योग की जितनी भी शाखाएं हैं, सबका आधार शिव-पार्वती संवाद ही है। विज्ञान भैरव तंत्र के मुताबिक इसी रात्रि को मानव जाति के कल्याण के लिए, आत्म-रूपांतरण के लिए शिव ने अपनी प्रथम शिष्या पार्वती को एक सौ बारह विधियां बताई थी, जो योग शास्त्र के आधार हैं। इसके बाद ही मत्स्येंद्रनाथ का प्रादुर्भाव हुआ। शिष्य गोरखनाथ और नाथ संप्रदाय ने योग का जनमानस के बीच प्रचार किया। इस तरह पाशुपत योग के रूप में हठयोग, राजयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि से आमजन परिचित हुए। योग और अध्यात्म के आलोक में महाशिवरात्रि की समझ विकसित करना बड़े काम का होगा।
महाशिवरात्रि का त्यौहार भारत के आध्यात्मिक उत्सवों की सूची में सबसे महत्वपूर्ण है। आखिर यह रात इतनी महत्वपूर्ण क्यों है और हम अवसर का लाभ कैसे उठा सकते हैं? पर पहले बात महाशिवरात्रि के आध्यात्मिक महत्व की। महाशिवरात्रि साधक को अपने भीतर के शिव तत्व को जागृत करने का अवसर देता है। यह वह रात्रि है, जब प्रकृति और मानव चेतना एक साथ मिलकर आत्म-साक्षात्कार के मार्ग को प्रशस्त करते हैं। इसलिए इसे बाह्य पूजा से अधिक आंतरिक साधना का प्रतीक माना गया है, जहाँ साधक के भीतर शिव और शक्ति का मिलन घटित होता है। दूसरे शब्दों में यह चेतना के शिखर तक पहुँचने और जीवन के परम उद्देश्य, आत्म-बोध को प्राप्त करने का उत्सव है।
शैव तंत्र में भी शिव-शक्ति के बीच अन्योन्याश्रय संबंध बताते हुए कहा गया है कि शिव-शक्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। शिव चेतना हैं, तो शक्ति उस चेतना की शक्ति या अभिव्यक्ति। एक के बिना दूसरा अधूरा है। शिव पुराण के वायवीय संहिता में श्लोक है, न शिवेन विना शक्तिर्न शक्त्या च विना शिवः अर्थात् शिव के बिना शक्ति नहीं, और शक्ति के बिना शिव नहीं। इस बात को अर्धनारीश्वर रूप में शिव-शक्ति के संयोजन से समझा जा सकता है, जहाँ आधा शरीर शिव का (स्थिर) और आधा शक्ति का (गतिमान) है। यह द्वैत और अद्वैत का संनाद है।
बीसवीं सदी के महान योगी परमहंस स्वामी सत्यानंद का मत है कि शिव स्थिर चेतना का प्रतीक हैं, जो प्रत्येक व्यक्ति के भीतर सहस्रार चक्र में निवास करते हैं। महाशिवरात्रि वाली रात चेतना जागृत होने की संभावना प्रबल होती है। योग और तंत्र के दृष्टिकोण से कुंडलिनी (शक्ति) का अंतिम लक्ष्य हैं शिव से मिलन। कुंडलिनी, जो मूलाधार चक्र में सुप्त रहती है, महाशिवरात्रि की साधना के माध्यम से ऊपर उठकर शिव से मिलती है। इस मिलन को ही आत्म-साक्षात्कार की अवस्था कहा जाता है। इसलिए महाशिवरात्रि आध्यात्मिक रूप से बड़े महत्व का उत्सव है। यह रात्रि साधक के लिए अपनी आंतरिक शक्ति को जागृत कर उसे उस चेतना तक पहुँचाने का अवसर मिलता है, जो संसार के द्वैत से परे है।
सवाल है कि यौगिक व आध्यात्मिक लाभ किस विधि प्राप्त करें? विज्ञान भैरव तंत्र के मुताबिक इसी रात्रि को मानव जाति के कल्याण के लिए, आत्म-रूपांतरण के लिए शिव ने अपनी प्रथम शिष्या पार्वती को एक सौ बारह विधियां बताई थी, जो योग शास्त्र के आधार हैं। इसके बाद ही मत्स्येंद्रनाथ का प्रादुर्भाव हुआ। शिष्य गोरखनाथ और नाथ संप्रदाय ने योग का जनमानस के बीच प्रचार किया। इस तरह पाशुपत योग के रूप में हठयोग, राजयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि से आमजन परिचित हुए। कहा जा सकता है कि योग की जितनी भी शाखाएं हैं, सबका आधार शिव-पार्वती संवाद ही है। इसी संवाद में शांभवी मुद्रा की बात भी आती है। कथा के मुताबिक, पार्वती जी ने शिव जी को अपने मन की उलझन बताई। कहा, “स्वामी मन बड़ा चंचल है। एक जगह टिकता नहीं।“ फिर उपाय पूछा, “क्या करूं? किसी विधि समस्या से निजात मिलेगी?”
शिव जी ने एक सरल उपाय बता दिया – “दृष्टि को दोनों भौंहों के मध्य स्थिर कर चिदाकाश में ध्यान करें। मन शांत होगा, त्रिनेत्र जागृत हो जाएगा। इसके बाद बाकी सिद्धि के लिए कुछ शेष नहीं रह जाएगा।“ आदियोगी ने इस क्रिया को नाम दिया – शांभवी मुद्रा। पार्वती जी का एक नाम शांभवी भी है। योग शास्त्र में कहा गया है कि शांभवी मुद्रा बेहद प्रभावशाली योग मुद्रा है। अब आधुनिक विज्ञान भी यही बात कह रहा है। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में इस मुद्रा पर शोध हुआ। पता चला कि शाम्भवी मुद्रा का अभ्यास करने वालों के मस्तिष्क में न्यूरोनल रीसाइक्लिंग सामान्य की तुलना में 241 फीसदी ज्यादा होती है। दूसरी तरफ पीनियल ग्रंथि के कमजोर होने की प्रक्रिया धीमी हो जाती है। तंत्रिका तंत्र और अंत:स्रावी ग्रंथियों के बीच बेहतर समन्वय बनता है। कुल 536 लोगों पर शांभवी मुद्रा के प्रभावों के अध्ययन किया गया था। एकाग्रता में 77 फीसदी, मानसिक स्पष्टता में 98 फीसदी, भावनात्मक संतुलन में 92 फीसदी, ऊर्जा के स्तर में 84 फीसदी, आंतरिक शांति में 94 फीसदी और आत्मबल में 82 फीसदी की वृद्धि हो गई थी। इन तथ्यों के आधार पर महाशिवरात्रि के आध्यात्मिक और वैज्ञानिक महत्व को समझा जा सकता है।
अंत में एक सुझाव। महाशिवरात्रि के आध्यात्मिक आयामों की परत दर परत समझ विकसित करने में डेविड फ्रॉली की पुस्तक “शिवा – द लॉर्ड ऑफ योगा” बेहद मददगार है। यह एक गहन आध्यात्मिक और दार्शनिक पुस्तक है, जो भगवान शिव को योग के सर्वोच्च प्रतीक और गुरु के रूप में प्रस्तुत करती है। यह पुस्तक शिव को केवल एक पौराणिक देवता के रूप में नहीं, बल्कि चेतना, प्रकाश, प्राण और आत्म-जागरूकता के परम स्रोत के रूप में चित्रित करती है। फ्रॉली ने इस पुस्तक में शिव के विभिन्न पहलुओं का योग, वेदांत और शैव दर्शन के आलोक में विश्लेषण किया हुआ है, जो पाठकों को मृत्यु और द्वैत से परे ले जाने का मार्ग दिखाता है।
यह पुस्तक पाठकों को शिव के प्रतीकवाद और योग के माध्यम से स्वयं को खोजने की प्रेरणा देती है। यह बताती है कि शिव बाहरी पूजा के देवता से कहीं अधिक हैं – वे प्रत्येक व्यक्ति के भीतर की शांति, जागरूकता और आनंद की अवस्था हैं। फ्रॉली का लेखन भक्ति, ज्ञान और साधना का संतुलन बनाता है, जो इसे शुरुआती और उन्नत साधकों दोनों के लिए उपयोगी बनाता है। इसलिए महाशिवरात्रि के मौके पर आत्मोत्थान को लिए योग साधनाएं करने के साथ ही अपनी समझ विकसित करने के लिए इस पुस्तक का अध्ययन और मनन बड़े काम का होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)