अवयस्क छात्र-छात्राओं में बढ़ी हिंसक प्रवृत्तियां अब आम है। अक्सर बाल अपराध से जुड़ी कोई न कोई वीभत्स घटना अखबारों की सुर्खियां बनती हैं। यौन अपराध तो चरम पर है। ताज़ा राष्ट्रीय आँकड़े बताते हैं कि देश में नाबालिग लड़कों द्वारा नाबालिग लड़कियों के खिलाफ यौन अपराध के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। समाज शास्त्री इसकी प्रमुख वजह इंटरनेट, सामाजिक बदलाव, नैतिक शिक्षा की कमी, जागरूकता का अभाव आदि मानते हैं। पर, योग के परमहंसों की मानें तो बच्चों की हिंसक प्रवृत्तियां केवल बाह्य कारकों का परिणाम नहीं, बल्कि इसमें आंतरिक बदलावों की विशिष्ट भूमिका है।
कैसे? जरा इसके विज्ञान को समझ लीजिए। मानव मस्तिष्क में एक छोटी-सी ग्रंथि होती है। उसे पीनियल ग्रंथि कहते है, जिसे योगशास्त्र में अज्ञा-चक्र कहा गया है। वैज्ञानिक दृष्टि से यह ग्रंथि मेलाटोनिन नामक हार्मोन का स्राव करती है, जो नींद, जैविक घड़ी और मानसिक संतुलन को नियंत्रित करता है। लगभग सात–आठ वर्ष की आयु के बाद पीनियल ग्रंथि धीरे-धीरे क्षीण होने लगती है। जब तक यह सक्रिय रहती है, तब तक यह पिट्यूटरी ग्रंथि पर नियंत्रण बनाए रखती है। पिट्यूटरी को मास्टर ग्रंथि कहा जाता है, क्योंकि यह सम्पूर्ण अंतःस्रावी तंत्र को नियंत्रित करती है। लेकिन जैसे ही पीनियल का नियंत्रण कम होता जाता है, पिट्यूटरी से यौन संबंधी हार्मोन तीव्र गति से बनने लगते हैं। नतीजतन, बच्चों में असमय यौन-चेतना, आक्रामकता और अस्थिर मानसिकता उत्पन्न कर देते हैं। चिकित्सा विज्ञान की मानें तो चूंकि इन हार्मोनल बदलावों को क्षीण होने से रोकना लगभग असंभव है।
अब इसे योग विज्ञान के दृष्टिकोण से समझिए। “बच्चों के लिए योग शिक्षा” बेहद प्रामाणिक पुस्तक है। इसमें आत्मज्ञानी संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती का अनुभव समाहित है। पुस्तक के मुताबिक, मनस शक्ति और प्राण शक्ति के बीच असंतुलन मानसिक विकार का कारण होता है। यदि मानसिक शक्ति की अधिकता रहती है और प्राण शक्ति का अभाव रहता है तो बच्चा गुमसुम, अवसादग्रस्त, चिंताग्रस्त या आलसी रहने लगता है। उसमें गत्यात्मकता का अभाव रहता है और वह अपनी मानसिक ऊर्जा को रचनात्मक कार्यों में रूपांतरित नहीं कर पाता है। इसके विपरीत यदि बच्चे में प्राण की अधिकता और मानसिक ऊर्जा का अभाव है तो वह अत्यंत उपद्रवी और उत्पाती हो जाएगा। यदि ऊर्जा के भंडार पर कोई नियंत्रण नहीं हो तो स्थिति विस्फोटक हो सकती है। इसकी तुलना ब्रेकरहित तेज गति से चलने वाली गाड़ी से की जा सकती है।
इस समस्या का यौगिक समाधान क्या है? इसका उत्तर है कि पिंगला एवं इड़ा नाडियों के बीच संतुलन कायम करके पीनियल ग्रंथि का क्षय रोका जा सकता है। इसके लिए बच्चों को आठ साल की उम्र से ही सूर्यनमस्कार, नाड़ी शोधन प्राणायाम, शांभवी मुद्रा और गायत्री मंत्र के अभ्यासों के लिए प्रेरित करना होगा। बिहार योग विद्यालय से लेकर कैवल्यधाम, लोनावाला तक इसी निष्कर्ष पर हैं। अब सूर्य नमस्कार को ही ले लीजिए। यह शरीर की ऊर्जा प्रणाली को संतुलित करने का एक वैज्ञानिक योग विधि और स्वयं में पूर्ण साधना है। इसमें आसनों के साथ ही प्राणायाम, मंत्र और ध्यान की विधियों का समावेश है। शरीर के सभी आंतरिक अंगों की मालिश करने का एक प्रभावी तरीका है। आसन का प्रभाव शरीर के विशेष अंग, ग्रंथि और हॉरमोन पर होता है। इसके साथ ही इस योगाभ्यास से पीनियल ग्रंथि के क्षीण होने की रफ्तार धीमी पड़ जाती है।
नाड़ी शोधन प्राणायाम के अभ्यास से शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक संतुलन होता है। श्वसन क्षमता बढ़ती है, नींद की गुणवत्ता में सुधार होता है। जीवन शक्ति और एकाग्रता बढ़ती है। पैरासिम्पेथेटिक तंत्रिका तंत्र सक्रिय होता है, तो तनाव का स्तर कम होता है और विश्राम और आंतरिक शांति की गहरी भावना पैदा होती है। शांभवी मुद्रा की क्रिया आज्ञा-चक्र को जागृत करने की शक्तिशाली क्रिया है। इस क्रिया से अल्फा तरंगों में वृद्धि हो जाती है। तंत्रिका तंत्र और अंत:स्रावी ग्रंथियों का संतुलन होता है। पीयूष ग्रंथि के ह्रास की रफ्तार धीमी हो जाती है। शरीर के ऊर्जा केंद्र, जिन्हें चक्र कहा जाता है, जागृत होते हैं और उनसे निकले वाली ऊर्जा, जिसे योग में प्राण-शक्ति कहा जाता है, पुन: शरीर में स्थापित हो जाती है। फलस्वरूप चेतन मन शांत होता है। रचनात्मकता व एकाग्रता बढ़ती है। अवसाद व अनिद्रा की समस्या नहीं रह जाती।
अब अंत में गायत्री मंत्र। यह बेहद शक्तिशाली है। शास्त्रों में कहा गया है कि ऊं नाद है, तो गायत्री प्राण है। गायत्री की उत्पत्ति ऊं से हुई है। ध्वनि सिद्धांत के अंतर्गत ऊं नाद का प्रतीक है। सृजन के क्रम में इस ध्वनि का विकास होता गया। इस तरह कह सकते हैं कि ऊं मंत्र का विकसित स्वरूप ही गायत्री है। वैदिक सिद्धांतों में गायत्री को प्राण की इष्ट देवी कहा गया है। वैज्ञानिक अनुसंधान हुआ तो इस बात की पुष्टि हुई कि गायत्री मंत्र के साथ प्राणायाम साधना अत्यंत प्रभावकारी होती है। योग शास्त्र में आज्ञा-चक्र को सक्रिय करने के लिए अनेक विधियां बतलाई गई हैं। यह सच है कि उनमें से किसी भी विधि से आज्ञा-चक्र को सक्रिय किया जा सकता है। पर, गायत्री मंत्र की शक्ति अद्भुत है। इस मंत्र के सभी 24 अक्षरों के अलग-अलग देवता हैं और उन अक्षरों के उच्चारण का कुंडलिनी चक्रों पर प्रभाव होता है। जैसे, जब हम तत् का उच्चारण करते हैं तो इसके देवता गणेश सफलता और शक्ति प्रदान करते हैं।
स्पष्ट है कि शिक्षा को केवल बौद्धिक या शारीरिक विकास तक सीमित नहीं रखना होगा, बल्कि मन, शरीर और आत्मा के संतुलित विकास को सुनिश्चित करने के लिए योग विद्या का समावेश भी करना होगा। अनेक वैज्ञानिक शोध भी इस बात का समर्थन करते हैं। जर्नल ऑफ न्यूरोसाइंस के मुताबिक, आसन, प्राणायाम और ध्यान से पीनियल ग्रंथि का क्षय धीमा किया जा सकता है और मेलाटोनिन स्तर बढ़ाया जा सकता है। पांच-सात दशक पहले तक उपनयन संस्कार कराने का रिवाज था। उस दौरान बच्चों को उपरोक्त सारी योग साधनाएं बताई जाती थीं। उनके अभ्यास से बच्चों में शारीरिक-मानसिक और भावनात्मक संतुलन बना रहता था। आज जैसे हालात उत्पन्न हो रहे हैं, उनसे बचने के लिए हमें अपनी जड़ों की ओर लौटना ही होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)