पुनर्जन्म होता है, इसके उदाहरण अक्सर मिलते रहते हैं। बंगलुरू स्थित नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइसेंज (नीमहांस) के वरीय मनोचिकित्सक डॉ सतवंत के पसरीचा सन् 1974 से ही पूर्व जन्म की घटनाओं का अध्ययन कर रहे हैं। उन्होंने अब तक पांच सौ से ज्यादा मामलों का अध्ययन किया है। उनका निष्कर्ष है कि पांच साल तक की उम्र के सत्तर फीसदी बच्चों को पूर्वजन्म की घटनाएं याद थी। पर आठ साल या किसी मामले में दस साल की उम्र होते-होते पूर्वजन्म की यादें धूमिल हो जाती थीं। इन घटनाओं से योगशास्त्र के संचित कर्मों वाले सिद्धांत की पुष्टि होती है।
क्या पुनर्जन्म होता है और क्या पूर्व जन्म के संचित कर्मों की हमारे मौजूदा जीवन में कोई भूमिका होती है? इन सवालों को लेकर सदियों से मंथन किया जाता रहा है। हिंदू और इसाई से लेकर अनेक धर्मों में शास्त्रसम्मत तरीके से इन सवालों के पक्ष में अनेक तर्क उपस्थित किए जाते रहे हैं। आधुनिक विज्ञान इन सवालों के पक्ष में दिए जाने वाले कई तर्कों से असहमत नहीं है। बल्कि वैज्ञानिकों ने क्वांटम सिद्धांत के जरिए मानव चेतना के रहस्यों से पर्दा उठाने में बड़ी भूमिका निभाई है। इससे इस सिद्धांत को बल मिलता है कि आत्म-चेतना का अस्तित्व मृत्यु के बाद भी बना रहता है और नए शरीर में प्रवेश करता है। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि यदि पुनर्जन्म होता है और यौगिक विधियों के जरिए अवचेतन शक्तियों को जागृत करके संचित कर्मों का विकास संभव है तो अच्छे संचित कर्मों का विकास करके अपने जीवन को खुशनुमा क्यों न बनाया जाए।
भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में आत्म-चेतना के संदर्भ में जीने की कला पर काफी काम हुआ है। योगियों ने अनुभव किया कि अवचेतन शक्तियों को जागृत करके अतीन्द्रिय शक्तियों का विकास करना संभव है। दूसरी तरफ आम आदमी योग की बदौलत स्मरण शक्ति बढ़ा सकता है, पूर्व जन्म के मित्रों व स्नेही जनों की पहचान करके इस जीवन को आनंदित कर सकता है और लोकप्रियता का शिखर छू सकता है। अनेक बार हम सब अपने जीवन में अनुभव करते हैं कि यात्रा के दौरान सामने की सीट पर बैठे किसी अपरिचित के प्रति सहज आकर्षण होता है। इसके उलट किसी को देखकर अच्छा भाव उत्पन्न नहीं होता। इस तरह की घटनाएं सबके जीवन में कहीं भी, कभी भी और किसी रूप में घटित होती ही है। कई बार कोई ऐसा व्यक्ति मदद के लिए खड़ा हो जाता है, जिससे अपेक्षा न थी। पर सजगता के अभाव में हम इस बात पर मनन नहीं कर पातें कि ऐसा क्यों होता है।
परमहंस योगानंद बीसवीं सदी के प्रारंभ में ही इस तरह के संकेतों को जीवन के लिए अहम् मानते थे। कहते थे कि ऐसे संकेतों से मिले सूत्रों की पहचान कर जीवन को उन्नत बनाया जाना चाहिए। इस संदर्भ में 22 जनवरी 1939 को कैलिफोर्निया स्थित सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप मंदिर का उनका व्याख्यान उल्लेखनीय है। उन्होंने कहा था कि दो अपरिचितों का एक दूसरे के प्रति सहज ही आकर्षित होना मित्रता बढ़ाने का दैवीय आदेश माना जाना चाहिए। ऐसा आकर्षण इस बात का द्योतक है कि उन दोनों के बीच पूर्व जन्म में मित्रता या कोई प्रिय संबंध रहा होगा। इसलिए पूर्व जन्म के संबंधों की नींव पर इस जन्म में महल खड़ा किया गया तो जीवन सुखमय और आनंदमय हो जाएगा। पर इसके साथ ही कहते थे कि दिव्य आकर्षण और सामान्य आकर्षण में भेद करने का विवेक होना चाहिए। इसलिए कि सामान्य आकर्षण का आधार दूषित इच्छाएं और स्वार्थी कार्य होते हैं।
इसी तरह परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती योग की शक्ति से स्मरण शक्ति बढ़ाने और पूर्व जन्म के संचित ज्ञान में अभिवृद्धि करने पर काफी बल देते थे। वे कहते थे कि ये दोनों ही बातें शास्त्रसम्मत तो हैं ही, विज्ञानसम्मत भी हैं। दरअसल, स्वामी सत्यानंद सरस्वती विभिन्न यौगिक विधियों का देश-विदेश में वैज्ञानिक विश्लेषण करने कराने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे। इसलिए वे बार-बार कहते थे कि योग की जरूरत सबसे ज्यादा बच्चों को है। आठ साल की उम्र से योगाभ्यास कराया जाना चाहिए। ताकि पीनियल ग्रंथि या योग की भाषा में आज्ञा चक्र जागृत हो जाए। नतीजतन, संचित कर्मों के आधार पर जिसमें जैसा बीज होगा, उस अनुपात में उसका बेहतर तरीके से प्रतिभा का विकास होगा। यदि संचित कर्म सही नहीं है तो उसका क्षय भी किया जा सकेगा। वे कहते थे कि विज्ञान आज न कल मानेगा, पर आत्मज्ञानी जानते हैं कि संचित कर्म जीवन में किस तरह फलित होता है। इस संदर्भ में स्वामी जी से ही जुड़े एक वाकए की चर्चा यहां प्रासंगिक है। सत्संग के दौरान उनसे किसी ने पूछ लिया कि आप संन्यासी क्यों बन गए? स्वामी जी का उत्तर था – संन्यासी कोई बनता नहीं, बनकर आता है। इस जन्म में तो योग साधानाओं के जरिए संचित कर्मों का केवल विकास करना होता है।
स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने फ्रांस रेडियो को दिए साक्षात्कार में कहा था – “मृत्यु केवल प्रस्थान है। जब भौतिक शरीर मर जाता है, सूक्ष्म और कारण शरीर, जीवात्मा या आपका अपना व्यक्तित्व एक साथ भौतिक शरीर को छोड़ देते हैं। तब आपकी कामनाओं और कर्मों की पूर्ति के लिए वे एक नया शरीर प्राप्त करते हैं।“ यानी पिछले जन्म में आप योगी रहे हैं तो इस जन्म में आपकी प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से उसी तरफ होगी। सिर्फ अवचेतन के तल तक पहुंच बनाकर इस प्रतिभा की पहचान और उसका विकास करना होता है। हम सब व्यवहार रूप में भी देखते हैं कि एक ही माता-पिता की चार संतानों की एक ही परिवेश में परिवरिश होने के बावजूद उनकी प्रतिभाएं, उनकी प्रवृत्तियां अलग-अलग होती हैं। योगी इसे संचित कर्मों का ही नतीजा मानते हैं।
उपरोक्त तथ्यों से साफ है कि संचित कर्मों में सफलता और विफलता के सूत्र छिपे हुए हैं और उन्हें योग की बदौलत डिकोड करने की जरूरत है। इस दृष्टिकोण से कोरोनाकाल में विपदाओं के मध्य स्वर्णिम भविष्य के लिए एक अवसर भी उपस्थित हुआ है। विश्वसनीय दवा के अभाव में लोगों को देशज चिकित्सा पद्धतियों खासतौर से योग से बड़ी आश्वस्ति मिली। अनेक लोग खुद को संकट से बाहर निकालने में सफल हुए। स्वस्थ्य लोग स्वस्थ्य बने रहें, इसलिए योग करते रहे। अब योगाभ्यास को उच्चतर स्तर पर ले जाने का वक्त आ गया है। यदि योग को स्वास्थ्य तक सीमित न रखकर उसके अगले स्तर के अभ्यासों की बदौलत आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया जाए या कम से कम आज्ञा चक्र को ही जागृत करने का प्रयास किया जाए तो अवचेतन के अच्छे गुणों का विकास करना आसान होगा, जो सुखद और आनंदमय जीवन की कुंजी है। योगियों के मुताबिक, इस काम के लिए प्रत्याहार, धारणा व ध्यान की क्रमिक साधना फलदायी होगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)