विदुषी तोमर //
ग्यारह मई मेरे जीवन की उन दुर्लभ स्मृतियों में से एक बन गया है, जिसे मैं शब्दों में समेटने की कोशिश तो कर रही हूँ, पर शायद ये अनुभव शब्दों से कहीं आगे की बात हैं।
हमने दिल्ली के त्यागराज स्टेडियम में बिहार स्कूल ऑफ योग द्वारा आयोजित साधना सत्र में भाग लिया। जैसे ही उस पावन परिसर में कदम रखा, लगा जैसे किसी और ही लोक में प्रवेश कर लिया हो—वहाँ की शांति, वहाँ के लोग, वहाँ का वातावरण… सब कुछ भीतर तक छू गया। हर चेहरा एक अलग तरह की शांति बिखेर रहा था। वहाँ कोई भी दिखावा नहीं था—सिर्फ सच्ची उपस्थिति और आत्मिक ऊर्जा।
सत्र की शुरुआत योग निद्रा से हुई। मेरा मन थोड़ी देर तक इधर-उधर भटकता रहा, लेकिन फिर मंत्रों की लय और भीतर की मौन ऊर्जा ने मुझे धीरे-धीरे अपने केंद्र की ओर खींच लिया। यह मेरे लिए केवल एक अभ्यास नहीं था, यह अपने आप से एक मुलाकात थी। फिर आए स्वामी जी—बाद में पता चला उनका नाम स्वामी शिवराजानंद जी है। 🙏 उनके विचार सीधे आत्मा में उतर गए। उन्होंने कहा: “समय की कद्र करो, वरना समय तुम्हारी कद्र नहीं करेगा।” और फिर, एक और वाक्य जो मेरे भीतर कुछ बदल गया: “प्रेम दूसरों में मत खोजो। अपने भीतर उस स्वरूप को गढ़ो और प्रेम करो जो तुम्हें कभी नहीं छोड़ेगा।”
ये शब्द सिर्फ विचार नहीं थे, ये जैसे किसी सूक्ष्म स्तर पर मेरे भीतर कुछ पुनर्स्थापित कर रहे थे। लेकिन फिर एक पल ऐसा भी आया जो मुझे और गहराई से छू गया—जब वही स्वामी जी, एक बच्चे के शोरगुल पर क्षणभर के लिए झुंझला गए। उस क्षण ने मुझे एक सच्ची बात सिखाई—योग हमें देवता नहीं बनाता, वह हमें इंसान बनना सिखाता है—एक सजग, संतुलित और स्वीकारशील इंसान। भावनाएँ आती हैं, लेकिन योग हमें उन्हें समझने, स्वीकारने और उनके पार जाने की कला सिखाता है। यही तो उसकी खूबसूरती है।
इस दिन ने मुझे सिखाया कि योग कोई प्रदर्शन नहीं है, यह आत्मा की चिकित्सा है। यह हमें दुनिया से भागने नहीं, बल्कि उससे जुड़ने की शक्ति देता है—सच्चाई के साथ, सादगी के साथ, शांति के साथ। आज जो सीखा, वह मेरे जीवन के पन्नों में नहीं, मेरे अंतर्मन की किताब में दर्ज हो गया है। और मैं प्रार्थना करती हूँ कि यह स्मृति, यह अहसास—कभी भी धुंधला न पड़े।