किशोर कुमार //
“नंद के आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की….. गोकुल के भगवान की, जय कन्हैया लाल की…… “ जन्माष्टमी के मौके पर ब्रज में ही नहीं, बल्कि देश-दुनिया के तमाम भक्त इस बोल के साथ दिव्य आनंद में सराबोर होते हैं। सर्वत्र उत्सव, उल्लास और उमंग का माहौल होता है और वातावरण भजन-संकीर्तन से गूंजायमान। क्यों? क्योंकि श्रीकृष्ण के चरित्र में एक ही साथ प्रेम, ज्ञान, वैराग्य, धैर्य, उदारता, करुणा, साहस सब कुछ हैं। वे लीलाधर हैं, महान् दार्शनिक हैं, महान् वक्ता हैं, महायोगी हैं, योद्धा हैं, संत हैं….और भी बहुत कुछ। तभी सदियों से सबके हृदय में विराजते हैं। उनकी लीलाओं से प्रेरणा मिलती है कि मानव किस तरह हर अवस्था में, हर परिस्थिति में समभाव रखकर अपने जीवन को उत्सव में तब्दील कर सकता है।
श्रीकृष्ण दुनिया भर में स्वीकार्यता बढ़ती चली जा रही है और श्रीमद्भागवत गीता भक्ति और ज्ञान के मेल से संसार की पीड़ित मानवता को सांत्वना प्रदान करते हुए निष्काम कर्म से जोड़ने वाला अद्वितीय ग्रंथ बना हुआ है। महाभारत में कहा गया है कि नर और नारायण दोनों ऋषि के दो स्वरूपों में विभक्त साक्षात् परमात्मा ही हैं। इन्हीं ने अर्जुन और कृष्ण का अवतार लिया था। वैदिक ग्रंथों में उल्लेख है कि जितनी उपनिषदें हैं, वे मानो गौ हैं, श्रीकृष्ण स्वयं दूध दुहने वाले (ग्वाला) हैं, बुद्धिमान अर्जुन (उस गौ को पन्हाने वाला) भोक्ता बछड़ा (वत्स) हैं और जो दूध दुहा गया, वही मधुर गीतामृत है। ऐसे में, भगवान के वचन के समान दूसरा क्या हो सकता है।
इसलिए, आज हम सब लीलाधर बाल श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाएं। उनका गुणगान करें और श्रीमद्भागवत गीता रूपी जीवन शास्त्र से प्रेरणा भी लें। साथ ही प्रार्थना करें कि भगवान की लीलाओं का दूषित वर्णन वाले ग्रंथों से मुक्ति मिल जाए। यह हकीकत है कि श्रीकृष्ण के जीवन-वृत्त वाले अनेक तथाकथित पौराणिक और ऐतिहासिक ग्रंथ पुस्तकालयों की शोभा बढ़ाते हैं, जो देश पर हुए आक्रमणों और विदेशी हुकूमत के लंबे कालक्रम के दौरान भारतीय गौरव को नष्ट करने के लिए सुविधानुसार लिखे गए थे। साथ ही असली ग्रंथों को नष्ट किया गया था। अलग-अलग पुराणों में जिस तरह के विरोधाभासी तथ्य मिलते हैं, वे भी इस बात के प्रमाण हैं। भारतीय योगियों और विद्वानों से लेकर कुछ अंग्रेज विद्वानों तक ने व्यवस्था दे रखी है कि वर्तमान पुराण वे पुराण नहीं हैं, जिनका वर्णन उपनिषदों या अन्य प्राचीन ग्रन्थों में है।
समय-समय पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि बहुत-से पुराण तो 14 वीं या 15 वीं शताब्दी मे लिखे गए। इन पुराणों के तथ्य ही इस बात को सिद्ध करने के लिए काफी हैं। उदाहरण के तौर पर, मत्स्यपुराण में ब्रह्मवैवर्त पुराण के बारे में कहा गया है कि जिस पुराण का सूत जी ने नारद के सामने वर्णन किया और उसमें कृष्ण का महत्व, रथन्तर कल्प के समाचार और ब्रह्म वराह चरित्र वर्णित हैं, अठारह हजार श्लोकों वाले उस पुराण का नाम ब्रह्मवैवर्त पुराण है। आजकल ब्रह्मवैवर्त पुराण के नाम से प्रसिद्ध पुराण में न ब्रह्म वराह चरित्र है, न रथन्तर कल्प के समाचार हैं और न उसमें इस बात का ही कहीं पता लगता है कि इस पुराण का सूत जी ने नारद के सामने वर्णन किया था।
जाहिर है कि यह सब गहरी साजिश का नतीजा है, जिसकी ओर भारतीय ऋषि-मुनि समय-समय पर ध्यान आकृष्ट करते रहे हैं। भारतीय संस्कृति को नष्ट करने का बीड़ा उठाने वालों ने तो श्रीकृष्ण और अर्जुन को ही कल्पित व्यक्ति बताने के लिए नैरेटिव सेट कर दिया था। इसे भी हमारे संतों और महात्माओं ने तथ्यों के आधार पर खारिज कर दिया। श्रीकृष्ण और अर्जुन की पूरी वंशावली प्रस्तुत करके बता दिया कि उनके वंश में अनेक राजा-महाराजा हुए हैं। अंतिम उपाय के तौर पर चरित्र-हनन का प्रयास किया गया। अंग्रेजों के जमाने में एक पीसीएस अधिकारी थे एफएस ग्राउज। बड़े विद्वान थे। बुलंदशहर के बाद लंबे समय तक मथुरा के जिलाधिकारी रहे। उन्होंने “मथुरा – ए डिस्ट्रिक्ट मेमॉयर” नाम से एक पुस्तक लिखी थी। यह मथुरा की भौगोलिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक जानकारियों का संकलन है। पर श्रीकृष्ण की मर्यादाओं के विपरीत उन्होंने जो अश्लील तथ्य प्रस्तुत किए, उसका पंजाब केसरी लाला लाजपत राय सरीखे तमाम धर्मनिष्ठ और देशप्रेमियों ने विरोध किया। हो सकता है कि ग्राउज के मन में विचार दूषित पौराणिक ग्रंथों के कारण बनी हो। पर, किसी काल विशेष में ईश्वरीय अवतारों के बारे में कैसी सोच बनाई जा रही थी, उसका पता चलता है।
श्रीकृष्ण तो खुद ही उद्घोष करते हैं कि यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत… जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आपको साकार रूप से प्रकट करता हूँ। ठीक ही, श्रीकृष्ण का जन्म ऐसे समय में हुआ था, जब वैदिक धर्म का बेड़ा गर्क हो रहा था। परन्तु उन्नीसवीं शताब्दी में हमारे समक्ष ऐसे पाठ्य-पुस्तकें प्रस्तुत की गईं, जिससे ऐसा प्रतीत होने लगा मानो श्रीकृष्ण अनेक अपवित्र बातों के कर्ता हैं। कृष्णलीला या रासलीलाओं की पटकथाएं भी ऐसे ही मिथ्या तथ्यों के आधार पर गढ़ी गईं। पंजाब केसरी लाला लाजपत राय जैसे स्वातंत्र्यवीर को चीख-चीखकर कहना पड़ा कि भारतवासियों की सामाजिक निर्बलता ऐसी ही अश्लील शिक्षा का प्रतिफल है। इसलिए, दूषित साहित्यों को कबाड़ में फेंक कर वैदिक साक्ष्यों के आधार पर इतिहास का पुनर्लेखन हो। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर तमाम भगवत प्रेमियों का संकल्प भी ऐसा ही होना चाहिए।
और अंत में एक आध्यात्मिक कथा। इसे बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती अक्सर सुनाया करते थे – श्रीकृष्ण को बांसुरी इतनी प्रिय थी कि वह हर समय उनके पास ही होती थी। गोपियों को यह अजीब लगता था। सूखे और खोखले बांस से बनी बांसुरी से इतना प्रेम! रहा न गया तो गोपिकाओं ने सीधे-सीधे बांसुरी से ही पूछ लिया – हमें सच-सच बताओ कि तुममें ऐसा क्या है कि भगवान के इतने प्यारे हो? बांसुरी ने कहा – मुझमें खास कुछ भी नहीं है। मैं तो जंगलों में पलती-बढ़ती हूं और अंदर से सदा खोखली ही रहती हूं। मेरे इष्ट देव इस बात से प्रसन्न रहते हैं। कहते हैं, “अपने आप को खाली रखो, मैं तुम्हें भर दूंगा।“ मैं जिसे अपनी कमजोरी समझती रही हूं, भगवान की नजर में वही मेरी शक्ति है।“ इस कथा का संदेश यह कि निरहंकारिता का मंदिर जिसे मिल गया, उसके अपने भीतर के मंदिर के द्वार खुल जाते हैं।
(लेखक उषाकाल के संपादक और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)