किशोर कुमार
श्रीमद्भगवतगीता के परिप्रेक्ष्य में अमेरिकी परमाणु विज्ञान के जनक माने जाने वाले आध्यात्मिक वैज्ञानिक जे रॉबर्ट ओपेनहाइमर की जीवनी पर बेहद लोकप्रिय और शिक्षाप्रद फिल्म बन सकती थी। दुनिया को बतलाया जा सकता था कि आध्यात्मिक शक्ति-संपन्न विज्ञान किस तरह कल्याणकारी होता है और इसका अभाव विध्वंस का कारण बन जाता है। पर मशहूर फिल्मकार क्रिस्टोफ़र एडवर्ड नोलेन ने गूढ़ार्थ समझे बिना श्रीमद्भगवतगीता को फिल्म में जिस तरह प्रस्तुत किया, उससे उनकी दुकानदारी भले चल गई। पर ओपेनहाइमर का आध्यात्मिक संदेश देने में नाकामयाब हो गए। साथ ही श्रीमद्भगवतगीता का गलत ढंग से प्रस्तुत करके करोड़ों लोगों की आस्था को ठेस भी पहुंचा दी।
भला हाथ में श्रीमद्भगवतगीता और कामवासना का विचार दोनों साथ-साथ कैसे चल सकता है? स्वयं श्रीमद्भगवतगीता का संदेश ऐसे आचरण के विरोध में है। इस ग्रंथ के सोलहवें अध्याय में कहा गया है कि काम, क्रोध और लोभ के मुहाने पर खड़ा जीव नरक रूपी नगरी के मुख्य साभागृह में प्रवेश करता है। जिस ओपेनहाइमर के बारे में कहा जाता है कि वे श्रीमद्भगवतगीता से बेहद प्रभावित थे, वे अपने वास्तविक जीवन में ऐसे रहे होंगे, जैसा कि फिल्म में दिखाया गया है, विश्वास नहीं होता। मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय प्रोफेसर जेम्स ए हिजिया की प्रसिद्ध पुस्तक है – द गीता ऑफ जे रॉबर्ट ओपेनहाइमर। इसमें बतलाया गया कि ओपेनहाइमर किस तरह श्रीमद्भगवतगीता से प्रभावित थे और गीता के अध्ययन के लिए संस्कृत भाषा सीखी थी। खुद ओपेनहाइमर के बयानों से भी यही साबित हुआ कि गीता के कर्मयोग-सिद्धांत का उनके जीवन पर गहरा असर था। उन्होंने कहा था, कि उन्होंने अपना धर्म निभाया था। परमाणु शक्ति का उपयोग किस तरह करना है, यह सरकार को सोचना था।
परमाणु विज्ञान की विकास यात्रा में यही वह मोड़ है, जहां स्वामी विवेकानंद का कथन प्रासंगिक हो जाता है। स्वामी जी ने कहा था कि अध्यात्म और विज्ञान एक दूसरे का पूरक है। अध्यात्म के बिना विज्ञान अंधा है। विज्ञान को जहां अध्यात्म से मानवीयता की सीख लेने की जरूरत है, वहीं अध्यात्म के क्षेत्र में वैज्ञानिक पद्धतियों के प्रयोग की आवश्यकता है। पर पहले ओपेनहाइमर के बारे में थोड़ा और जान लीजिए। ओपेनहाइमर ही वह भौतिक विज्ञानी थे, जिन्होंने परमाणु बम बनाने की अमेरिका की एक गुप्त परियोजना की अगुआई की थी और उसका सफलतापूर्वक परीक्षण किया था। वही परमाणु बम सन् 1945 में जापान के लिए काल बन गया था।
दरअसल, परमाणु परीक्षण के साथ ही ओपेनहाइमर को अहसास हो चुका था कि उन्होंने जो किया, वह दुनिया को विनाश के कगार पर पहुंचा दे सकता है। तभी उनके मुख से श्रीकृष्ण का यह वाक्य सहसा निकल पड़ा था – मैं काल हूँ और दुनिया का संहार करने वाला हूं। श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट स्वरूप दिखाते हुए कहा था – मैं वास्तव में काल हूँ और लोक-संहारके लिए ही बढ़ रहा हूँ। यह देखो, मेरे अनन्त मुख फैले हुए हैं और अब यह सम्पूर्ण विश्व मैं निगल जाऊँगा।” जापान पर परमाणु हमले के साथ ही ओपेनहाइमर की आशंका सत्य में तब्दील हो चुकी थी। वे उस घटना इतने विचलित हुए थे कि परमाणु बम के विरोध में मुखर होकर बोलने लगे थे।
खैर, इस घटना से साबित हुआ कि वास्तव में अध्यात्म के बिना विज्ञान अंधा है। तभी जिस शक्ति का उपयोग राष्ट्र के कल्याण के लिए किया जा सकता था, उसका प्रयोग विध्वंस के लिए कर दिया गया। इस घटना से द्वितीय विश्व युद्ध भले रूक गया। पर राष्ट्रों के बीच परमाणु हथियारों की होड़ शुरू हो गई थी। ओपेनहाइमर ने भले श्रीमद्भगवतगीता के ग्यारहवे अध्याय के 32वें श्लोक ऐसी घटना के लिए उद्धृत कर दिया। पर वह विध्वंसकारी घटना महाभारत के निहितार्थ से से बिल्कुल मेल नहीं खाती। श्रीकृष्ण अधर्म के विरूद्ध थे। उन्होंने अपनी यौगिक शक्तियों से देख लिया था कि कौरवों का हश्र क्या होना है। इसलिए अर्जुन को उस विध्वंस का केवल माध्यम बनना था। पर जापान के साथ तो अधर्म हुआ। अमेरिका के पास ऐसी आध्यात्मिक शक्ति नहीं थी, जो उसे भौतिक शक्तियों का दुरूपयोग करने से रोकती।
अध्यात्मिक शक्ति बनाम वैज्ञानिक शक्ति पर मत-मतांतर सदैव चलता रहता है। हालांकि सुखद है कि बीते कुछ दशकों में परिस्थितियां बदली हैं। हमारे ऋषि कहते रहे हैं कि मानव की छिपी हुई क्षमता को मंत्रों की शक्ति से जागृत किया जा सकता है। आधुनिक युग में विभिन्न प्रयोगों के बाद पश्चिम के वैज्ञानिक भी मोटे तौर पर इसी निष्कर्ष पर हैं। पर आज भी ऐसे बुद्धिजीवी मिलते हैं, जो यह मानने को तैयार नहीं हैं कि महाभारत के दौरान कौरवों का हश्र पूर्व निर्धारित था, जबकि पश्चिम की प्रयोगशाला में ही साबित किया जा चुका है कि हमारे लिए जो घटनाएं भविष्य में घटित होती हैं, वे प्रकाश के जगत में पहले ही घटित हो चुकी होती हैं। वैदिक ग्रंथों में ऐसा दावा पहले से किया जाता रहा है। इसलिए विज्ञान की कसौटी पर भी मानना होगा कि श्रीकृष्ण ने कौरवों के काल में विनाश की जो तस्वीर प्रस्तुत की थी, वह उनकी कल्पना नहीं, बल्कि सच्चाई थी।
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में डिलाबार प्रयोगशाला अनूठी है। वहां आध्यात्मिक उपलब्धियों के आधार पर कई सफल प्रयोग किए जा चुके हैं। वहां एक प्रयोग के दौरान वैज्ञानिकों ने देखा कि फूल की कली खिलने के पहले फूल की पत्तियों से जो किरणें निकल रही थी, वे खिल कर पंखुड़ियों के खिलने का रास्ता बनाने लगी थीं। यानी जो पंखुड़ियां हमारी नजर में बाद में खिली थीं, वे प्रकाश की किरणों में पहले ही खिल चुकी थीं। इस प्रयोग के बाद वैज्ञानिकों को भरोसा है कि मानव की मौत से महीनों पहले उसकी आभा धूमिल होने लगती होगी। इसलिए कि प्रयोग में देखा गया कि फूल खिलते समय प्रकाशमंडल की जो किरणें बाहर जा रही थी, उसके लौटकर अपने में गिरने के साथ ही फूल मुरझा गया था। इसी सिद्धांत के आधार पर मानव का जीवन भी चलता होगा।
बीसवीं शताब्दी में भारत के संतों ने भी पश्चिम का रूख शायद इसलिए किया था कि उन्हें भान था कि वैज्ञानिक उपलब्धियों वाले देशों में अध्यात्म की जरूरत ज्यादा है। इसके अभाव में उनकी शक्तियां अनर्थकारी हो जाएंगी। एक फिल्मकार के तौर पर क्रिस्टोफ़र एडवर्ड नोलेन के पास भी बेहतरीन अवसर था, पर वे चूक गए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)