वैदिक साक्ष्य इस बात के प्रमाण हैं कि महाभारत में संजय ने दूर बैठकर अपनी दिव्य-दृष्टि से कुरुक्षेत्र के युद्ध की सजीव व्याख्या की थी। सनातन काल से अनेक संत-महात्मा अपनी अंतर्दृष्टि के बल पर भविष्य की झलक पाते रहे हैं। परमहंस श्री उड़िया बाबा ने 1940 के दशक में भविष्यवाणी की थी कि पाकिस्तान का पतन होगा, यानी इसके निर्माण से पूर्व ही इसके भविष्य की झलक पा ली थी। ज्योतिषियों ने भी ऐसी ही भविष्यवाणियाँ की। आज जैसे हालात उभर रहे हैं, लोगों का यह विचार बलवती होता जा रहा है कि क्या यही वह कालखंड है, जिसका संकेत श्री उड़िया बाबा और ज्योतिषियों ने दिया था?
इस सवाल की गहराई में जाने से पहले पूर्व उड़िया बाबा का जीवन-वृत्त जान लेना समीचीन होगा। सन् 1875 में जगन्नाथपुरी में जन्में उड़िया बाबा चैतन्य महाप्रभु के शिष्य काशी मिश्र के वंशज थे। वे अद्भुत योगशक्ति और चमत्कारिक सिद्धियों से युक्त थे। प्रारंभिक दिनों में आध्यात्मिक साधना के लिए घर से निकल तो गए। पर कहां जाएं और कौन-सी साधना करें, यह यक्ष प्रश्न बनकर खड़ा हो गया था। तभी उन्हें जगन्माता का स्मरण हो आया और शतचंडी के अनुष्ठान में जुट गए थे। दुर्गा सप्तशती के इस अनुष्ठान ने उनके व्यक्तित्व को आध्यात्मिक ऐश्वर्य से भर दिया। इस साधना से मिली अनुभूतियों से लाखों लोग लाभान्वित होते रहे। बाबा किसी भी शारीरिक व मानसिक संकट में फंसे अपने भक्तों को बतलाते कि गायत्री मंत्र के साथ दुर्गा सप्तशती का पाठ करो। उनकी यह आध्यात्मिक चिकित्सा अचूक साबित होती थी।
आधुनिक युग के इस महान संत ने वृंदावन को केंद्र बनाकर भक्ति और ज्ञान की जागृति में बड़ी भूमिका निभाई थी। उनके समकालीन संतों में स्वामी श्री करपात्री जी महाराज, श्री हरि बाबा जी, श्रीश्री मां आनंदमई, आदि थे। श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ (प्रथम खण्ड) नामक पुस्तक के मुताबिक, उड़िया बाबा ने अपनी त्रिकालज्ञान-शक्ति से न केवल भारत की स्वतंत्रता, बल्कि पाकिस्तान के पतन की भी भविष्यवाणी की थी। कहा था, “कुछ वर्षों बाद पाकिस्तान को अपने पापों के कारण नष्ट होना पड़ेगा, और भारत में रामराज्य व धर्मराज्य स्थापित होगा।” इस भविष्यवाणी के दो दशक बीतते-बीतते सन् 1971 में भारत-पाक युद्ध हुआ था और पाकिस्तान कमजोर होकर बंट गया था। पांच दशक बाद पाकिस्तान फिर भारतीय प्रहारों से जख्मी है, तो सबको उड़िया बाबा की भविष्यवाणी बरबस याद आ रही है।
श्री उड़िया बाबा चमत्कारों के प्रदर्शन के विरोधी थे और अपनी सिद्धियों का उपयोग केवल जन-कल्याण के लिए करते थे। माँ अन्नपूर्णा सिद्धि इसका उदाहरण है, जिसके बल पर वे बीहड़ जंगलों में भंडारे आयोजित करते थे। उन्होंने अपनी मृत्यु की भविष्यवाणी भी मृत्यु से कुछ घंटे पूर्व कर दी थी। वृंदावन के संत प्रेमानंद महाराज के अनुसार, बाबा ने सुबह कहा, “आज यहाँ श्मशान होगा।” आश्रमवासियों को यह संकेत समझ न आया। कुछ घंटों बाद ही सत्संग में बाबा बोले, “जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है, किंतु आत्मा अजन्मा और अमर है…..।” तभी एक सेवक मोरपंख का मुकुट लाया, जिसे बाबा ने अस्वीकार किया। तुरंत बाद ही उसने छिपाकर लाई कुल्हाड़ी से बाबा के सिर पर प्रहार कर दिया। रक्त का फव्वारा फूटा, बाबा के मुख से “ॐ” निकला, और वे शांत हो गए। तब सबको उनके संकेतों का अर्थ समझ आया।
श्री उड़िया बाबा की सिद्धियों का आधार उनकी गहन साधना थी, जो शांभवी मुद्रा और तृतीय नेत्र की शक्ति से जुड़ी थी। योग में खेचरी मुद्रा को अमृत का स्रोत कहा गया है, जो आध्यात्मिक आनंद का प्रतीक है। इस साधना का संबंध भी आज्ञा-चक्र और अंतर्ज्ञान से है। वैदिक ग्रंथों में भगवान शिव को तृतीय नेत्र का स्वामी माना गया है तृतीय नेत्र का संबंध आज्ञा चक्र से है, जो अंतर्दृष्टि, दिव्य दृष्टि, और उच्च चेतना का केंद्र है। वैदिक और पौराणिक ग्रंथों में शिव के तृतीय नेत्र से जुड़ी कई कथाएँ हैं। , जिनमें सबसे प्रसिद्ध कामदेव के भस्म होने की कथा है। इसके अलावा, अन्य कथाएँ भी शिव के तृतीय नेत्र की शक्ति को दर्शाती हैं। बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के मुताबिक, “आज्ञा-चक्र ही वह बिंदु है, जहां उच्चतर बुद्धि, व्यक्त एवं अव्यक्त बुद्धि दोनों की अनुभूति होती है। इसी कारण योग परंपरा में आज्ञा-चक्र को अंत:प्रज्ञा का अधिष्ठान, गुरू का स्थान या छठी इंद्रिय का केंद्र कहा गया है।“
पर कई सिद्ध तपस्वी अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा का हस्तांतरण करके भी दिव्य-दृष्टि प्रदान करते रहे हैं। महाभारत के संजय की दिव्य-दृष्टि किसी साधना का परिणाम नहीं, बल्कि महर्षि वेद व्यास के शक्तिपात का परिणाम था। युद्ध खत्म हुआ और शक्तिपात का प्रभाव भी खत्म हो गया था। श्रीकृष्ण भी युद्ध के मैदान में दोराहे पर खड़े अर्जुन को अपने विश्व स्वरूप का साक्षात्कार कराने के लिए शक्तिपात ही किया था। शक्तिपात एक आध्यात्मिक अवधारणा है, जो भारतीय तांत्रिक और योग परंपराओं, विशेष रूप से कश्मीर शैव दर्शन और कुंडलिनी योग से जुड़ी है। कुछ वैज्ञानिक और आध्यात्मिक चिंतक इसे क्वांटम स्तर पर ऊर्जा हस्तांतरण से जोड़ते हैं। उदाहरण के लिए, क्वांटम एंटैंगलमेंट में दो कण इस तरह जुड़े होते हैं कि एक की स्थिति दूसरे को प्रभावित करती है, चाहे वे कितनी भी दूरी पर हों।
वैदिक योग शास्त्रों में योगबल की बदौलत आज्ञा-चक्र को जागृत करने की विधियाँ बताई गई हैं। इनमें एक राजयोग की शांभवी क्रिया भी है। महानिर्वाण तंत्र के मुताबिक, आदियोगी शिव जी ने पार्वती जी को चित्त की एकाग्रता, मन की शांति के लिए एक अभ्यास बताते हुए कहा था, “दृष्टि को दोनों भौंहों के मध्य स्थिर कर चिदाकाश में ध्यान करें। मन शांत होगा, त्रिनेत्र जागृत हो जाएगा। इसके बाद बाकी सिद्धि के लिए कुछ शेष नहीं रह जाएगा।“ उन्होंने इस क्रिया को शांभवी मुद्रा कहा था, जो आधुनिक युग के लिहाज से महामुद्रा है। पार्वती जी का एक नाम शांभवी शायद इसी महामुद्रा के कारण हो। अब तो वैज्ञानिक भी आज्ञा चक्र को मस्तिष्क के पाइनियल और पिट्यूटरी ग्रंथियों, न्यूरोप्लास्टिसिटी, और ध्यान के प्रभावों से जोड़ कर देखने लगे हैं। इन साक्ष्यों के आलोक में श्री उड़िया बाबा के अंतर्ज्ञान और दिव्य-दृष्टि की शक्ति का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। तभी उनकी भविष्यवाणियों की प्रासंगिकता बनी हुई है।
(लेखक योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)