शाकाहार और मांसाहार के बारे में तुम्हारी सोच अलग है। तुम जीवन के बारे में सोचते हो, जबकि शाकाहार करने और मांसाहार न करने का बड़ा सीधा कारण है। शेर, बाघ, चीता, तेन्दुआ, ये सब मांसाहारी जानवर हैं। एक बाघ दूसरे मरे हुए बाप का मांस नहीं खाता। शेर, चीता या तेन्दुआ भी इसी तरह करते हैं। वे हिरण या गाय-भैंस की तलाश में रहते हैं। ये पशु घास खाते हैं। मांसाहारी जानवर ऐसे पशुओं का शिकार करते हैं जो शाकाहारी हैं। वे मांसाहारी पशु का शिकार नहीं करते। ऐसा क्यों? इसलिए कि मांसाहारी पशुओं के शरीर में रोगाणुओं और विषाणुओं की भरमार रहती है और उनका मांस भी स्वादिष्ट नहीं होता। अगर तुम किसी कुत्ते को भेड़ का मांस दोगे तो वह खायेगा, लेकिन उसके सामने शेर का मांस परोस दो तो नहीं खायेगा। पशुओं के शरीर में बहुत-से रोग होते हैं, मानव-शरीर से कहीं अधिक। तुम उन्हें नंगी आँखों से हो नहीं देख सकते। पशुओं के रसायन भी भिन्न हैं। पशु-मांस का आहार करके तुम पशु-शरीर के रसायनों का आहार करते हो, उन्हें अपने शरीर में अवशोषित करते हो। यही कारण है कि शाकाहार और मांसाहार में बड़ा भेद है।
दूसरी बात यह कि जब तुम पशु-वध करते हो तो प्राकृतिक संतुलन को विचलित करते हो। इस धरती पर पांच अरब से ज्यादा लोग रहते हैं। अगर एक अरब लोगों का आहार पशु-मांस हो तो सारा पशु-जगत नष्ट हो जायेगा। पालक, बैंगन या टमाटर पैदा करने में दो-तीन महीने लगते हैं और बड़ी मात्रा में हरी सब्जियाँ प्राप्त हो जाती हैं, लेकिन एक जानवर को तैयार करने में कई साल लग जाते हैं। इस प्रकार पशु जगत् और वनस्पति जगत् के विकास में भिन्नता है। दोनों का गणित भिन्न है, और अगर हर आदमी मांसाहारी बन जाए तो प्रकृति में अव्यवस्था फैल जायेगी। सभी जीव प्रकृति का सन्तुलन बनाये रखने में मदद करते हैं। अगर तुम सभी सांपों को मार दोगे तो चूहों की संख्या में वृद्धि हो जायेगी, मेंडकों की बाढ़ आ जायेगी। अगर तुम बाघ मार दोगे तो हिरणों की संख्या बढ़ जायेगी। वे एक दूसरे को सन्तुलित करते हैं। यही प्राकृतिक सन्तुलन है, प्रकृति के द्वारा प्रकृति का सन्तुलन। मनुष्य को जीवन धारण करना है तो उसे कुछ आहार तो लेना ही है।
अगर तुम्हें अलास्का या ग्रीनलैण्ड या नॉर्वे के उत्तर भाग में जाना पड़े तो क्या करोगे? वहाँ के लोग कैसे रहते हैं? वे मछलियाँ खाकर जीते हैं, क्योंकि वहाँ कुछ और नहीं होता। यूरोप के देशों में भी एक-दो हजार साल पहले मांसाहार करना पड़ता था, क्योंकि यहाँ कोई फसल नहीं होती थी, बर्फ-ही- बर्फ थी। पेड़ों से पत्तियाँ झड़ जाती थीं, वे नंगे हो जाते थे। कुछ होता ही नहीं था वहाँ। अब तो परिस्थितियाँ बदल गयी हैं। अब वहाँ ग्रीन हाऊस हैं, जिनमें फसलें होती हैं और बहुत-सी चीजें विदेशों से आयात भी करते हैं। अफ्रीका, एशिया और भारत से बड़ी मात्रा में खाद्यान्न का आयात करते हैं। इसलिये जहाँ मांसाहार की आवश्यकता होती है, वहाँ लोग मांस-भक्षण ही करते हैं। भारत में भी सभी लोग शाकाहारी नहीं हैं, मांसाहार करने वाले लोग भी हैं। पंजाबी, सिन्धी और बंगाली लोग मांसाहारी होते हैं। प्राचीन भारत में ब्राह्मणों को भोज का निमंत्रण मिलता था तो उसमें मांसाहार अनिवार्य माना जाता था। हम लोग मांसाहार के विरुद्ध नहीं बोलते, तुम्हारा धर्म मांसाहार के विरुद्ध नहीं बोलता, बस इतना है कि शाकाहार मानव-शरीर के लिये उपयुक्त आहार है। ऐसा भी कह सकते हो कि मानव शरीर शाकाहार के लिये ही उपयुक्त है।
ऐसा क्यों? इसके प्रमाण हैं। सबसे पहले पशुओं के दाँतों को देखो। मांसाहारी जानवरों के दाँत नुकीले और तीखे होते हैं। तुम्हारे दाँत वैसे नहीं होते, बल्कि गाय, घोड़ा, बकरी, हिरण और ऊँट जैसे शाकाहारी पशुओं के दाँत जैसे होते हैं। हमारे दाँत चबाने वाले दाँत होते हैं, कुत्तों के दाँत चबाने वाले दाँत नहीं होते। उनके दाँत तोड़ने वाले और चीरफाड़ करने वाले होते हैं। यह एक प्रमाण है कि हमारा शरीर शाकाहारी शरीर है।
दूसरा प्रमाण आंतों का है। सभी मांसाहारी पशुओं की आंत छोटी होती है, जबकि सभी शाकाहारी जीवों की, मनुष्यों की आंतें बड़ी लम्बी होती हैं। यह प्रकृति का विधान है। इसलिए भी हमारा शरीर शाकाहारी है। तीसरा प्रमाण पेट की अम्लता का है। प्रकृति ने कुत्ते का शरीर मांसाहारी बनाया है। सभी मांसाहारी पशु कुत्ते की भाँति आहार को चबाकर नहीं खाते, निगल कर खाते हैं। हड्डियों को भी निगल जाते हैं। हड्डियों का क्या होता है? उनके पेट में हाइड्रोक्लोरिक एसिड का ऐसा घनत्व होता है कि हड्डियाँ यहाँ जाकर पिघल जाती है, अवशोषित हो जाती हैं। यदि ऐसी अम्लता हमारे पाचन संस्थान में प्रकट हो जाये तो पेप्टिक अल्सर का रूप ले लेती है। हाइड्रोक्लोरिक एसिड में थोड़ी वृद्धि होते ही गैस्ट्रिक समस्या होने लगती है।
अगर तुम्हारा धर्म स्वीकार करता है कि मांसाहार करना चाहिये तो इसमें कोई बुराई नहीं है। यह धर्म-शास्त्र के अनुकूल आचरण है। यौनाचरण में भी दोष नहीं है, क्योंकि यह प्रकृति प्रदत्त आचरण है। सभी प्राणियों के लिये प्रकृति ने यौनाचरण का विधान किया है, मानव इस नियम का अपवाद नहीं है। मगर यह भी है कि अगर तुम इसका त्याग कर सके तो जीवन में इसके अच्छे परिणाम प्राप्त होंगे –
न मांसभक्षणे दोषः न मद्ये न च मैथुने। एषा प्रवृत्ति भूतानां त्यागः तु महाफलम्॥
त्याग में महाफल है। यही उदार और सहिष्णु दृष्टि जीवन में अपनानी चाहिये। मांसाहार त्याग की बात कोई धर्म नहीं करेगा, हालाँकि हमारा शरीर मांसाहार के अनुकूल नहीं है।