भगवान श्री जगन्नाथ की रथयात्रा तो हर साल होती है। पर उनका नवकलेवर तभी होता है, जब हिंदू पंचांग के अनुसार आषाढ़ मास में अधिक मास (दो आषाढ़ मास) पड़ता है, जो आमतौर पर 8, 12, या 19 वर्षों के अंतराल पर होता है। उदाहरण के लिए, सन् 2015 में नवकलेवर हुआ था, तो यह संयोग सन् 2034 में बनने की संभावना है। फिर भी समस्त जड़ और चेतन के स्वामी, जगत के नाथ श्री जगन्नाथ का नवकलेवर चर्चा में है। इसकी वजह बनी है नवकलेवर पर निर्मित फिल्म। वैसे तो भगवान जगन्नाथ की महिमा पर आधारित कई फिल्में बन चुकी हैं। इनमें कोई पंद्रह भाषाओं में डब की गई और सन् 2007 में प्रदर्शित फिल्म “जय जगन्नाथ” प्रमुख है। पर, भगवान के नवकलेवर पर पहली बार फिल्म बनी है – ‘श्री जगन्नाथंका नबकलेबर।’ यह 4 जुलाई से पर्दे पर होगी।
वैसे तो यह फिल्म ओडिया भाषा में बनी है। पर, फिल्म का जैसा विषय़ है, इसे “जय जगन्नाथ” की तरह अन्य भाषाओं में भी डब करने की जरूरत पड़े तो हैरानी न होगी। आखिर नवकलेवर का इतना महत्व क्यों है? दरअसल, नवकलेवर की परंपरा भगवान जगन्नाथ की उत्पत्ति और उनके विग्रहों की स्थापना की कथा से जुड़ी है। इसका विशद वर्णन स्कंद पुराण के उत्कल खंड और कुछ अन्य पौराणिक ग्रंथों में मिलता है। उसके मुताबिक, भगवान विष्णु (श्री जगन्नाथ) राजा इंद्रद्युम्न के स्वप्न में आए और आदेश दिया कि समुद्र तट पर अवस्थित नीम पेड़ के तने से उनकी, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियाँ बनाई जाए। नवकलेवर की परंपरा संभवतः इस कथा से प्रेरित है, जिसमें नीम की लकड़ी से नए विग्रह बनाए जाते हैं, जो भगवान के उस प्राचीन स्वरूप के पुनर्जनन का प्रतीक हैं। यानी नवकलेवर हिंदू दर्शन में जीवन-मृत्यु और पुनर्जनन के चक्र को दर्शाता है और इस विश्वास को मजबूत करता है कि भगवान भी मानव जीवन की तरह परिवर्तन के अधीन हैं।
फिल्म “जय जगन्नाथ” लक्ष्मी पुराण की कथा पर आधारित थी। कथा के अनुसार, श्रीया नाम की एक कथित निम्न जाति की महिला भगवान जगन्नाथ की भक्ति करती है, जो उस समय सामाजिक नियमों के खिलाफ था। पर लक्ष्मी जी उसे पूजा और अनुष्ठान का अधिकार दिला देती हैं। इससे बलराम (बलभद्र) और भगवान जगन्नाथ कुपित होते हैं तो लक्ष्मी घर छोड़कर चली जाती हैं। नतीजतन, भगवान बारह वर्षों तक घोर संकटों का सामना करते हैं। उन्हें अपनी गलती का अहसास होता है तो मां लक्ष्मी इस शर्त पर वापस लौटती हैं कि पृथ्वी पर जाति और वर्ग-भेद नहीं होगा। अंत में, लक्ष्मी जी को नारद के माध्यम से पता चलता है कि पूरा नाटक श्री जगन्नाथ की योजना के तहत था। ताकि समाज में समानता बने और जातिवाद समाप्त हो। आज जब जाति के आधार पर कथावाचक का विरोध हो रहा है तो हजारों साल पुरानी घटना की प्रासंगिकता बन पड़ी है।
यह सुखद है कि आध्यात्मिक फिल्मों का दौर शुरू हो चुका है। भगवान से जुड़ी अलग-अलग थीमों पर फिल्में बनाई जा रही हैं। खास बात यह कि युवाओं की उनमें गहरी दिलचस्पी होती है। युवाओं को आध्यात्मिक और सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ने की प्रेरणा मिलती हैं और वसुधैव कुटुंबकम् की भावना घनीभूत होती है। बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने पांच-छह दशक पहले ही कहा था कि 21वीं शताब्दी भक्ति की शताब्दी होगी। यह अवश्य घटित होगा, एक मान्यता के रूप में नहीं, बल्कि विज्ञान के रूप में। दुनिया के अनेक देशों के वैज्ञानिक कहते मिलते हैं कि पदार्थ पर वैज्ञानिक अनुसंधानों से अनेक उपलब्धियां हासिल हुईं। पर उसी अनुपात में मन अशांत होता गया और शरीर नाना प्रकार की बीमारियों का घर बनता गया। शायद यही वजह है कि भारत के आश्रमों में भारतीयों से ज्यादा विदेशियों की भरमार होती है।
संतों का मानना है कि आध्यात्मिक चेतना का विकास ही मनुष्य की नियति है। निम्न वासनाओं और कामनाओं के दायरे में सीमित रहना हमारी नियति नहीं है। महर्षि अरविंद का इस विषय पर सुंदर और तार्किक व्याख्यान है। वे कहते थे कि आने वाले युग में दिव्य चेतना मानव जीवन में अवश्य प्रकट होगी। कोई चाहे, न चाहे, मगर यह होकर रहेगा। यही मानवता की निर्धारित नियति है। शायद यही कारण है कि आज के युवाओं में आध्यात्मिक चेतना का विकास हो रहा है। वे बौद्धिकता व तार्किकता को पार कर आध्यात्मिक आयाम के प्रवेश-द्वार पर खड़े दिखते हैं। इस बात को ऐसे समझिए। जब-जब रथयात्रा का समय आता है, मीडिया में श्री जगन्नाथ भगवान और मंदिर से जुड़े रहस्यों की चर्चा होती ही है।
जैसे, मंदिर का झंडा हमेशा हवा की दिशा के विपरीत क्यों उड़ता है? मंदिर पर लगा वजनी सुदर्शन चक्र को शहर के किसी भी हिस्से से देखा जाए तो सीधा ही क्यों दिखता है? मंदिर के गुंबद की बात कौन कहे, आसपास भी कोई पक्षी क्यों नहीं फटकती, जबकि पक्षियों के कारण विमान दुर्घटनाएं होती रहती हैं? सूर्य चाहे पूरब में रहे, मध्य में रहे या पश्चिम में, मंदिर के सबसे ऊंचे गुंबद की भी परछाई क्यों नहीं बनती? मंदिर के मुख्य द्वार सिम्हद्वारम् के पास तो समुद्र की गर्जना सुनाई देती है। पर मंदिर में कदम रखते ही, आवाज आनी बंद क्यों हो जाती है? आदि आदि। आज के युवाओं को सूचना मात्र में रूचि नहीं है। वे इसके पीछे का विज्ञान जानना चाहते हैं। आधुनिक विज्ञान को इसका उत्तर देना है।
वैसे, हमारे ऋषियों और संतों के रूप में अध्यात्म विज्ञानियों ने तो अपने मानस-दर्शन के आधार पर सदियों पहले भगवान से जुड़े ऐसे रहस्यों का विज्ञान बता दिया था, जिनका उल्लेख शास्त्रों में है। उन ऋषियों ने अपनी साधना-शक्ति से जाना कि श्री जगन्नाथ और उनकी भक्ति की शक्ति अद्भुत है। वे संसार के संचालक और नियंता है। सृष्टि, पालन, संहार और कर्म-फल के दाता हैं। श्रीकृष्ण जैसे अवतार अपनी लीलाओं से भक्तों को आकर्षित करते हैं, परंतु श्री जगन्नाथ का स्वरूप भगवान की सर्वव्यापकता और नियंत्रण शक्ति का प्रतीक है। इसलिए, भगवान का अनंत स्वरूप भौतिक विज्ञान के जरिए नहीं, बल्कि भक्ति, ज्ञान और कर्म के माध्यम से ही बेहतर समझा जा सकता है। जय जगन्नाथ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)