बीसवीं सदी के महानतम संत और विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की महासमाधि के पंद्रह साल पूरे होने को हैं। उन्होंने पांच दिसंबर की मध्यरात्रि में महासमाधि ली थी। शिष्यों से वादा करके गए थे – “आऊंगा जरुर, रिटर्न टिकट लेकर जा रहा हूं।“ उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती तो सदैव उनकी दिव्य उपस्थिति महसूस करते हैं। पर, दुनिया भर में फैले शिष्यों की आंखें अपने गुरू को बाल रुप में सर्वत्र तलाशती रहती हैं। किसी भूखे-नंगे बच्चे की आंखें या मुख परमहंस जी से मिलती-जुलती दिख जाएं तो भावनाएं हिलोरे लेने लगती हैं कि यह भौतिक शरीर कहीं पूज्य गुरू जी का ही तो नहीं। इसी तरह कोई उन्हें प्रेम, करुणा और दानशीलता जैसे गुणों का आधार लेकर तलाश करता है। हम जैसों की सामान्य आंखें ऐसे ही तलाश करती हैं। भरोसा है कि परमहंस जी नया शरीर धारण करेंगे।
परमहंस जी योग विद्या के सिरमौर तो थे ही, सामाजिक चेतना के अग्रदूत भी थे। वे सत्संग के दौरान अक्सर अपने पूज्य गुरू स्वामी शिवानंद सरस्वती के हवाले कहते थे – “मेरे पूज्य गुरू स्वामी शिवानन्द जी हमेशा कहते थे, “हिन्दुस्तान में साधु लोग मोक्ष प्राप्त करने के लिए अपना समय नष्ट कर रहे हैं। अरे! तुम मुक्त हो जाओगे, पर दुनिया के लोग तो भूखे मर रहे हैं। साधु लोग कुछ कर नहीं पा रहे हैं, सब अपने मोक्ष के लिए प्रयत्न कर रहे हैं।” हमने पूछा, “क्या करें?” उन्होंने कहा, “मुझे जो कहना था, कह दिया।” तभी मेरे मन में विचार आया – मेरे को मोक्ष नहीं चाहिए। मेरे को जन्म-मरण के चक्कर से मुक्ति नहीं चाहिए। मुझे बार-बार जन्म लेना है।“परमहंस जी कहते, “मैं केवल एक ही चीज़ चाहता हूं और वह यह कि इतनी शक्ति मिले कि दुःखी लोगों की मदद कर सकें। इसलिए, हे भगवान, मुझे जल्दी ले जाओ, क्योंकि अब इस उम्र में ज्यादा काम होता नहीं है। दुबारा वापस भेज देना। मुझे संन्यास मार्ग में बढ़कर फिर से लोगों की सेवा करने की शिक्षा और प्रेरणा जन्म से ही देना। मुझे गरीब कुल में जन्म देना, ताकि मालूम रहे कि भूख क्या चीज़ है। ठण्डी में ठण्ड क्या चीज़ होती है। बिना डॉक्टर के बीमारी झेलना क्या चीज़ होती है। एक जटिल और निरक्षर माँ का बेटा होना कितना दुःखदायी है, कितना कष्टकर है, कितना परेशान करता है। ताकि हम उस जीवन को जीयें और फिर एक बार उठें। गुरू के आशीर्वाद और प्रभु की कृपा से वापस टिकट लेकर जा रहा हूं। आऊंगा जरूर।“ इसलिए, शिष्यों को भरोसा है कि परमहंस जी इस लोक में आएंगे जरूर।
श्रीमद्भगवतगीता (अध्याय-2, श्लोक-27) से हमें शिक्षा मिलती है कि मुक्ति न मिली हो तो जिसने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है। हम सब जानते हैं कि माघ महीने की अष्टमी तिथि को भीष्म अष्टमी मनाई जाती है। क्यो? इसलिए कि इसी दिन सूर्य उत्तरायण होते हैं और इसी दिन भीष्म पितामह ने अपना भौतिक शरीर त्याग दिया था। ऐसा महज संयोग नहीं था, बल्कि उनकी इच्छा का परिणाम था। वे महाभारत के बाद से आठ दिनों तक बाणों की शैय्या पर इसी प्रतीक्षा में लेटे रहे कि सूर्य उत्तरायण होते ही इस भौतिक शरीर से मुक्त हो जाएंगे।
परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती का भी महासमाधि में लीन होना कुछ ऐसा ही था। उन्होंने भी भौतिक शरीर का परित्याग करने के लिए इच्छानुसार तिथि और समय निर्धारित किया था। रिखियापीठ की पीठाधिश्वरी स्वामी सत्यसंगानंद सरस्वती कहती हैं, “श्रीस्वामी जी ने मुझे रात दस बजे तुलसी कुटीर में अपने निवास पर बुलाया और मुझसे कहा, “मेरे जाने का समय आ गया है, मैं सांसारिक दुनिया छोड़ रहा हूँ। मैंने अपने जीवन में जो कुछ भी किया है, वह निर्देशित था और उसका एक उद्देश्य था, मेरी मृत्यु का भी एक उद्देश्य है।“स्वामी जी पद्मासन में बैठे और ध्यान में लीन एक योगी की तरह चले गए। यह अकल्पनीय था, शायद यह केवल किताबों में लिखा है, निश्चित रूप से किसी ने भी अपने जीवन की महानता के अनुरूप इतना भव्य और इतना शानदार निकास नहीं किया है। उन्होंने बस साँस ली और एक गहरी साँस के साथ अपने प्राणों को अपने शरीर से बाहर निकाल लिया। स्वामी सत्यसंगानंद कहती है – “उन्होंने मुझसे कहा था, “इस शरीर से विदा होने से एक सेकंड पहले मैं ब्रह्मांड की सभी विद्याओं का ज्ञान प्राप्त करूँगा और यही मेरे जीवन की पूर्णता होगी।“ मैं आपको बता दूँ कि हमें खुशी और गर्व महसूस करना चाहिए क्योंकि हमारे प्यारे गुरुदेव सफल हुए, क्योंकि उन्होंने वह प्राप्त किया जिसके लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन समर्पित किया था।“
सचमुच, यह योग की पराकाष्ठा थी। कलियुग में योगबल की बदौलत इच्छानुसार भौतिक शरीर त्याग देने का यह अनूठा उदाहरण है। स्वामी जी अक्सर कहा करते थे कि जब मुझे अपना शरीर छोड़ना होगा, तो वह अस्पताल में शिष्यों से घिरा हुआ और नाक और मुंह में ट्यूब लगी हुई नहीं होगी, बल्कि मैं ध्यान की अवस्था में रहूंगा। ऐसा हुआ भी। यह थी उनकी संकल्प-शक्ति की ताकत। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं, “श्रीस्वामी जी ने संकल्प शक्ति से जो हासिल किया, उसकी बदौलत ही मुंगेर से दुनिया में बिहार योग परंपरा का परचम लहरा और रिखिया उनकी तपोभूमि बन गई। वहां भी अपने गुरु की शिक्षाओं के अनुसार अपना जीवन जिया और दूसरों को भी ‘सेवा करो, प्रेम करो, दान दो’ की शिक्षाओं को जीने के लिए प्रेरित किया – केवल सिद्धांत रूप में नहीं, बल्कि व्यवहार रुप भी।
“जब यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा, “इस दुनिया में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?” तो उन्होंने जवाब दिया, “लोग हर दिन मर रहे हैं और फिर भी हर कोई अमर होना चाहता है।” जब कोई भी अभी तक अमर नहीं हुआ है, तो आप पहले कैसे हो सकते हैं? लोग मृत्यु से डरते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि यह अध्याय की समाप्ति है, किताब का अंत है। वे यह नहीं मानते कि वे मृत्यु के बाद भी जीवित रहेंगे। वे एक शरीर को जलते हुए देखते हैं और सोचते हैं कि सब कुछ खत्म हो गया है और वे भी ऐसे ही खत्म हो जाएंगे। लोग भूत, पिशाच और आत्माओं में विश्वास करते हैं, लेकिन वे पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते। वे पुनर्जन्म में विश्वास करने से हिचकिचाते हैं, लेकिन भूतों में विश्वास करके वे शरीर की मृत्यु के बाद भी आत्मा की निरंतरता का अनुमान लगाते हैं। भूत बनने के लिए, आत्मा, आत्मा को शरीर की मृत्यु के बाद भी जीवित रहना पड़ता है। जब आप मृत्यु के बाद शरीर का पूर्ण विनाश देखते हैं, तो भूत कौन बनता है? निश्चित रूप से शरीर नहीं। जाहिर है कि जो शरीर से इतर है, वह भूत बन जाता है। जब मनुष्य को यह एहसास हो जाता है कि शरीर के मरने के बाद भी वह आत्मा में ही जीवित रहता है, तब उसे मृत्यु का कोई भय नहीं रहता। जब वह मृत्यु को एक नई भूमिका, एक नया जीवन, एक नया अवसर, नया कर्म, शरीर का एक नया मॉडल, जो अपने वर्तमान कष्टों से मुक्त है, में बदलने की प्रक्रिया के रूप में देखता है, तब वह भय से मुक्त हो जाता है।“
– स्वामी सत्यानंद सरस्वती
आज महिला सशक्तीकरण की खूब बात होती है। इसके नाम पर राजनीति भी होती है। पर, परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने महासमाधि के पहले अपने अंतिम संदेश में कहा था, “ सबने देखा कि रिखिया की कन्याओं ने किस तरह शतचंडी महायज्ञ और महामृत्युंजय यज्ञ का सफलतापूर्वक संचालन किया। पूरे भारत में ऐसे बच्चे हैं, जिनकी असल प्रतिभा का प्रकटीकरण होना है। तभी वे परिष्कृत संस्कृति के राजदूत बनेंगे। समाज और संन्यासियों का कर्तव्य है कि उनके बेहतर संस्कार के लिए उचित माहौल तैयार करें।“ खुशी की बात है कि उस महायोगी की सूक्ष्म ऊर्जा से उनके यौगिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण का प्रचार-प्रसार अनवरत जारी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)