हम नववर्ष की दहलीज पर कदम रख चुके हैं। नववर्ष में नई आशाएं होती हैं, सपने होते हैं। आंतरिक इच्छा होती है कि नववर्ष नई संभावनाएं लेकर आए, जो जीवन को खुशियों से भर दे। पर, यक्ष प्रश्न सदा बना रहता है कि खुशी मिले कैसे? जीवन आनंदमय हो कैसे? योगी कहते हैं कि इस लक्ष्य की प्राप्ति योगमय जीवन से ही संभव है। तभी भारत के परंपरागत योग का लक्ष्य कभी केवल बीमारियों से मुक्ति नहीं रहा, बल्कि जीवन में पूर्णत्व योग का लक्ष्य रहा है।
आज योग का जैसा स्वरूप है, एक सौ साल पहले ऐसा नहीं था। बच्चे जब सात-आठ साल के होते थे तो उपनयन संस्कार के साथ ही योगमय जीवन की शुरुआत करा दी जाती थी। इस संस्कार के दौरान बच्चों को अनिवार्य रूप से सूर्य नमस्कार, भ्रामरी प्राणायाम और गायत्री मंत्र के जप की शिक्षा दी जाती थी। इसका लाभ यह होता था कि बच्चों की पीनियल ग्रंथि के क्षय होने की प्रक्रिया रूक जाती थी या धीमी पड़ जाती थी। इससे जुड़ी पिट्यूटरी ग्रंथि लंबे समय तक सुरक्षित रहती थी। इससे बच्चों के मस्तिष्क के कार्य- व्यवहार और ग्रहणशीलता का नियमन हो जाता था। बौद्धिक विकास की बाधाएं दूर होती थी या कम होती थीं। सजगता का विकास होने से जीवन में स्पष्टता रहती थी। यौन ग्रंथियां भी समय से पहले सक्रिय नहीं होती थीं।
आधुनिकता की होड़ में जीवनोपयोगी परंपराओं के परित्याग के अनर्थकारी परिणाम देखने को मिल रहे हैं। इसलिए समय की मांग है कि हमें स्वास्थ्य संबंधी वर्तमान चुनौतियों का सामना करने के लिए योग का आश्रय तो लेना ही चाहिए, स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए भी पुरानी कुछ उपयोगी परंपराओं का अनिवार्य रूप से निर्वहन करना चाहिए। जैसे, सूर्य नमस्कार, भ्रामरी प्राणायाम और गायत्री मंत्र के जप की शिक्षा बच्चों को जरूर देनी चाहिए। योग की भाषा में पीनियल ग्रंथि वाले स्थान को ही आज्ञा चक्र या तीसरा नेत्र कहा जाता हैं। संतों को हजारों साल पहले पता चल गया था कि शरीर में ऊर्जा के सात केंद्र होते हैं – मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र और सहस्रार चक्र और सभी चक्र शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक विकास के लिहाज से बड़े काम के होते हैं।
अब तो वैज्ञानिक भी इस बात को मान रहे हैं। इसलिए नववर्ष का संकल्प होना चाहिए कि बच्चों के साथ ही सभी उम्र के लोग अपना जीवन सावधानीपूर्वक योगमय बनाएंगे। इसे कुछ उदाहरणों के जरिए समझिए। आसनों में भुजंगासन को सर्वरोग विनाशनम् कहा गया है। दुनिया के अनेक भागों में इस पर अनुसंधान हुआ तो पता चला कि इसके लाभों के बारे में हम जितना जानते रहे हैं, वह काफी कम है। इस आसन से शरीर के अंगों को नियंत्रित करने वाला तंत्रिका तंत्र यानी नर्वस सिस्टम दुरूस्त रहता है। यही नहीं, इसका शक्तिशाली प्रभाव शरीर के सात में से चार चक्रों स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र और विशुद्धि चक्र पर भी पड़ता है। यानी प्राणायाम के कुछ फायदे भी मिल जाते हैं। पर हर्निया, पेप्टिक अल्सर, आंतों की टीबी, हाइपर थायराइड, कार्पल टनल सिंड्रोम या फिर रीढ़ की हड्डी के विकारों से लंबे समय से ग्रस्त व्यक्ति या कोई गर्भवती यह आसन कर ले तो क्या होगा? लेने के देने पड़ जाएंगे।
हठयोग के प्रतिपादकों महर्षि घेरंड और महर्षि स्वात्माराम के साथ ही देश के प्रख्यात योगियों के शोध प्रबंधों पर गौर फरमाएं और योगाभ्यास करते लोगों को देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि योगकर्म में कैसी-कैसी गलतियां की जा रही हैं। मसलन, हठयोग में सबसे पहला है षट्कर्म। इसके बाद का क्रम है – आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान। यदि कोई योगाभ्यासी षट्कर्म की कुछ जरूरी क्रियाएं भी नहीं करता तो आगे के योगाभ्यासों में बाधा आएगी या अपेक्षित परिणाम नहीं मिलेंगे। इसी तरह प्राणायाम का अभ्यास किए बिना प्रत्याहार व धारणा के अभ्यासों से अपेक्षित लाभ नहीं मिलेगा। ऐसे में ध्यान लगने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती।
राजयोग में आसनों का नियम बदल जाता है। पर व्यवहार रूप में देखा जाता है कि अनेक योग प्रशिक्षक हठयोग के अभ्यासक्रम को तो बदलते ही हैं, राजयोग के साथ घालमेल भी कर देते हैं। जबकि हठयोग में गयात्मक अभ्यास होते हैं और राजयोग में इसके विपरीत। जहां तक सावधानियों की बात है तो धनुरासन को ही ले लीजिए। यह भुजंगासन और शलभासन से मेल खाता हुआ आसन है। इन तीनों में कई समानताएं हैं। लाभ के स्तर पर भी और सावधानियों के स्तर पर भी। इस आसन से जब मेरूदंड लचीला होता है तो तंत्रिका तंत्र का व्यवधान दूर हो जाता है। पर हृदय रोगी, उच्च रक्तचाप के रोगी, हर्निया, कोलाइटिस और अल्सर के रोगियों के लिए यह आसन वर्जित है।
प्राणायामों के बारे में योग शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है कि इसे आसनों के बाद और शुद्धि क्रियाएं करके किया जाना चाहिए। पहले नाड़ी शोधन फिर कपालभाति और अंत में भस्त्रिका का अभ्यास किया जाना चाहिए। नाड़ी शोधन के लिए भी शर्त है। यदि सिर में दर्द हो या किन्हीं अन्य कारणों से मन बेचैन हो तो वैसे में यह अभ्यास कष्ट बढ़ा देगा। उसी तरह हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, मिर्गी, हर्निया और अल्सर के मरीज यदि कपालभाति करेंगे तो हानि हो जाएगी। जिनके फुफ्फुस कमजोर हों, उच्च या निम्न रक्त दबाव रहता हो, कान में संक्रमण हो, उन्हें भस्त्रिका प्राणायाम से दूर रहना चाहिए। हृदय रोगियों को तो भ्रामरी प्राणायाम में भी सावधानी बरतनी होती है। उन्हें बिना कुंभक के यह अभ्यास करने की सलाह दी जाती है।
पर हकीकत है कि हम अनजाने में या योग के नीम हकीमों के चक्कर में पड़कर गलत तरीकों से योगाभ्यास करते हैं। दूसरी बात यह कि सुबह आधा घंटा कोई भी योगासन कर लेने को ही पूर्ण योग मान बैठते हैं। इससे लाभ की जगह हानि अधिक होती है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था – “प्रत्येक राष्ट्र का विश्व के लिए एक संदेश होता है, एक प्रेरणा होती है। जब तक वह संदेश आक्रांत नहीं होता, तब तक राष्ट्र जीवित रहता है।“ इसलिए, हमें चिंतन करना चाहिए कि हमारा यौगिक जीवन कैसा हो कि न केवल जीवन अर्थपूर्ण बन जाए, बल्कि वह विश्व के लिए राष्ट्र का संदेश बन जाए। हम ऐसा कर पाए तो हमारी आशाएं अवश्य फलित होंगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)