किशोर कुमार //
भारत नि:संदेह योग और अध्यात्म की वैश्विक राजधानी है। हमारे पास अमूल्य यौगिक संसाधनों का खजाना है। पर, बिखरा हुआ है। वैश्विक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए देश में एक समृद्ध यौगिक संसाधन केंद्र की जरूरत आ पड़ी है। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने सरकार को काफी पहले इस बाबत सुझाव दिया था। अब वक्त आ गया है कि सरकार बिना देरी किए उस सुझाव पर अमल करे। हमने दुनिया को अपनी यौगिक व आध्यात्मिक शक्ति की झांकी भर दिखलाई है। वास्तविक ज्ञान के खजाने से देश और दुनिया को लाभ मिले, इसके लिए अगले स्तर पर काम करने की जरूरत है।
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की घोषणा के बाद योग की विकास-यात्रा के दस साल पूरे होने को हैं। इस दौरान दुनिया ने भारत की गौरवशाली योग परंपरा को शिद्दत से महसूस किया। लोगों को सैद्धांतिक रूप से ही सही, पर बात समझ में आई कि भारत के योगी योग के विभिन्न अंगों के निरूपण और उसकी वैज्ञानिकता पर बल क्यों देते रहे हैं। पर, भारत की योग विद्या फलक इतना समृद्ध और व्यापक है कि योग को लेकर बनी समझ को भारत की यौगिक शक्ति की झांकी भर है। बावजूद, यह झांकी भी इतनी बलशाली साबित हुई है कि योग के लिहाज से अपने क्षितिज विस्तार की कामना से पूरी दुनिया भारत की ओर टकटकी लगाए बैठी है। ऐसे में नि:संदेह भारत की जिम्मेदारी पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गई है। इसके साथ ही एक सवाल भी खड़ा हुआ है कि क्या हम इस जिम्मेदारी के निर्वहन के लिए तैयार हैं?
केंद्र सरकार का संकल्प है कि भारत को सन् 2047 तक हर हाल में विकसित देशों की श्रेणी में ला खड़ा करना है। इसके लिए देश में समग्र विकास की जरूरत होगी। इसमें यौगिक संसाधनों का संवर्धन भी शामिल है। हाल के वर्षों में दुनिया में मुख्यत: योग विद्या के कारण भारत की धाक जमी है। हम फिर से विश्व गुरू बनने का सपना देखने लगे हैं तो उसका आधार यही है। पर, झांकी प्रस्तुत कर देने भर से बात नहीं बनती। इसमें दो मत नहीं कि बीते दस वर्षों के दौरान भारत में योग विद्या के प्रचार-प्रसार को लेकर काफी काम हुआ है। लेकिन अब योग विद्या के संवर्द्धन के साथ ही संसाधन के लिए अगले स्तर पर काम होना चाहिए। संन्यासियों और योग विज्ञानियों की मदद ली जाए तो यह काम प्रभावशाली तरीके से हो सकता है। इसलिए, अगले दस वर्षों का यौगिक एजेंडा उनके परामर्श से ही बनाया जाना चाहिए। युगों-युगों से अर्जित वैदिक ज्ञान परंपरा जैसे मूल्यवान धरोहर का मर्म योगी ही समझते हैं।
बीसवीं सदी के महान संत और ऋषिकेश स्थित डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक स्वामी शिवानंद सरस्वती की परंपरा के संन्यासी, परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के पट्टशिष्य और विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने कई साल पहले सरकार को बेहतरीन सुझाव दिया था। वे चाहते हैं कि भारत में योग विद्या आधारित एक ऐसा राष्ट्रीय संसाधन केंद्र होना चाहिए, जिसमें देश की प्रमाणिक योग संस्थाओं की यौगिक विधियों और उनके अध्ययन व अनुसंधान की विस्तृत जानकारी उपलब्ध रहे। इसका लाभ यह होगा कि भारत की समृद्ध यौगिक संस्कृति और परंपरा का दुर्लभ ज्ञान एक ही छत के नीचे उपलब्ध रहेगा। इससे देश-विदेश के लोगों को भारत की समग्र योग-शक्ति का लाभ आसानी से मिल सकेगा।
मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान भारत सरकार के आयुष मंत्रालय का स्वायत्तशासी संगठन है। संसाधन केंद्र के लिए यह सर्वाधिक उपयुक्त जान पड़ता है। सन् 1998 से पहले यह विश्वायतन योग आश्रम के नाम से जाना जाता था, जिसकी स्थापना स्वामी धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने की थी। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने योग विद्या के संवर्द्धन के लिए योग आश्रम को मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान में तब्दील कर दिया था। तब कहा गया कि यह संस्थान प्राचीन योग परंपराओं पर आधारित योग दर्शन और प्रथाओं की गहन समझ को बढ़ावा देगा। विभिन्न योग संस्थानों द्वारा अपनाई गई यौगिक अवधारणाओं का समन्वय व एकीकरण किया जाएगा। योग के बारे में विस्तृत जानकारी संकलित की जाएगी और वैज्ञानिक खोजों का दस्तावेजीकरण करके योग के समग्र ज्ञान का प्रचार किया जाएगा। यानी ये उद्देश्य स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की परिकल्पना से मेल खाते हुए हैं और मौजूदा समय में यह संस्थान विश्व स्वास्थ्य संगठन का सहयोग व समन्वय केंद्र है ही। ऐसे में गुरू-शिष्य परंपरा वाले योगाश्रमों के सहयोग से इस संस्थान का संवर्द्धन किया जाए तो योग विद्या की वैश्विक जरूरतें प्रभावी तरीके से पूरी की जा सकेगी।
भारत की पहल पर अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की घोषणा के साथ ही योग संसाधनों की सहज उपलब्धता के साथ ही दूसरी सबसे बड़ी चिंता गुणी योग प्रशिक्षकों को लेकर थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया था। पर, इस दिशा में किए गए काम नाकाफी साबित हो रहे हैं। योग प्रशिक्षकों की न्यूनतम योग्यता क्या हो, इसको लेकर स्पष्टता नहीं है। नतीजतन, जिन्हें शरीर विज्ञान का ज्ञान नहीं है, वे भी योग प्रशिक्षक बने हुए हैं। छोटे शहरों की बात कौन कहे, योग नगरी ऋषिकेश में भी फटाफट योग प्रशिक्षक बनाने की संस्कृति फल-फूल रही है। एक सौ घंटों में या उससे भी कम समय में योग प्रशिक्षक तैयार किए जा रहे हैं। ऐसे लोगों को शरीर विज्ञान के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं रहती। सोचने वाली बात है कि जो प्रशिक्षक स्वयं का भला नहीं कर सकता, वह दूसरों का क्या भला करेगा?
दसवें अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की थीम है – योग फॉर सेल्फ एंड सोसाइटी यानी स्वयं एवं समाज के लिए योग। बिहार योग पद्धति में योग का दो भागों में वर्गीकरण किया गया है। पहला, योग ऐसा होना चाहिए, जो समाज के लिए उपयोगी हो। ताकि, लोगों की शारीरिक व मानसिक समस्याओं का निराकरण हो सके। इससे जीवन संतुलित और व्यवस्थित रहेगा। योग का दूसरा, किन्तु महत्वपूर्ण उद्देश्य अपनी प्रतिभाओं को विकसित करना है। ऐसे में गुणवत्तापूर्ण योग प्रशिक्षण की व्यवस्था न हुई तो आधुनिक युग की जरूरतों के लिहाज से योग विद्या का प्रचार-प्रसार कैसे संभव होगा? और आम लोगों का भला कैसे होगा?
भारत सरकार की एक अधिसूचना के मुताबिक, देश के चार नामचीन योग संस्थानों को प्रशिक्षण सह संसाधन केंद्र के रूप में मान्यता है। वे हैं – शिवानंद आश्रम, ऋषिकेश, बिहार योग विद्यालय, मुंगेर, कैवल्यधाम लोनावाला और स्वामी विवेकानन्द योग अनुसंधान संस्थान, बंगलुरू। पर, हर योग संस्थान की सीमाएं हैं। दूसरी तरफ, गुणवत्तापूर्ण योग प्रशिक्षकों की मांग और पूर्ति में बड़ा अंतर है। इस अंतर को पाटना आसान नहीं। गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा के लिए सरकार को उन योग संस्थानों के अलावा अन्य सक्षम संस्थानों की मदद में भी खड़ा होना होगा।
भविष्य का यौगिक एजेंडा ऐसा होना चाहिए कि योग शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य तक ही सीमित न रह जाए। आध्यात्मिक महाशक्ति के रूप में भारत की जिम्मेदारी है कि वह क्रिया योग, कुंडलिनी योग, मंत्र योग, स्वर योग, लय योग आदि जैसी उच्चतर योग साधनाओं के लिए भी लोगों को प्रेरित करे। इन तमाम बातों को ध्यान में रखते हुए कहना होगा कि राष्ट्रीय योग संसाधन केंद्र की स्थापना, गुणवत्तापूर्ण योग प्रशिक्षण और योग प्रशिक्षकों के लिए न्यूनतम अहर्ता का निर्धारण समय की मांग है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)