्सर्य से होता है। ये शक्तियां शुरू में मित्र के रूप में व्यक्तित्व को आकार देती हैं, लेकिन अनियंत्रित होने पर शत्रु बन जाती हैं। जब मन और आत्मा का संबंध जुड़ता है, तो ये शक्तियाँ विकास में बाधक लगने लगती हैं। संयम के माध्यम से इन्हें नियंत्रित, संशोधित और उत्कृष्ट किया जा सकता है। कैसे? क्या घंटों आसन और प्राणायाम करके या ध्यान की कोशिश करके? नहीं, कदापि नहीं। फिर कैसे?
इस सवाल का उत्तर इतना आसान नहीं है। लेकिन आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत व विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की भारत योग यात्रा – 2025 के दौरान इसी गूढ़ार्थ का अनुभव कराया गया। यौगिक साधनाओं के जरिए साधकों ने जाना कि प्रकृति की छह शक्तियों पर नियंत्रण प्रचलित चंद योगाभ्यासों से संभव नहीं है। भारत योग यात्रा के दौरान साधकों ने जैसा अनुभव प्राप्त किया, उन्हें शब्दों में व्यक्त करना तो संभव नहीं। इसलिए कि अनुभव तो व्यक्तिगत होता है। फिर भी सांकेतिक रूप से भारत योग यात्रा के यौगिक संदेशों की झांकी प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहा हूं।
हम जानते हैं कि ब्रह्मांड दो मूल सिद्धांतों पर टिका है। पहला है. प्राण शक्ति (जीवन ऊर्जा) और दूसरा है, चित्त शक्ति (चेतना)। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती वेदांत दर्शन की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि ये दोनों द्वैत जगत में अलग-अलग दिखाई देते हैं, लेकिन वास्तव में एक ही सिद्धांत के दो पहलू हैं। इसका मतलब है कि प्राण (ऊर्जा) में बदलाव लाकर चेतना को बदला जा सकता है, और चेतना में बदलाव लाकर प्राण को प्रभावित किया जा सकता है। चेतना का विकास तभी संभव है, जब शरीर में मौजूद ऊर्जा मुक्त हो। भले ही कई वर्षों तक ध्यान करे, लेकिन अगर ऊर्जा मुक्त नहीं होती, तो चेतना का विस्तार नहीं हो सकता। प्राण के जागरण या ऊर्जा विमुक्त होने पर ही उच्च चेतना (पराचेतना) की अवस्था तक पहुंचा जा सकता है। इसके लिए प्राण विद्या, प्रत्याहार और तंत्र आधारित सरल व प्रभावशाली साधनाएं कराई गई, जो शरीर में मौजूद प्राण शक्ति को मुक्त करने में मददगार थीं।
योग साधना सत्रों में इतना समय नहीं होता कि एक-एक अभ्यास की व्याख्या की जाए। उनकी ओर केवल इशारा किया जाता है। जिन्हें योग के सैद्धांतिक पक्ष जानने की लालसा होती है, उनके लिए योग प्रसाद के रुप में मिली पुस्तकें बड़े काम की साबित होती हैं। स्वामी जी बताते हैं कि प्राण विद्या में प्राण (जीवन ऊर्जा) का जागरण मूलाधार चक्र में होता है। इसे सजगता के साथ ऊपर की ओर आज्ञा चक्र (भौंहों के बीच) तक ले जाया जाता है, जहाँ इसे इकट्ठा किया जाता है। यह प्रक्रिया पूरक (श्वास लेते समय) में होती है, जिसमें प्राण केवल ऊपर की ओर जाता है। रेचक (श्वास छोड़ते समय) में प्राण आज्ञा चक्र में रहता है, और केवल श्वास व सजगता मूलाधार में लौटती हैं। इस स्तर पर आज्ञा चक्र अभ्यास का मुख्य केंद्र होता है और बाद में यह प्राण के वितरण को नियंत्रित करता है। प्रत्येक अभ्यास के अंत में, आज्ञा चक्र में इकट्ठा हुआ प्राण वापस मूलाधार में लौटाया जाता है। यह प्राण की वापसी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे ऊर्जा और चेतना सामान्य अवस्था में आ जाती हैं। यह अभ्यास नए योग साधकों को सरल ढंग से कराया जाता। पर, साधक पूरी सजगता और एकाग्रता के साथ करें तो लाभ अवश्य मिलता है।
योगनिद्रा के बारे में तो हम सब जानते हैं। पर एक होती है – प्राणनिद्रा। यह भी प्रत्याहार की ही क्रिया है। लेकिन यह न केवल प्रत्याहार की अवस्था लाती है, बल्कि प्राण (जीवन ऊर्जा) के प्रति संवेदनशीलता बढ़ जाती है और प्राणों में संतुलन लाती है। ये दोनों पहलू प्राण विद्या में सफलता के लिए जरूरी हैं। फिर बारी आती है योगनिद्रा की। आध्यात्मिक जागरण के दृष्टिकोण से योगनिद्रा भी बड़े महत्व का है। इसलिए, पहले बताई गई साधनाओं के साथ योगनिद्रा का अभ्यास अनिवार्य रूप से कराया जाता है। आधुनिक युग में प्रचलित “योगनिद्रा” योग बीसवीं सदी के महान संत और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक महासमाधिलीन परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती द्वारा दुनिया को दिया हुआ अनुपम उपहार है। यह वह निद्रा है, जो जागृति और स्वप्न के बीच मन को शांति और स्वास्थ्य का द्वार खोलकर आध्यात्मिक उत्थान के लिए मार्ग प्रशस्त करती है।
बिहार योग परंपरा और योग के द्वितीय अध्याय के लिहाज से इस योग विधि की बड़ी अहमियत है। इसलिए स्वामी सत्यानंद सरस्वती के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की भारत योग यात्रा – 2025 के दौरान भी योगनिद्रा की साधना जरूर कराई जाती है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहा करते थे कि स्वामी निरंजनानंद सरस्वती को पूरी शिक्षा योगनिद्रा के माध्यम से ही दी गई थी। दरअसल, योगनिद्रा के अभ्यास के दौरान सुषुम्ना या केंद्रीय नाड़ी मंडल क्रियाशील रहकर पूरे मस्तिष्क को जागृत कर देता है। इससे इड़ा और पिंगला नाड़ियों का काम ज्यादा बेहतर तरीके से होने लगता है। मस्तिष्क को अतिरिक्त ऊर्जा, प्राण और उत्तेजना प्राप्त होने लगती है। अनुभव भी विशिष्ट प्रकार के होते हैं। यह ज्ञान अर्जन के लिए भी आदर्श स्थिति होती है।
इस तरह, भारत योग यात्रा के दौरान योग साधक न केवल बिहार योग पद्धति के नवीनतम अवतार से परिचित हुए, बल्कि उन्होंने अनुभव किया कि आध्यात्मिक उत्थान में बिहार योग विद्यालय द्वारा अगले पचास वर्षों के लिए बनाई गई योग की रूपरेखा के मुताबिक योग का द्वितीय अध्याय कितना मददगार है। भारत योग यात्रा के साक्षी बने योग प्रेमियों ने समझा कि द्वितीय अध्याय योग का केवल एक नया चरण नहीं है; यह योग का पुनर्जनन है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती का सपना था कि एक ऐसी संस्कृति का निर्माण हो, जो मानव चेतना को नई ऊंचाइयों तक ले जाए। उनका सपना परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की योग यात्रा के दौरान आकार लेता दिखा, जो एक नई सुबह की शुरुआत है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)