भारतीय संत कहते रहे हैं कि किसी की चेतना परिष्कृत है तो वह अतीन्द्रिय सामर्थ्य का धनी हो सकता है। एंड्रिया ड्राब्स नामक वैज्ञानिक ने न्यूट्रिनो के आधार पर ही साइकॉन अणु का पता लगाया और कहा कि साइकॉन ही मस्तिष्क के न्यूरॉन्स से जुड़कर पराचेतना को जागृत करता है। एक्सेल फरसॉफ नामक अंतरिक्ष वैज्ञानिक ने तो तथ्यों और प्रयोगों के आधार पर यह प्रमाणित कर दिया था कि मनुष्य को अनायास ही जो विचित्र अनुभूतियां होती हैं, उनमें से कुछ खास तरह की अनुभूतियां माइण्डॉन कणों के हलचल में आने से होती है। जब ये कण सक्रिय होते हैं तो हमारा अवचेतन मन (सबकॉन्शियस माइंड) ब्रह्मांडीय चेतना के साथ जुड़ जाता है। यदि उन अनुभूतियों को पहचाना, जगाया अथवा समझा जा सके तो व्यक्ति बैठे ठाले ही किसी भी ग्रह नक्षत्र की बातें जान सकता है।
पर, कलियुग का असर देखिए कि इतने महान वैदिक ज्ञान का उपयोग मानसिक पीड़ाओं के दूर करने पर विचार करना पड़ रहा है। समय की यही मांग है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, भारत की 7.5 फीसदी आबादी किसी-न-किसी मानसिक समस्या से जूझ रही है। विश्व में मानसिक और न्यूरोलॉजिकल बीमारियों की समस्या से जूझ रहे लोगों में भारत का करीब 15 प्रतिशत हिस्सा शामिल है। अनुमान के अनुसार, जल्दी ही भारत की लगभग 20 प्रतिशत आबादी मानसिक रोगों से पीड़ित हो जाएगी। आँकड़ों के अनुसार, भारत में 15-29 वर्ष की आयु वर्ग के लोगों की मृत्यु का सबसे बड़ा कारण आत्महत्या है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हाल ही आंकड़ा जारी किया था कि मानसिक विकारों के कारण दुनिया भर में हर साल सात लाख लोग अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं।
इन तथ्यों के आलोक में देहरादून में “प्राचीन भारतीय ज्ञान और वर्तमान तंत्रिका विज्ञान में साक्ष्य” पर 15-17 नवंबर तक आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन बड़े महत्व का रहा। इसमें एक बार फिर प्रत्याहार की प्रमुख विधियों में शुमार योगनिद्रा की वैज्ञानिकता पर मुहर लगी। इसके साथ ही साइको न्यूरो इम्यूनोलॉजी, मेडिकल एस्ट्रोलॉजी, चंद्रमा और सूर्य का मन पर प्रभाव और मानसिक विकारों जैसे आम लोगों से जुड़े कई महत्वपूर्ण विषयों पर शोध पत्र प्रस्तुत करके बताया गया कि किस प्रकार योग की विधियों जैसे, प्राणायाम, योगनिद्रा और ध्यान के माध्यम से मस्तिष्क के सर्किट पर सकारात्मक प्रभाव डाला जा सकता है। सम्मेलन का आयोजन स्वामी राम हिमालयन विश्वविद्यालय के न्यूरोसाइंस सेंटर के सहयोग से किया गया था। यह सम्मेलन अनोखा इस मायने में था कि इसे आधुनिक विज्ञान की व्यावहारिक पद्धतियों को ऋषियों के पारंपरिक ज्ञान और बुद्धिमत्ता के साथ जोड़कर मनन करने के उद्देश्य से आयोजित किया गया था। आयोजन की सफलता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि इसमें देश-दुनिया के दो सौ से अधिक न्यूरो विशेषज्ञों और योगियों ने भाग लेकर अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय और उसके परिणामों पर सार्थक चर्चा की। सम्मेलन के मुख्य वक्ता निमहंस, बेंगलुरु के पूर्व अध्यक्ष और राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग के अध्यक्ष प्रोफेसर बीएन गंगाधर थे। उद्घाटन समारोह में एम्स दिल्ली के निदेशक डॉ. एम श्रीनिवास, एम्स ऋषिकेश की निदेशक डॉ. मीनू सिंह विशेष तौर से उपस्थित थे।
चिकित्सा विज्ञानियों के साथ ही योगी भी इस बात पर सदैव जोर देते रहे हैं कि आम लोगों केंद्रीय तंत्रिका तंत्र के कार्यों और आध्यात्मिक चेतना के विकास में उनकी भूमिका बताई जानी चाहिए। साथ ही यह भी बताया जाना चाहिए कि प्रत्याहार और धारणा के अभ्यास के लिए प्राणायाम किस तरह की जमीन तैयार करता है। देहरादून के सम्मेलन को इस दिशा में महत्वपूर्ण पहल माना जाना चाहिए। शब्द सीमाओं के कारण सम्मेलन की बातों को विस्तार तो नहीं दिया जा सकता। पर संक्षेप में जानना दिलचस्प होगा कि केंद्रीय तंत्रिका तंत्र शरीर में किस तरह काम करता है। इससे योग की महत्ता और सम्मेलन के नतीजे को समझना आसान हो जाएगा। दरअसल, केंद्रीय तंत्रिका तंत्र ‘संचार’ नेटवर्क की तरह है। इसके माध्यम से, इंद्रियों से उत्तेजना मस्तिष्क के उपयुक्त क्षेत्रों तक पहुँचाई जाती है। इसके उलट मस्तिष्क से संदेश केंद्रीय तंत्रिका तंत्र के माध्यम से शरीर के विभिन्न भागों और ग्रंथियों और अन्य व्यक्तिगत और सामूहिक शरीर-मन तंत्रों तक पहुँचाए जाते हैं। इस तरह यह एक दो-तरफा संचार नेटवर्क है। पिंगला नाड़ी और इड़ा नाड़ी के कार्यों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
शरीर विज्ञान के मुताबिक, मस्तिष्क के ठीक अंदर, सेरेब्रल कॉर्टेक्स की बड़ी परतों से ढका हुआ, हाइपोथैलेमस होता है। मस्तिष्क के लगभग केंद्र में स्थित, हाइपोथैलेमस सिंपैथेटिक तंत्रिका तंत्र का सबसे ऊंचा केंद्र है। इससे तंत्रिका तंतु रीढ़ की हड्डी के दोनों ओर फैलते हैं और विभिन्न प्लेक्सस या यौगिक चक्रों से जुड़ते हैं। किसी खतरे की स्थिति में, हाइपोथैलेमस सिंपैथेटिक तंत्रिकाओं में विद्युत आवेग भेजने में सक्षम होता है, जिससे आंखें, लार ग्रंथियां, हृदय, फेफड़े, पेट, गुर्दे और आंत सक्रिय हो जाते हैं। पैरासिम्पेथेटिक तंत्रिका एक बड़ी तंत्रिका है, जिसे वेगस कहा जाता है। यह मस्तिष्क के तने से गर्दन, छाती, पेट के नीचे उतरती है और एक अंग से दूसरे अंग से जुड़ी होती है। तनाव अनुकूलन के दौरान, पैरासिम्पेथेटिक तंत्रिका तंत्र सिंपैथेटिक तंत्रिका तंत्र की सहायता करता है, हालांकि दोनों एक दूसरे से अलग तरीके से काम करते हैं।
अब सवाल है कि मानव क्या करे कि इंद्रियों का नियंत्रण ढीला पड़ जाए और चेतना का समुचित विकास हो सके? इसमें दो मत नहीं कि हम कोई भी योग साधना कर लें। पर जब तक अंतर्मन प्रभावित नहीं होगा, तब तक चेतना के स्तर पर कोई भी बदलाव संभव नहीं है। योगियों का अनुभव है कि योगनिद्रा रामबाण की तरह है। इसका अभ्यास व्याक्ति की थकावट को दूर कर शरीर को स्फूर्ति प्रदान करता है। मानसिक तनाव को दूर कर मन की प्रफुल्लता को पुनःस्थापित करता है। हमारे अवचेतन मन में दैनिक जीवन के प्रभाव एकत्र होते रहते हैं, जो आगे जाकर व्यक्ति की मानसिकता पर हानिकारक असर डालते हैं। योगनिद्रा अवचेतन मन के अवरोधों को दूर कर यह हमें आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर अग्रसर करती है। तभी, सम्मेलन में प्रत्याहार की विधियों में योगनिद्रा पर विशेष फोकस रहा। समग्र देखभाल सिद्धांतों की समझ और अनुप्रयोग को बढ़ाने के लिए प्राचीन भारतीय ज्ञान के साथ नवीनतम न्यूरोसाइंस ज्ञान को शामिल करने का प्रयास सराहनीय है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)