स्मार्टफोन, सोशल मीडिया और डिजिटल उपकरण हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं। ये तकनीकें हमें दुनिया से जोड़ती हैं। लेकिन इसका बुरा प्रभाव हमारे स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। हमारा शरीर केवल मांस, हड्डियों और रक्त का बना कोई यंत्र नहीं, बल्कि अत्यंत सुसंवेदनशील, सजग और लयबद्ध तंत्र है, जो हमारी प्रत्येक क्रिया-प्रतिक्रिया से प्रभावित होता है। इसलिए, डिजिटल आदतें न केवल हमें थकाती हैं, बल्कि नींद, खुशी और एकाग्रता के लिए आवश्यक सेरोटोनिन और मेलाटोनिन जैसे रसायनों का संतुलन बिगड़ जाता है। छोटे बच्चों का मनोविकार से ग्रस्त होना इस बात का प्रमाण है। ऐसे में योग विद्या की प्रभावशाली विधि त्राटक की महत्ता ज्यादा ही बढ़ गई है।
पहले बात करते हैं सर जॉन पॉल मेकार्टनी की। त्राटक की महत्ता बताने के लिए यह प्रासंगिक है। विश्व-प्रसिद्ध ब्रिटिश संगीतकार पॉल मेकार्टनी प्रसिद्ध द बीटल्स के संस्थापक सदस्य रहे हैं। वही द बीटल्स, जिसके अगुआ जॉर्ज हैरिसन बीसवीं सदी के महान संत महर्षि महेश योगी के भावातीत ध्यान से प्रभावित होकर यौगिक साधना के लिए पूरी टीम के साथ ऋषिकेश में ठहर गए थे। 82 वर्षीय पॉल मेकार्टनी अपने संगीत के कारण नहीं, बल्कि त्राटक के अभ्यास से नेत्र-ज्योति लौट जाने के कारण चर्चा में हैं। उन्होंने हाल ही “द टाइम्स” को दिए इंटरव्यू में दावा किया कि उनकी धुंधली पड़ गई ज्योति त्राटक के नियमित अभ्यास से लौट गई है। अब चश्मा लगाने की भी जरुरत नहीं पड़ती।
वैश्विक शोधों से पता चलता है कि त्राटक योग नेत्र स्वास्थ्य, मानसिक विश्राम, संज्ञानात्मक कार्यों, और भावनात्मक स्थिरता को बढ़ाने वाला एक प्रभावी गैर-औषधीय उपाय है। हाल के वर्षों में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), आईआईटी, दिल्ली, नीमहांस, बेंगलुरु, और हार्वर्ड मेडिकल स्कूल जैसे संस्थानों ने त्राटक पर शोध किया तो पाया कि इससे मस्तिष्क की कार्यप्रणाली पर गहरा प्रभाव होता है। आंखों की मांसपेशियों को संतुलन प्रदान करता है और दृष्टि क्षमता को बनाए रखने में सहायक सिद्ध हो रहा है। योगशास्त्र में त्राटक को इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों को संतुलित करने वाली क्रिया माना गया है। इससे चित्त एकाग्र और नेत्र स्थिर हो जाता है तो सुषुम्ना नाड़ी सक्रिय हो जाती है। इससे नेत्रों की रोशनी बढ़ती है। स्नायविक तनाव, चिन्ता, अवसाद एवं अनिंद्रा से मुक्ति मिलती है और तन्त्रिका-तन्त्र का सन्तुलन होता है। स्मरण-शक्ति बढ़ाती है और एकाग्रता एवं दृढ़ इच्छा-शक्ति का विकास होता है। आज्ञा-चक्र क्रियाशील होता है। इस तरह ध्यान की तैयारी भी हो जाती है।
योगशास्त्र में त्राटक के मुख्यत: तीन प्रकार बताए गए हैं – बहिर्त्राटक, अंतर्त्राटक और अधोत्राटक, जो साधक को क्रमशः बाहरी एकाग्रता से भीतर की चेतना और अंत में गूढ़ आत्मचिंतन की ओर ले जाती हैं। इन तीनों का स्वास्थ्य पर अलग-अलग प्रभाव होता है। पर, केवल शारीरिक स्वास्थ्य के लिहाज से बहिर्त्राटक ज्यादा उपयोगी होता है। हालांकि बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती हठयोग की मान्यताओं के आधार पर कहते है कि त्राटक के अभ्यास से व्यक्ति सब सिद्धियों का स्वामी बन सकता है और आत्म-साक्षात्कार की स्थिति प्राप्त कर सकता है। इसलिए कि इससे मन का लय हो जाता है। यही वजह है कि लययोग में त्राटक का विशेष स्थान है। षट्कर्मों में त्राटक अन्तिम कर्म है। यह हठयोग एवं राजयोग के बीच एक सेतु का निर्माण करता है। परम्परागत रूप से यह हठयोग का एक अंग है, परन्तु इसे राजयोग का अंश भी माना जा सकता है।
त्राटक जैसी साधना का उल्लेख विज्ञान भैरव तंत्र में मिलता है, जहां आदियोगी शिव जी ने माता पार्वती को योग की शिक्षा दी थी। कालांतर में नाथ योगियों, जैसे गुरु गोरखनाथ, ने हठयोग और तांत्रिक प्रथाओं के मिश्रण के साथ त्राटक को अपनाया। उन्होंने इसे चक्रों को संतुलित करने और सिद्धियों (आध्यात्मिक शक्तियों) को प्राप्त करने के लिए उपयोग किया। 14वीं-15वीं शताब्दी में स्वामी स्वात्माराम द्वारा लिखित हठयोग प्रदीपिका में त्राटक को षट्कर्म (छह शुद्धिकरण क्रियाओं) में से एक के रूप में वर्णित करते हुए इसे “नेत्र शुद्धि” और “मन की स्थिरता” के लिए प्रभावी बताया गया। लगभग 17वीं शताब्दी में महर्षि घेरंड ने अपनी घेरंड संहिता में त्राटक को “शांभवी मुद्रा” और “नासिकाग्र दृष्टि” जैसे अभ्यासों के साथ जोड़ा है। इस ग्रंथ में त्राटक को नेत्र स्वास्थ्य, एकाग्रता, और आज्ञा चक्र को सक्रिय करने के लिए उपयोगी बताया गया है। 19वीं और 20वीं शताब्दी में, स्वामी शिवानंद सरस्वती, स्वामी कुवल्यानंद और स्वामी सत्यानंद सरस्वती जैसे आधुनिक योगियों ने त्राटक का पुनर्जनन किया और इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझाया। नतीजतन, इसे वैश्विक स्तर पर लोकप्रियता मिली।
त्राटक की साधना हमारे शरीर का तंत्र किस तरह प्रभावित होता है, इसके बारे में दुनिया भर में सर्वाधिक प्रसारित पुस्तक “आसन प्राणायाम मुद्रा बंध” में वैज्ञानिक विश्लेषण है। यह पुस्तक बीसवीं सदी के महान संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने लिखा था। उसके मुताबिक, हमारी आँखें जो कुछ भी देखती हैं, उसका प्रतिबिंब आँखों के पीछे एक परत पर बनता है, जिसे नेत्र-पटल या रेटिना कहते हैं। यह प्रतिबिंब एक तरह से एक तस्वीर की तरह होता है, जिसे हमारी दृष्टि-नाड़ी यानी आप्टिक नर्व मस्तिष्क तक पहुंचाती है। जब हम चारों ओर कुछ भी देख रहे होते तो इसका सीधा असर हमारे मस्तिष्क पर पड़ता है, क्योंकि उसे बार-बार नई सूचना मिल रही होती है। इससे मस्तिष्क सक्रिय हो जाता है और फिर वह शरीर के अन्य हिस्सों को भी सक्रिय कर देता है।
लेकिन त्राटक इस स्थिति को बदल देता है। जब हम त्राटक करते हैं, तो हम आँखों से सिर्फ एक ही चीज को लगातार देखते हैं, जो स्थिर होती है। जैसे दीपक की लौ, एक बिंदु, या कोई छोटा सा चिन्ह। इससे नेत्र-पटल पर एक ही प्रकार की तस्वीर लगातार बनी रहती है और मस्तिष्क को बार-बार नई सूचना नहीं मिलती। इस वजह से मस्तिष्क की सक्रियता धीरे-धीरे कम होने लगती है। फिर तो पूरा शरीर शांत और स्थिर हो जाता है। इस स्थिति में हम अपनी ऊर्जा को बर्बाद नहीं करते, बल्कि उसे भीतर संचित कर लेते हैं। मस्तिष्क को गहरा विश्राम मिलता है और यही ऊर्जा हमें उच्चतर लक्ष्यों की ओर ले जाती है। इसलिए त्राटक को एक गहरी विश्रांति देने वाली अद्भुत यौगिक विधि माना गया है। इस तरह कहा जा सकता है कि त्राटक डिजिटल युग के लिहाज से बेहद जरुरी योगाभ्यास है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)
अस्वीकरण – यह आलेख केवल योग और अध्यात्म के प्रति प्रेरित करने के लिए है। कृपया योग्य योग प्रशिक्षक के निर्देशन में ही कोई भी योगाभ्यास करें।