मातृत्व की कोमल भावभूमि में जीवन का अंकुर प्रस्फुरित होना प्रकृति की चिरंतन लीला का एक दिव्य अनुष्ठान है। यह सृष्टि का सनातन विधान है, जहाँ प्रेम, त्याग और संरक्षण की छाया में नया जीवन आकार लेता है। जब मातृत्व की यह भावभूमि योग के प्रकाश से आलोकित होती है, तो ब्रह्मी चेतना का विकास होता है, जो आनंदमय जीवन और संतुलित समाज का आधार बनता है।
भारतीय दर्शन में गर्भसंस्कार का विशेष महत्व है। मान्यता है कि गर्भकाल में माता के विचार, भावनाएँ और कर्म गर्भस्थ शिशु की मानसिकता, संस्कार और भविष्य के व्यक्तित्व को गहराई से प्रभावित करते हैं। बृहदारण्यक उपनिषद् (6.4) और चरक संहिता (शारीरस्थान, अध्याय 8) जैसे वैदिक ग्रंथ इस बात की पुष्टि करते हैं कि मंत्र जप, सात्त्विक आहार, ध्यान और सकारात्मक विचार शिशु की आत्मा पर गहरा प्रभाव डालते हैं।
भक्त प्रह्लाद की कथा इसका जीवंत उदाहरण है। महाभारत के आदिपर्व के अनुसार, उनकी माता कयाधु को गर्भावस्था में नारद मुनि का सानिध्य प्राप्त हुआ। इस दौरान भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की शिक्षाओं ने गर्भस्थ प्रहलाद की आत्मा को प्रभावित किया, जिसके फलस्वरूप वे ब्रह्मी चेतना के साथ जन्मे। अष्टावक्र और अभिमन्यु की कथाएँ भी इसी सत्य की ओर संकेत करती हैं।
आधुनिक विज्ञान भी इस अवधारणा की पुष्टि करता है। सन् 2017 में “नेचर रिव्यूज न्यूरोसाइंस” में प्रकाशित एक अध्ययन में एपिजेनेटिक प्रभावों की चर्चा की गई है। एपिजेनेटिक्स के अनुसार, माता के विचार, भावनाएँ, आहार और कर्म गर्भस्थ शिशु के जीन अभिव्यक्ति को प्रभावित करते हैं, जो उसके स्वास्थ्य और चरित्र को आकार देता है। उदाहरण के लिए, गर्भवती माता में कोर्टिसोल (तनाव हार्मोन) का उच्च स्तर शिशु की भावनात्मक स्थिरता और सीखने की क्षमता को प्रभावित कर सकता है, जबकि एंडोर्फिन और सेरोटोनिन (खुशी के हार्मोन) शिशु के मानसिक स्वास्थ्य को सुदृढ़ करते हैं। इस प्रकार, गृहस्थ माहौल और माता-पिता दोनों के विचार शिशु के भविष्य को आकार देते हैं।
भारत सहित विश्व भर में अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की तैयारियां जोर-शोर से हो रही हैं। योग जीवन को उन्नत बनाने का सशक्त माध्यम है, और गर्भावस्था में इसकी भूमिका विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। भारत में प्रतिवर्ष ढाई करोड़ से अधिक बच्चों का जन्म होता है, और सर्जरी द्वारा प्रसव का चलन बढ़ रहा है। गर्भावस्था में दवाओं का उपयोग भी आम होता जा रहा है। ऐसे में बिहार योग परंपरा से प्रेरित भागलपुर ऑब्स्टेट्रिक्स एंड गायनिकोलॉजिकल सोसाइटी की मानद सचिव डॉ. कविता बरनवाल ने अपनी पुस्तक “गर्भावस्था में योगाभ्यास” में एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है। वे कहती हैं, “गर्भधारण कोई रोग नहीं है कि इसके लिए निरंतर औषधियों की आवश्यकता हो। यद्यपि कभी-कभी औषधियों की आवश्यकता पड़ती है, परंतु अधिकांश प्रसव स्वाभाविक और बिना कष्ट के संभव हैं।” कैसे? इसका उत्तर इस पुस्तक में है।
बिहार योग विद्यालय, मुंगेर के अधीन बिहार योग पब्लिकेशन्स ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में गर्भावस्था के दौरान योगाभ्यास को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है। इसमें आसन, प्राणायाम और योगनिद्रा की भूमिका पर बल दिया गया है। पट्कर्मों में कुंजल और शंख प्रक्षालन के महत्व बताए गए हैं। कहा गया है कि सफल गर्भावस्था व प्रसूति के लिए उदर की मांसपेशियों, मेरुदंड और पीठ की मांसपेशियों के विकास पर बल दिया जाना चाहिए। इसके लिए जो आसन बताए गए हैं, उसकी सूची पांच महीने पूरे होते ही छोटी हो जाती है। इसलिए कि तब आगे (पश्चिमोत्तानासन) और पीछे (चक्रासन, उष्ट्रासन) झुककर किए जाने वाले आसनों का अभ्यास कठिन हो जाता है। ऐसे में पवनमुक्तासन, उकडूं बैठ कर किए जाने वाले मलासन या काली आसन और पालथी मारकर किए जाने वाले आसन जैसे सुखासन, सिद्धयोनि आसन, स्वस्तिकासन आदि बड़े काम के साबित होते हैं।
पुस्तक में गर्भावस्था के दौरान प्राणायाम के लाभों की विशद विवेचन है। कहा गया है कि प्राणायाम के द्वारा अपशिष्ट उत्पादों का उचित उत्सर्जन हो जाता है तथा माता एवं शिशु को पर्याप्त ऑक्सीजन प्राप्त होती है। प्राणायाम स्नायु तंत्र को विशुद्ध और शान्त करता है, जिससे स्वस्थ होने का सुखद अनुभव प्राप्त होता है। शास्त्रों के अनुसार प्रथम तीन माह तक शिशु को प्राणिक आपूर्ति के लिए पूर्णतः माता पर निर्भर रहना पड़ता है। इसलिए गर्भावस्था के प्रारंभिक महीनों में प्राणायाम का पर्याप्त अभ्यास नितांत अनिवार्य है।
योगनिद्रा के लाभों से तो हम सब परिचित हैं ही। पुस्तक में बताया गया है कि योगनिद्रा में क्रमिक कल्पनाएँ माता के लिए विशेष रूप से उपयोगी हैं। योगनिद्रा की अति संवेदनशील अवस्था में माता की चेतन अनुभूति माता की गर्भावस्था को आध्यात्मिक विकास और पुनर्जन्म के अवसर में रूपान्तरित कर देती है। गर्भावस्था की अंतिम स्थिति में श्वास-प्रश्वास की गति शवासन में संक्षिप्त एवं धीमी पड़ने लगती है। ऐसी स्थिति में विकल्प के रूप में मत्स्य-क्रीड़ासन का सुझाव दिया जाता है। गर्भवती महिलाओं के लिए यह एक आरामदेह विकल्प है।
वैज्ञानिक अध्ययनों से भी गर्भावस्था के दौरान योग के लाभ प्रमाणित हुए हैं। कानपुर के जीएसवीएम मेडिकल कॉलेज में पांच सौ गर्भवती महिलाओं पर किए गए अध्ययन में पाया गया कि उत्कटासन और बद्धकोणासन जैसे योगासनों का अभ्यास करने वाली नब्बे फीसदी महिलाओं ने सामान्य प्रसव के माध्यम से स्वस्थ शिशुओं को जन्म दिया, और शिशुओं में कोई जटिलता नहीं देखी गई। दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में किए गए एक अध्ययन में यह भी पाया गया कि पुरुषों के योगमय जीवन से उनकी पत्नियों में गर्भपात का जोखिम कम हुआ और स्वस्थ शिशुओं का जन्म हुआ। यह योगशास्त्र की उस अवधारणा को सिद्ध करता है कि माता-पिता की मानसिक और शारीरिक स्थिति शिशु पर गहरा प्रभाव डालती है।
सच है कि गर्भ संस्कार और योग का समन्वय मातृत्व को एक आध्यात्मिक और वैज्ञानिक यात्रा में बदल देता है। यह न केवल माता और शिशु के शारीरिक स्वास्थ्य को सुदृढ़ करता है, बल्कि शिशु के मानसिक और आध्यात्मिक विकास को भी प्रोत्साहित करता है। प्रह्लाद, अष्टावक्र और अभिमन्यु जैसे उदाहरणों से लेकर आधुनिक वैज्ञानिक शोधों तक, यह स्पष्ट है कि गर्भावस्था में सकारात्मक विचार, योग और सात्विक जीवन शैली भावी पीढ़ी को सशक्त बनाने का आधार है। बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती इन बातों को और भी स्पष्ट करते हुए कहते हैं – “माता के शरीर से शिशु-शरीर में तीन प्रकार के तत्त्वों का स्थानान्तरण होता है। पहला है भौतिक, पोषक द्रव्यों का स्थानान्तरण जो नाभि-नाल के माध्यम से होता है। दूसरा है स्पन्दनों के रूप में प्राणों का संचार जो तीसरे माह के बाद शुरू होता है, और तीसरा है आत्म-तत्त्व तथा आध्यात्मिक संस्कारों का बीजारोपण।“
“गर्भावस्था में योगाभ्यास” जैसी पुस्तक इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जो माताओं को स्वस्थ और आनंदमय गर्भावस्था के लिए मार्गदर्शन प्रदान करती हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)