प्राचीनकाल में जिस योग और वैदिक ज्ञान की अखंड धारा ने भारत को ‘विश्वगुरु’ का गौरव प्रदान किया था, आज उसी अमर परंपरा को पुनर्जीवन मिलता दिख रहा है। 11वें अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर इसकी झलक दिखी, जब भारत ने योग को केवल आसन-प्राणायाम तक सीमित न रखकर, एक समग्र जीवनदर्शन के रूप में विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया। काल के प्रवाह में क्षीण हुई ज्ञान-गंगा, जो मानवता को सत्य, शांति और सामंजस्य की ओर ले जाती थी, योग के माध्यम से पुनः प्रवाहित होती दिखी। यह ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना के अनुरुप है।
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस प्रारंभ होने के बाद की सबसे बड़ी उपलब्धि तो यही है कि योग की वैज्ञानिकता को साबित करने में विदेशी निर्भरता कम हो गई। भारतीय संस्थानों और शोधकर्ताओं ने योग के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक लाभों को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया है। इस वजह से विश्व के अन्य देश भी योग की वैज्ञानिकता को मान्यता देने और इसके लाभों को समझने के लिए गंभीर हुए हैं। विश्वविद्यालयों और अनुसंधान केंद्रों में योग पर अध्ययन बढ़े हैं, जिससे इसकी वैश्विक स्वीकार्यता बढ़ रही है।
दूसरी बात यह कि भारत योग के कारण पर्यटन का एक प्रमुख केंद्र बन रहा है। ऋषिकेश, हरिद्वार जैसे योग केंद्रों में विदेशी पर्यटकों की संख्या बढ़ रही है, जो भारतीय संस्कृति और अर्थव्यवस्था को मजबूत कर रही है। साथ ही, योग की विश्वसनीयता ने इसे वैश्विक स्तर पर एक आकर्षक स्वास्थ्य प्रणाली के रूप में स्थापित किया है। सबसे महत्वपूर्ण, योग ने विश्व शांति में अपनी भूमिका सिद्ध की है। निर्विवाद रूप से माना जा रहा है कि तनाव और संघर्ष के दौर में योग मन की शांति और सामाजिक समरसता को बढ़ावा देता है। इसलिए विश्व के अनेक देश भारत की योग विद्या से सीख लेते हुए इसे न केवल शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य, बल्कि सामूहिक कल्याण और शांति का साधन मानने लगे हैं। भारत की यह पहल योग को विश्व धरोहर के रूप में स्थापित कर रही है, जो मानवता के लिए एक अनमोल उपहार है।
योग की विश्वसनीयता बढ़ाने में वैज्ञानिक अनुसंधान की भूमिका अहम् होती है। सुखद है कि विज्ञान की प्रगति और सरकारी इच्छा-शक्ति के कारण योग अनुसंधान अब आसान हो गया है। लेकिन यहां तक की यात्रा में भारत के योगियों का त्याग अविस्मरणीय है। योग को आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर कसकर उसे आम जनता के बीच ले जाने में भारत के दो योगियों स्वामी कुवल्यानंद और परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती का बड़ा योगदान रहा है। इन योगियों ने जब योग को जन-जन तक ले जाने का बीड़ा उठाया था, तब भारत की प्रयोगशालाएं उतनी उन्नत नहीं थी कि योग विधियों के वैज्ञानिक प्रभावों का आकलन किया जाता। स्वामी कुवल्यानंद ने बीस के दशक में अपने ही शरीर पर प्रयोग करना शुरू किया। बाद में महाराष्ट्र के लोनावाला में अनुसंधान केंद्र खोलकर सबसे पहले उड्डियान, नौलि, सर्वांगासन आदि योग विधियों का मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव जानने के लिए शोध किया। थॉयराइड ग्रंथियों पर योग के प्रभाव संबंधी अध्ययन उस काल के लिहाज से अनूठा था। इन अध्ययनों के नतीजे उनकी त्रैमासिक पत्रिका के पहले अंक में प्रकाशित किए गए थे।
यौगिक अनुसंधानों और उनके नतीजों के आलोक में यौगिक उपचारों से असाध्य बीमारियां भी ठीक होने लगी तो स्वामी कुवल्यानंद की विश्वसनीयता और कैवल्यधाम आश्रम की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। देश-विदेशों से बड़ी-बड़ी हस्तियां यौगिक उपचार के लिए लोनावाला आने लगी थीं। भारत के प्रमुख हस्तियों में मोतीलाल नेहरू, पंडित जवाहरलाल नेहरू, पंडित मदन मोहन मालवीय आदि को स्वामी कुवल्यानंद ने योग सिखाया था। पंडित मालवीय तो कैवल्यधाम के विश्वसनीय कार्यों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बीएचयू के साथ मिलकर कोई यौगिक परियोजना शुरू करने की इच्छा जता दी थी। मौजूदा समय में भारत सरकार का सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन योगा एंड नेचुरोपैथी कैवल्यधाम संस्थान से मिलकर यौगिक अनुसंधान पर काम कर रहा है।
स्वामी कुवल्यानंद के समय की परिस्थितियां कुछ ऐसी थीं कि अनुसंधान केंद्र खोलना आसान हो गया था। पर परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती को तो उनके गुरू ऋषिकेश के स्वामी शिवानंद सरस्वती ने एक रूपया आठ आने देकर आश्रम से विदा कर दिया था और कहा था – “जाओ सत्यानंद, योग का प्रचार करो।“ ऐसी स्थिति में स्वामी सत्यानंद के लिए योग विधियों का वैज्ञानिक अध्ययन कराना सदैव चुनौती भरा कार्य होता था। स्वामी जी विदेश जा कर लोगों को योग सिखाते और उससे जो धन मिलता, उसी से विदेशी प्रयोगशालाओं में योग विधियों का वैज्ञानिक प्रभाव जानते। यह सिलसिला वर्षों चलता रहा। यानी बड़ी कठिनाई से योग की वैज्ञानिकता साबित करके उसका देश-विदेश में प्रचार किया था। स्वामी सत्यानंद साठ के दशक में खाड़ी देशों के दौरे पर थे तो इराक के तत्कालीन शासक मोहम्मद रज़ा शाह उनकी बातों से इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने एक घंटे के सत्संग का प्रसारण रेडिया से करवाया और उनकी उपलब्ध पुस्तकों का फारसी में अनुवाद करवाया था। इससे मिला धन भी योग अनुसंधान में ही लगा दिया गया था।
खैर, अच्छी बात है कि भारत सरकार योग विद्या की अहमियत को समझते हुए कई स्तरों पर काम कर रही है। उनमें योग अनुसंधान महत्वपूर्ण है। इस मामले में नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) का अनुकरणीय योगदान है। दूसरी और बेहद महत्वपूर्ण उपलब्धि यह है कि योग के दो अंगों यानी आसन और प्राणायाम से आगे बढ़ गई। दुनिया भर में जिस तरह माहौल तनावपूर्ण होता जा रहा है, योग जैसा शक्तिशाली हथियार बेहद कारगर साबित हो सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है, “समत्वं योग उच्यते।” यानी मन की समता ही योग है। यह समता हमें राग-द्वेष, सुख-दुख और लाभ-हानि के द्वंद्वों से मुक्त करती है। आज दुनिया भर में जो समस्याएं है, उसकी जड़ में ऐसे ही द्वंद्व हैं, जो उलझनें पैदा करते हैं। भारतीय संत तो पहले से ही महसूस करते रहे हैं कि योग का प्रयोग सत्संबंधों के विकास और वृद्धि के लिए होना चाहिए। यही युगानुकूल है। सुखद है कि योग दिवस के मौके पर भारत सरकार ने इन बातों का महत्व समझा और ‘मी टु वी’ भाव पर बल देते हुए योग को लोकनीति का हिस्सा बनाने की वकालत कर दी। यह योग का वैश्विक संस्कृति के रूप में प्रतिष्ठापित होने का आगाज है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)