




साधु-संन्यासियों की सूक्ष्म शक्ति की बात भी कोई कपोल-कल्पना नहीं है। महाराजा रणजीत सिंह के दरबार में हठयोगी थे साधु हरिदास। खेचरी मुद्रा सिद्ध थे। महाराज उनकी यौगिक शक्तियों की परीक्षा लेना चाहते थे। लिहाजा महाराजा की इच्छानुसार उन्होंने महाराजा और कुछ विदेशी चिकित्सकों की उपस्थिति में चालीस दिनों के लिए भू-समाधि ले ली। उन्हें सही तरीके से मिट्टी से ढ़क दिया गया। कुछ दिनों बाद चिकित्सकों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। पर जब चालीस दिन पूरे हुए तो साधु हरिदास के निर्देशानुसार मिट्टी हटाकर उनकी गर्दन की हड्डियों पर गाय के घी से मालिश कर दिया गया तो वे इस तरह उठ खड़े हुए थे, मानों कुछ समय के लिए ध्यान साधना में बैठे रहे हों। बिल्कुल तरोताजा थे। उनकी सूक्ष्म शक्तियों की कई मिसालें दी जाती हैं, जिनका उल्लेख फ्रांस सरकार के दस्तावेजों में भी है। परमहंस योगानंद ने अपने परमगुरू और सिद्ध संन्यासी लाहिड़ी महाशय के बारे में लिखा है कि वे अपने दाह-संस्कार के दूसरे दिन प्रात: दस बजे तीन अलग-अलग शहरों में तीन शिष्यों के सामने पुनरूज्जीवित परन्तु रूपांतरित शरीर में फिर से प्रकट हुए थे। स्वामी शिवानंद सरस्वती के मामले में भी उनके कई विदेशी शिष्यों का ऐसा ही अनुभव रहा है।
यह निर्विवाद है कि सनातन काल से सभ्यता और सांस्कृति बरकरार रखकर मानवता का कल्याण करने में योगियों व संन्यासियों की बड़ी भूमिका रही है। उनकी अलौकिक शक्तियां हर काल में समाज के काम आती रहती हैं। इसे इस तरह समझिए। जापान में समुराई नामक समुदाय बड़ा प्रसिद्ध हुआ। इस समुदाय के ज्यादातर लोग सेना में जाते थे। पर पहले योगबल से उनके हारा-चक्र का जागरण कराया जाता था। इससे उनकी शारीरिक शक्ति और कल्पना-शक्ति ऐसी हो जाती थी कि उनके सामने दुश्मनों का टिक पाना मुश्किल होता था। उसी हारा-चक्र को तंत्र विद्या में स्वाधिष्ठान-चक्र या अंग्रेजी में सेक्रल कहा गया है। अपने देश के साधु-संन्यासी भी संन्यास-मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए स्वाधिष्ठान-चक्र के जागरण को कई कारणों से अहम् मानते हैं। कहा गया है कि इसके जागरण से आंतरिक दुष्प्रवृत्तियों यथा काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि से मुक्ति मिलती है। साधक बलशाली हो जाता है। साथ ही आज्ञा चक्र पर भी सकारात्मक प्रभाव होता है, जो अंतर्ज्ञान का कारक है। इस तरह साधु-संन्यासियों की शक्ति का राज आसानी से समझा जा सकता है। पर भोजन का प्रबंध कैसे होता है? अनेक उदाहरण हैं, जिनसे पता चलता है कि जंगलों और पहाड़ों में साधना करने वाले साधु-संन्यासियों ने कभी अपनी साधना में अन्न और जल को आड़े नहीं आने दिया। वैसे तो जंगलों और पहाड़ों में प्राकृतिक रूप से सब कुछ मौजूद होता है। इनमें सौर-शक्ति प्रमुख है। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि प्रकृति में मौजूद प्रोटीनयुक्त रासायनिक यौगिक क्लोरोफिल की बदौलत सौर-शक्ति को कैद करना संभव हो पाता है, जो जीवन दायिनी है। अपामार्ग या चिरचिटा जंगलो और पहाड़ों में उपलब्ध होता है। इसके बीज में इतनी शक्ति है कि कोई बिना अन्न ग्रहण किए एक सप्ताह से ज्यादा समय गुजार सकता है। पर ज्यादातर संन्यासियों की कोशिश होती है कि खेचरी मुद्रा सिद्ध हो जाए। इससे कई अलौकिक शक्तियां मिलने के साथ ही उन्हें भूख-प्यास नहीं लगती। निराहारी योगिनी बंगाल की ऐसी ही महिला संत थी। उन्हें पचास वर्षों तक किसी ने अन्न-जल ग्रहण करते नहीं देखा। बर्द्धमान (पश्चिम बंगाल) के महाराज सर विजयचंद्र महताब ने उनकी तीन-तीन कठिन परीक्षाएं लीं। यह जानने के लिए कि वाकई वे अन्न-जल के बिना जीवित हैं। निराहारी योगिनी हर बार कसौटी पर खरी उतरीं। परमहंस योगानंद से लेकर मां आनंदमयी तक उस सिद्ध संत से मिले थे। हिमालय की वादियों में कई स्थानों पर तापमान माइनस 30 डिग्री या उससे भी अधिक होता है। वैसे में खासतौर से नागा संन्यासियों के जीवन को लेकर आमलोगों के मन में कौतूहल उठना लाजिमी है। दरअसल प्राणायाम और प्रत्याहार की क्रियाएं इतनी शक्तिशाली हैं कि उनके कई परिणाम चमत्कार जैसे लगते हैं। इस संदर्भ में एक मजेदार वाकया है। परमहंस योगानंद अपने मित्र के साथ यात्रा कर रहे थे। कड़ाके की ठंड थी और एक ही कंबल में दोनों सो गए थे। मित्र ने नींद में कंबल खींच लिया और परमहंस जी ठिठुरने लगे। तब वे मानसिक रूप से अनुभव करने लगे कि उनका शरीर गर्म हो रहा है। पहमहंस जी ने खुद ही लिखा कि वे जल्दी ही टोस्ट की तरह गर्म हो गए थे। यह प्रत्याहार की क्रिया का प्रतिफल था। वैसे, योग के सामान्य साधको को भी सलाह दी जाती है कि यदि हृदय रोग, उच्च रक्तचाप व मिर्गी के रोगी न हो तो सूर्यभेद प्राणायाम करें। शरीर में गर्मी पैदा हो जाएगी। विपरीत परिस्थितियों में भय न रहे, इसके लिए साधु-संन्यासी मुख्यत: शशंकासन अनिवार्य रूप से करते हैं। इससे एड्रिनल स्राव नियंत्रित रहता है, जिसके कारण भय का भूत पीछा नहीं करता। उपरोक्त तमाम उदाहरणों से समझा जा सकता है कि नागा संन्यासियों से लेकर विभिन्न अखाड़ों से जुड़े अन्य साधु-संन्यासी तक किस तरह कठिन तपस्या करके मानवता की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे, “संन्यास मुक्ति का मार्ग नहीं, बल्कि परोपकार का मार्ग है। एक साधु के लिए साधना की अंतिम परिणति सेवा होती है, समाधि नहीं।” आखाड़ों से जुड़े साधु-संन्यासी इस कसौटी पर खरे हैं। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)