परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती //
आधुनिक यौगिक व तांत्रिक पुनर्जागरण के प्रेरणास्रोत तथा इस शताव्दी के महानतम संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के उत्तराधिकारी और विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय व विश्व योगपीठ के परमाचार्य स्वामी निरंजनानंद सरस्वती से किसी साधक ने पूछ लिया, “आज के युग में हमारे जीवन में योग की क्या प्रासंगिकता है?” उस दिन स्वामी जी के सत्संग का यही विषय हो गया। वह एक दृष्टांत के माध्यम से योग की प्रासंगिकता पर बड़ी बातें कह गए। यहां प्रस्तुत है स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के उद्बोधन पर आधारित यह आलेख, जिसे प्रस्तुत किया है वरिष्ठ पत्रकार किशोर कुमार ने।
एक माली के पास एक छोटा-सा जमीन का टुकड़ा है। भूमि बंजर है। वह उसे एक सुंदर बगीचे में तब्दील करना चाहता है। क्या करना होगा? क्या केवल बीज बो कर माली की यह आशा फलीभूत होगी कि एक दिन ये बीज पौधे की शक्ल लेंगे और उन पर फल-फूल लगेंगे? या फिर उसको पहले भूमि को तैयार करना होगा, मोथे निकालने होंगे, कंकड़-पत्थर निकालने होंगे, भूमि को जोतना होगा और जब भूमि तैयार हो जाए तब बीच बोने होंगे तथा उसकी देखभाल तब तक करनी होगी, जब तक कि उसमें फल-फूल न लगने लग जाए? जब एक माली अपनी पसंद का बगीचा बनाने के लिए इतनी लंबी प्रक्रिया से गुजर सकता है, तो हम बागवानी की इस विचारधारा को अपने जीवन में क्यों नहीं उतार सकतें?
यदि आप अपने जीवन रूपी बगीचे के माली बन जाएं तो आपके जीवन की प्रसुप्त क्षमताएँ अपने आप जागृत होने लगेंगी। इसलिए कि सारी क्षमताएं हमारे भीतर हैं। उन्हें प्रकट होने के उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा है। हमें अपने आप को यह अवसर प्रदान करना है। हमलोग अपने जीवन में जो भाग-दौड़ करते हैं, उसका प्रयोजन क्या रहता है? यही न कि हमें समृद्धि मिले, हम अधिक सुरक्षित हों, हम समाज में और नाम कमा सकें, समाज के उत्थान और निर्माण में एक सकारात्मक भूमिका निभा सकें आदि आदि। मनुष्य का जो भी प्रयास, जो भी कर्म होता है, उसके पीछे यही उद्देश्य होता है – नाम, यश, प्रसन्नता, सुख-संपत्ति, समृद्धि और शांति। जन्म से मृत्यु तक हम इन्हीं की कामना करते हैं। पर इसके कारण हम लोगों की जो मानसिकता बन जाती है, वही हमलोगों के मनोविकास में बाधक सिद्ध होती है।
मनुष्य का मनोविकास योग का आधार है। मनोविकास की प्रक्रिया की शिक्षा हमें योग में प्राप्त होती है। इस प्रक्रिया का संबंध हमारे व्यावहारिक, सामाजिक और भौतिक जीवन के साथ है। हमें अपने मन को एक खेत के रूप में देखना होगा, जहां हम काम कर सकते हैं। योग शुरू से ही यह कहता आया है कि जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए मन पर ध्यान केंद्रित करना होगा। यह हमारी शरीर रूपी गाड़ी का इंजन है। जिस प्रकार एक कार इंजन के बिना नहीं चल सकती, उसकी प्रकार यदि इस जीवन का मार्ग-दर्शक मन न हो तो यह जीवन बेकार हो जाता है। प्राचीन शास्त्रों के अनुसार मन की क्षमताओं को व्यवस्थित करना तथा उनका विकास योग का लक्ष्य हो जाता है। यदि मन को केंद्रित, प्रेरित और एकाग्र न किया जाए और उसे सकारात्मक न बनाया जाए तो वह नकारात्मक जालों में फंस जाता है।
इसलिए जीवन रूपी बगीचे से घास-फूस को निकालना ही योग की प्रक्रिया है। योग की शुरूआत इसी से होती है। यदि आप योग शास्त्रों को देखें तो पाएँगे कि योग का अभ्यास आसन या ध्यान से शुरू नहीं होता। महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग में स्पष्ट रूप से इसकी व्याख्या की है। वे कहते हैं – ‘यम-नियम से शुरू करो और फिर आसन तथा प्राणायाम का अभ्यास करो और अंत में ध्यान का अभ्यास।‘ स्पष्ट है कि मानसिक परिर्तन तब शुरू होता है, जब आप यम और नियम का अभ्यास शुरू करते हैं। जब आप आसन का अभ्यास शुरू करते हैं तो स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। प्राणायाम का अभ्यास करते हैं तो प्राण-शक्ति उत्पन्न होती है। प्रत्याहार के अभ्यास से मन को नियंत्रण में लाया जाता है। धारणा के अभ्यास से मन को केंद्रित तथा एकाग्रचित्त किया जाता है। पर मन की मूल प्रकृति को बदलने के लिए, मूल स्वभाव को बदलने के लिए, मन के मोथे को उखाड़ने के लिए हमें यम और नियम के अभ्यास से शुरूआत करनी होती है।
एक सरल तरीके से हम इसकी शुरूआत कर सकते हैं। रोज रात को सोने से पहले अपनी दिनचर्या का अवलोकन कर लीजिए। यथा, सबेरे उठे तो पहले क्या किया, पहले किसकी चेहरा देखा, पहले कौन-सा काम किया, किससे क्या बात की, अखबार में क्या पढ़ा, नाश्ते में क्या खाया, किस चीज ने हमको अधिक प्रभावित किया, किस चीज को अनदेखा किया आदि? मतलब अपनी दिनचर्या के प्रत्येक क्षण को पुन: अपने मानस-पटल पर एक बार देखिए और विचार कीजिए कि अगर यह परिस्थिति, यह व्यक्ति, यह अवसर या यह घटना फिर घटती है तो इसका सामना और भी अच्छे तरीके से कैसे कर सकते हैं।
एक-दो महीने तक रोज ऐसा करते हैं तो पाएंगे कि आपके विचार-व्यवहार और प्रतिक्रियाओं में अंतर आ गया है। इसी को योग कहते हैं। आप जो अहले सुबह टेलीविजन के सामने बैठकर जो करते हैं, वह योग नहीं है। असली योग तो वह है जो आपने रात को सोते समय किया। इसलिए कि योग शरीर विज्ञान नहीं है। यह जीवन विज्ञान है और जीवन में उत्तमता प्राप्त करने का एक तरीका है। यह मत सोचना कि ध्यान लगाने और आसन को ही योग कहते हैं या मन में अच्छे विचारों के उठने को ही योग कहते हैं। नहीं, ये सब योग के अलग-अलग अंग हो सकते हैं। ठीक उसी तरह जैसे शरीर कितने ही तंत्र-तंत्रिकाओं से बना हुआ है और हम उनमें से किसी को भी कम और ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं कह सकतें। यदि किसी का पेट खराब है तो वह अंग उसके लिए महत्वपूर्ण हो जाता है।
यदि हम योग को जीवन विज्ञान के रूप में देखते हैं तो आसन योग का दसवां भाग है। योग का पांच प्रतिशत प्राणायाम है। इस प्रकार योग असीम विज्ञान है, जो व्यक्ति के हर स्तर को प्रभावित करता है। हमारे गुरूजी स्वामी सत्यानंद जी कहते रहे हैं-“दुनिया में किसी भी चीज का सरल समाधान नहीं है। अनेक संभावनाएं होती हैं। इनमें से एक का चयन करना पड़ता है।“ जाहिर है कि वे संभावनाएं हमारे लिए उपयुक्त और अनुरूप होनी चाहिए। इनकी खोज करने के लिए हमें सजग रहना पड़ता है। यह सजगता हम ध्यान के द्वारा ही ला सकते हैं और हम जो बता रहे हैं वह ध्यान की सरल प्रक्रिया है। यह वह ध्यान नहीं है जो आपको मोक्ष की तरफ ले जाए। यह वह ध्यान है जो आपको अपने प्रति सजग बना दे, क्योंकि ध्यान की शुरूआत तो अपने प्रति सजग बनने से ही होती है।
आप स्वाभाविक परिस्थितियों में काम करते हुए आत्म-निरीक्षण कर सकते हैं। यह आपके योग की शुरूआत होगी। यह आपको जीवन के सकारात्मक गुणों की ओर ले जाएगी। इसलिए शुरू में ही मैंने कहा कि “माली” बनो। इसलिए कि आपको सही बीज बोने हैं और उसकी रक्षा करनी है। आपको निश्चय, विश्वास तथा आंतरिक क्षमता के साथ अपने ढंग से जीवन जीने के लिए अपने भीतर साहस का विकास करना होगा। योग इसके लिए हमें अवसर उपलब्ध कराता है। यदि आप योग को समझ सकते हैं और अपनी दिनचर्या में इसको अपनाते हैं तो आपके व्यक्तित्व में अवश्य रूपांतरण होगा।
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