Author: Kishore Kumar

Spiritual journalist & Founding Editor of Ushakaal.com

जब दुनिया भर में अशांति है और एक दूसरे पर गोला-बारूद बरसाए जा रहे हैं, वैसे में अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की थीमें अक्सर चौंकाती हैं। कभी ‘वसुधैव कुटुम्बकम के लिए योग’ थीम होती है तो कभी “एक पृथ्वी, एक स्वास्थ्य के लिए योग।” विदेशी आक्रमणकारियों ने सदैव भारत को क्षति पहुंचाने की कोशिश की। बावजूद, “वसुधैव कुटुंबकम” की भारतीय अवधारणा की जड़ें कमजोर होने के बजाय गहरी ही होती गईं। स्वामी विवेकानंद, परमहंस योगानंद, स्वामी रामतीर्थ, परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती, महर्षि महेश योगी जैसे आत्मज्ञानी संतों कभी अपने को दायरे में नहीं रखा, बल्कि योग और अध्यात्म की शक्ति से…

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कौन ठगवा नगरिया लूटल हो…चंदन काठ के बनल खटोला, ता पर दुलहिन सूतल हो…कौन ठगवा नगरिया लूटल हो…भक्तिकाल के अनूठे संत कबीर दास का यह निर्गुण भजन सुनते ही मन की गहराइयों में उतर जाता है। इसकी हर पंक्ति आत्मा को झकझोरती है और जीवन की नश्वरता का सत्य सामने लाती है। पद्मश्री प्रह्लाद सिंह टिप्पनिया और भारती बंधु जैसे लोक गायकों से लेकर शास्त्रीय संगीत के महान गायक कुमार गंधर्व तक, सभी ने इस भजन को अपनी आवाज में अमर किया। लेकिन जब सन् 1984 में अमोल पालेकर की फिल्म “अनकही” के लिए आशा भोसले ने इसे गाया और…

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सन् 1918 की बात है। उस समय के लिहाज से लंदन में एक अनूठी घटना घटी थी। एक चार वर्षीय बालक जॉन हक्सले अन्य बच्चों के साथ खेलते-खेलते अचानक चिल्लाने लगा – “मेरे पिता का दम घुटा जा रहा है, उन्हें बचाओ। वे एक कोठरी में बंद हैं और उन्हें कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा है।“ इतना कहते-कहते जॉन हक्सले बेहोश हो गया। पर होश आते ही वह बोल पड़ा – “अब पिता जी ठीक हो जाएंगे।“ जब यह घटना घटी थी, तब जॉन हक्सले के पिता द्वितीय महायुद्ध में फ्रांस के मोर्चे पर लड़ रहे थे। युद्ध समाप्त…

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भक्तिकाल के महान और अनूठे संत कबीर दास भारतीय योग परंपरा के एक अनमोल रत्न हैं। उनका जीवन एक ऐसी रोशनी की तरह था, जो लोगों को सच्ची भक्ति का मार्ग दिखाता था। वे स्वयं भक्ति में लीन रहते थे और दूसरों को भी प्रभु के प्रति प्रेम और समर्पण का रास्ता सिखाते थे। उन्होंने साबित किया कि बिना भक्ति के कोई भी धार्मिक कार्य, जैसे योग, यज्ञ, व्रत या दान निष्फल है। उन्होंने ब्रह्म को नाद (दिव्य ध्वनि) का स्वरूप माना और आत्मानुभूति के आधार पर घोषणा की कि नादयोग साधना ब्रह्म की प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग है।संत कबीर…

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मातृत्व की कोमल भावभूमि में जीवन का अंकुर प्रस्फुरित होना प्रकृति की चिरंतन लीला का एक दिव्य अनुष्ठान है। यह सृष्टि का सनातन विधान है, जहाँ प्रेम, त्याग और संरक्षण की छाया में नया जीवन आकार लेता है। जब मातृत्व की यह भावभूमि योग के प्रकाश से आलोकित होती है, तो ब्रह्मी चेतना का विकास होता है, जो आनंदमय जीवन और संतुलित समाज का आधार बनता है।भारतीय दर्शन में गर्भसंस्कार का विशेष महत्व है। मान्यता है कि गर्भकाल में माता के विचार, भावनाएँ और कर्म गर्भस्थ शिशु की मानसिकता, संस्कार और भविष्य के व्यक्तित्व को गहराई से प्रभावित करते हैं।…

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भारत में कोविड-19 के मामले एक बार फिर तेजी से बढ़ रहे हैं। चार साल पहले इस अनजान बीमारी ने लाखों लोगों की जान ली थी, और आज भी इसके दंश को लोग झेल रहे हैं। एक तरफ फेफड़े की बीमारियां तेजी से बढ़ गई तो दूसरी ओर हृदयाघात आम बात हो गई है। ऐसे में, फिर से कोरोना ने दस्तक दी है तो चिंता की लकीरें खिंच जाना वाजिब ही है। इसके साथ ही योग को फिर से एक प्रभावी हथियार के रूप में देखा जाने लगा है। इसलिए कि कोरोनाकाल में षट्कर्मों में विशेष तौर से नेति व…

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वैदिक साक्ष्य इस बात के प्रमाण हैं कि महाभारत में संजय ने दूर बैठकर अपनी दिव्य-दृष्टि से कुरुक्षेत्र के युद्ध की सजीव व्याख्या की थी। सनातन काल से अनेक संत-महात्मा अपनी अंतर्दृष्टि के बल पर भविष्य की झलक पाते रहे हैं। परमहंस श्री उड़िया बाबा ने 1940 के दशक में भविष्यवाणी की थी कि पाकिस्तान का पतन होगा, यानी इसके निर्माण से पूर्व ही इसके भविष्य की झलक पा ली थी। ज्योतिषियों ने भी ऐसी ही भविष्यवाणियाँ की। आज जैसे हालात उभर रहे हैं, लोगों का यह विचार बलवती होता जा रहा है कि क्या यही वह कालखंड है, जिसका…

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विदुषी तोमर //ग्यारह मई मेरे जीवन की उन दुर्लभ स्मृतियों में से एक बन गया है, जिसे मैं शब्दों में समेटने की कोशिश तो कर रही हूँ, पर शायद ये अनुभव शब्दों से कहीं आगे की बात हैं।हमने दिल्ली के त्यागराज स्टेडियम में बिहार स्कूल ऑफ योग द्वारा आयोजित साधना सत्र में भाग लिया। जैसे ही उस पावन परिसर में कदम रखा, लगा जैसे किसी और ही लोक में प्रवेश कर लिया हो—वहाँ की शांति, वहाँ के लोग, वहाँ का वातावरण… सब कुछ भीतर तक छू गया। हर चेहरा एक अलग तरह की शांति बिखेर रहा था। वहाँ कोई भी…

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मनुष्य की अनूठी क्षमता है कि वह अपने विचारों के अनुरूप परिवर्तित हो सकता है। जीवन में दो प्रक्रियाएँ हैं, बनना यानी साधना के माध्यम से नए गुण अपनाना और होना यानी उन गुणों की अभिव्यक्ति। व्यक्तित्व का निर्माण समाज, संस्कृति, शिक्षा और प्रकृति की छह शक्तियों यथा, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद व मात्सर्य से होता है। ये शक्तियां शुरू में मित्र के रूप में व्यक्तित्व को आकार देती हैं, लेकिन अनियंत्रित होने पर शत्रु बन जाती हैं। जब मन और आत्मा का संबंध जुड़ता है, तो ये शक्तियाँ विकास में बाधक लगने लगती हैं। संयम के माध्यम से इन्हें नियंत्रित, संशोधित और उत्कृष्ट किया जा सकता है। कैसे? क्या घंटों…

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