कौन ठगवा नगरिया लूटल हो…
चंदन काठ के बनल खटोला, ता पर दुलहिन सूतल हो…
कौन ठगवा नगरिया लूटल हो…
भक्तिकाल के अनूठे संत कबीर दास का यह निर्गुण भजन सुनते ही मन की गहराइयों में उतर जाता है। इसकी हर पंक्ति आत्मा को झकझोरती है और जीवन की नश्वरता का सत्य सामने लाती है। पद्मश्री प्रह्लाद सिंह टिप्पनिया और भारती बंधु जैसे लोक गायकों से लेकर शास्त्रीय संगीत के महान गायक कुमार गंधर्व तक, सभी ने इस भजन को अपनी आवाज में अमर किया। लेकिन जब सन् 1984 में अमोल पालेकर की फिल्म “अनकही” के लिए आशा भोसले ने इसे गाया और जयदेव ने अपने संगीत से सजाया, तो यह भजन आम लोगों की जुबान पर चढ़ गया। रिकॉर्डिंग के बाद जयदेव इतने भाव-विभोर हुए कि आशा भोसले को गले लगाकर रो पड़े। आशा ने भी इस भजन के लिए एक पैसा न लिया, क्योंकि यह गीत केवल शब्दों का समूह नहीं, बल्कि आत्मा की पुकार था।
कबीर ने इस भजन में वैदिक दर्शन के गहन सत्य को सरल शब्दों में पिरोया है। यह जीवन की क्षणभंगुरता और आत्मा की शाश्वत यात्रा का बोध कराता है। कबीर कहते हैं कि हमारा स्थूल शरीर चंदन के खटोले सा है, जिसमें आत्मा रूपी दुलहिन विश्राम करती है। यह शरीर पंचतत्वों—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश—से बना एक सुंदर गृह है, पर यह अस्थायी है। कबीर का संदेश स्पष्ट है: इस शरीर की क्षणिक आभा में खोने के बजाय, हमें आत्मा की अमरता को पहचानना चाहिए।
कबीर ने आत्मा को सखी और परमात्मा को दुलहा कहकर संबोधित किया है। “उठो सखी री माँग संवारो, दुलहा मो से रूठल हो” में गहरा आध्यात्मिक अर्थ छिपा है। माँग संवारना यानी कर्मों को शुद्ध करना, विचारों को निर्मल करना और जीवन को सकारात्मक दिशा देना। परमात्मा से रूठना यानी हमारी चेतना का भौतिक बंधनों में जकड़ जाना। कबीर कहते हैं कि अपने शरीर और मन रूपी गृह को प्रेम और शांति का केंद्र बनाओ, ताकि आत्मा और परमात्मा का मिलन हो सके। संत कबीर “आए जम राजा पलंग चढ़ि बैठा, नैनन अंसुवा टूटल हो” के जरिए मृत्यु के अटल सत्य को दर्शाते हैं। यमराज एक दिन इस शरीर रूपी गृह में प्रवेश करेंगे, और तब आँखों से आँसुओं की धारा बहेगी। पर आत्मा की अनंत यात्रा कहां ठहरने वाली है। चार कंधों पर उठकर यह शरीर पंचतत्व में विलीन हो जाएगा।
कबीर का यह भजन विशेष रूप से गृहस्थों के लिए है। वे कहते हैं कि गृहस्वामी और गृहस्वामिनी के रूप में हमारा दायित्व है कि अपने शरीर और मन रूपी गृह को आध्यात्मिकता का केंद्र बनाएँ। वेदों में यज्ञ का जो महत्व है, वह भी यही संदेश देता है। यानी हमारे कर्म और विचार यज्ञ की तरह हों, जो आत्मा को परमात्मा से जोड़े। “कहत कबीर सुनो भाई साधो, जग से नाता छूटल हो” के जरिए कबीर कहते हैं कि यह जगत और शरीर अस्थायी हैं। हमें अपने गृह को शांति, प्रेम और आध्यात्मिकता से सजाना चाहिए, ताकि हमारा नाता भौतिकता से नहीं, परमात्मा से जुड़े।
वैदिक दर्शन कहता है कि आत्मा की प्रतिभा तब जागृत होती है, जब हम अपने जीवन को सकारात्मक और आध्यात्मिक दिशा में ले जाते हैं। कबीर का यह भजन हमें उस महानता की ओर ले जाता है, जहाँ आत्मा अपने सच्चे स्वरूप को पहचानती है। जब हम अपने शरीर और मन को शुद्ध और पवित्र बनाते हैं, तभी हमारा जीवन सार्थक होता है। यह प्रक्रिया ही हमारी सच्ची प्रतिभा है।
कबीर का यह भजन केवल एक गीत नहीं, बल्कि जीवन का दर्शन है। यह हमें सिखाता है कि इस नश्वर नगरिया को लूटने वाला कोई ठग नहीं, बल्कि हमारी अपनी अनभिज्ञता है। जब हम आत्मा की अमरता को समझ लेते हैं, तभी यह जीवन सही मायनों में सजता है, आनंदमय हो जाता है।