बीसवीं सदी के महानतम संत ऋषिकेश स्थित डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक स्वामी शिवानंद सरस्वती यदि भौतिक शरीर में होते तो 8 सितंबर को शिष्यों के साथ 137वां जन्मदिन मना रहे होतें। इसी साल उनके संन्यास के भी एक सौ साल पूरे हुए। संन्यास शताब्दी समारोह में दुनिया भर के योगियों, संन्यासियों और भक्तों का जैसा जुटान हुआ था, वह उनकी अद्भुत यौगिक शक्ति और सर्वव्यापकता का ही परिणाम था। प्रेम, सेवा और दान को समाहित करता हुआ उनका अष्टांगीय योग-मार्ग आज भी दुनिया भर के साधकों के लिए आध्यात्मिक राजपथ बना हुआ है। उनसे शुरू हुई गुरू-शिष्य परंपरा समृद्ध होकर दुनिया भर में पल्लवित-पुष्पित हो रही है।
स्वामी शिवानंद के जीवन पर नजर डालें तो पता चलता है कि वे जन्मजात संत थे। तभी तमिलनाडु के अप्यायार दीक्षित वंश में 8 सितंबर 1887 को जन्म लेने के बाद बाल्यावस्था में ही वेदान्त दर्शन में पारंगत हो गए थे। जब, चिकित्सा विज्ञान का अध्ययन किया तो मलेशिया जा कर व्यापार नहीं किया, बल्कि कर्मयोगी की तरह बीमार लोगों की सेवा की। पर, सन् 1924 में ईश्वरीय लीला ऐसी हुई कि मलेशिया को सदा के लिए अलविदा करके स्वदेश लौट गए और ऋषिकेश में धुनी रमा दी। वहां कठिन आध्यात्मिक साधनाओं के बाद ऐसी शक्ति हासिल की, जिसकी बदौलत देश-दुनिया के लोगों का बडा भला हुआ। उनके प्रमुख शिष्यों में बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानन्द सरस्वती, चिन्मय मिशन के संस्थापक स्वामी चिन्मयानंद, दक्षिण अफ्रीका में डिवाइन लाइफ सोसायटी के अध्यक्ष स्वामी सहजानन्द सरस्वती, ओंकारानन्द आश्रम के संस्थापक स्वामी ओंकारानंद सरस्वती आदि ने अपने-अपने क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित करते हुए गुरु का पताका ऊंचा रखा। स्वामी शिवानंद ने 14 जुलाई 1963 को भौतिक शरीर त्याग दिया था।
पर, स्वामी शिवानंद ने मनुष्य के स्वस्थ और सुखी बने रहने के लिए जैसी जीवन-पद्धति की कल्पना की थी, उसे आधुनिक संदर्भ में फिर से परिभाषित करने और उसे अमलीजामा पहनाने की जरूरत आ पड़ी है। अच्छी बात है कि आध्यात्मिक संदेशों, खासतौर से आयुर्वेदिक आहार संबंधी उनके संदेशों की महत्ता को शिद्दत के साथ महसूस किया जा रहा है। अमेरिका के प्रसिद्ध गीतकार-संगीतकार बडी स्टार्चर को उनके कालजयी गीत “हिस्ट्री रिपीट्स इटसेल्फ” यानी इतिहास अपने आप को दोहराता है, के लिए याद किया जाता है। क्यों? क्योंकि, यह गाना अमेरिका के दो राष्ट्रपतियों जॉन एफ कैनेडी और अब्राहम लिंकन के जीवन की समानताओं को ध्यान में रखते हुए लिखा और कंपोज किया गया था। जैसे, अब्राहम लिंकन 1846 में कांग्रेस के लिए चुने गए थे और जॉन एफ. कैनेडी 1946 में कांग्रेस के लिए चुने गए। इसी तरह, अब्राहम लिंकन 1860 में राष्ट्रपति चुने गए थे और जॉन एफ कैनेडी 1960 में राष्ट्रपति चुने गए। इन दोनों राष्ट्रपतियों को शुक्रवार को गोली मारी गई थी। आदि आदि।
इसी तरह, स्वामी शिवानंद सरस्वती के आयुर्वेदिक आहार संबंधी संदेशों के मामले में भी इतिहास अपने आप को दोहराता दिख रहा है। स्वामी जी मिलेट्स के सेवन पर जोर देते रहे। इसलिए कि आधुनिक खानपान के खतरे जानते थे। दशकों बाद उनकी वाणी कई रूपों में मुखरित हो रही है। वे शरीर, मन, बुद्धि, भावना और आत्मा में सामंजस्य पर बल देते हुए अपने शिष्यों से कहा करते थे कि अगर सब्जी को स्वादिष्ट बनाना है तो सब्जी, पानी, नमक, मसाला, तेल, जीरा, सबका सही अनुपात होना चाहिए। उसी प्रकार से योग में भी हर अभ्यास की सीमा, अवधि, क्रम और संख्या निश्चित हैं। आयुर्वेदिक आहार और योग का प्रयोजन मनुष्य के स्वस्थ्य जीवन और मनुष्य की प्रतिभा का उत्थान है। अगर तुम केवल शारीरिक योग करते हो तो उससे भले ही आज तुम शारीरिक रूप से स्वस्थ हो जाओगे, पर तुम अपनी प्रतिभाओं से दूर रहोगे, मन की शान्ति से दूर रहोगे। अगर तुम केवल मन पर ही काम करोगे तो तुम्हारा शरीर अनियंत्रित रहेगा। तुम्हारी इन्द्रियाँ विषयों की ओर भागती रहेगीं। हम सब देख रहे हैं कि भारत सहित दुनिया भर में योग पर तो काफी काम हो रहा है। लेकिन, ज्यादातर काम एकांगी है। बिहार योग विद्यालय समग्र योग पर काम कर रहा है और अन्य योग संस्थानों में भी हो तो बात बने। पर, आहार के मामले में जागृति सही दिशा में है।
स्वामी शिवानंद सरस्वती सन् 1923-24 में ऋषिकेश में धुनी रमाने से पहले से ही जिस मोटे अनाज को आहार बनाने पर जोर देते रहे, उसकी शिक्षा उन्हें विरासत में मिली थी। वैदिक शास्त्रों का अध्ययन करते समय ही जान गए थे कि मानव के तन-मन को स्वस्थ रखने में मोटे अनाज की बड़ी भूमिका है। वे इस संदर्भ में श्रीमद्भागवत गीता और छांदोग्य उपनिषद का हवाला देते हुए कहते थे – पंच तत्वों से निर्मित इस देह के लिए अन्न पृथ्वी रूपिणी गऊ माता का दुग्ध है। अन्नमय,मनोमय,ज्ञानमय, विज्ञानमय तथा आनन्दमय – इन पाँच कोशों के विकास का मुख्य आधार अन्न ही है। मनुष्य जैसा अन्न ग्रहण करता है, उसी के आधार पर उसका अन्नमय कोश निर्मित होता है, उसी के अनुरूप मनोमय कोश अर्थात् मानसिक वृत्तियाँ स्थिर होती हैं तथा उसी के अनुसार ज्ञानमय एवं विज्ञानमय कोश विकसित होते हैं। वे शिष्यों को याद दिलाते कि अनेक योगी जौ को आहार बनाकर तन-मन को स्वस्थ और सुंदर रखते थे। बादशाह अकबर के बारे में भी यही कहा जाता है कि उनका मुख्य आहार जौ था।
बीसवीं सदी के प्रारंभ में स्वामी शिवानंद सरस्वती जैसे योगी जिस मोटे अनाज के सेवन पर जोर देते रहे, वही आधुनिक युग में मिलेट्स के रूप में प्रचार पा रहा है। इसे सहज स्वीकार्य बनाने के लिए अनेक स्तरों पर काम किए जा रहे हैं। पर, प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ खादर वली अमेरिका की अपनी शानदार नौकरी छोड़कर भारत में जिस तरह मिलेट्स के प्रचार में जुटे, उसकी कोई सानी नहीं। अच्छा है कि भारत सरकार ने इस ‘मिलेट मैन” के अनुकरणीय कार्यों को पहचाना और पद्मश्री नवाजा। स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे कि आहार का चयन सही हो तो शरीर को रोग ग्रस्त होने से बचाए रखा जा सकता है। अब अपने वैज्ञानिक शोधों के आधार पर यही बात डॉ खादर वली भी कह रहे हैं। इतिहास का यह दोहराव मानव जीवन के लिए शुभ है। स्वामी शिवानंद सरस्वती जैसे महान योगी मानव कल्याण के लिए सूक्ष्म रूप से काम करते रहते हैं। उनकी सूक्ष्म उपस्थिति डॉ खादर वली जैसे महानुभावों को मानव कल्याण के लिए प्रेरित करती रहेगी। महान योगी को 137वीं जयंती पर सादर नमन।
(लेखक उषाकाल के संपादक और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)