किशोर कुमार //
भारत के शिक्षण संस्थानों में छात्रों को यौगिक और आध्यात्मिक शिक्षा का प्रचलन बढ़ना कोई इत्तेफाक नहीं है। बीज पहले से थी, इसे आज नहीं तो कल अंकुरित होना ही था। हमारे वैज्ञानिक संत अनादिकाल से कहते रहे हैं कि आत्मा नित्य है। इसका अस्तित्व शाश्वत है और यह जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र से गुजरती है। इसी प्रक्रिया में चेतना का विस्तार होगा और मनुष्य अंतत: ज्ञान को उपलब्ध होगा। मनुष्य की यही नियति है। इसके लिए चाहे कितने भी शरीर क्यों न धारण करने पड़े।
हम जानते हैं कि आध्यात्मिक शक्ति-संपन्न भारत पर आसुरी शक्तियां सदियों इतना हमलावर रहीं कि आध्यात्मिक चेतना रूपी बीज को पल्लवित-पुष्पित करना प्राय: दुष्कर कार्य था। पाश्चात्य संस्कृति हावी हुई तो सारा जोर बुद्धि के विकास पर हो गया। अब सबको समझ में आ रहा है कि बुद्धि विकास का परिणाम एकांगी रहा। आध्यात्मिक चेतना के विकास के बिना मानवता का संपूर्ण कल्याण संभव नहीं। संत तुलसीदास ने कहा है – “बड़े भाग मानुष तनु पावा…।” इसलिए अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद हम अपनी आध्यात्मिक चेतना के विकास की दिशा में कदम न बढ़ाएं तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण बात और क्या हो सकती है?
आध्यात्मिक शक्ति-संपन्न इस देश को गुलामी के जंजीरों से मुक्त हुए 78 साल पूरे हुए। पर जिस दास मानसिकता के कारण हम गुलाम बने थे, उसके अवशेष आज भी दिखते हैं। वैदिक ज्ञान जब तक आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर खरा न दिखे, तब तक ऐसी प्रवृत्ति वाले लोगों को बात जमती नहीं। भौतिक विज्ञानी अल्बर्ट आइंस्टीन ने अपने शोध के बाद कहा कि द्रव्यमान और ऊर्जा एक ही भौतिक इकाई हैं और उन्हें एक दूसरे में बदला जा सकता है। हमने उनकी बातें आंख मूंद कर मान ली। पर, सदियों से हमारे वैज्ञानिक ऋषि-मुनि प्रकारांतर से यही बात कहते रहे तो उसे महत्वहीन माना जाता रहा। संतोष की बात है कि आधुनिक युग के ज्यादातर जाने-माने वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और मनोवैज्ञानिकों ने मान लिया है कि कर्म-सिद्धांत और पुनर्जन्म के वैदिक साक्ष्यों पर विवाद की गुंजाइश नहीं है।
भारत में ऐसे युवाओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है, जो जन्म-मृत्यु के चक्र और अतिमानसिक चेतना को अतीत में कल्पित कहानी मानने को तैयार नहीं हैं। इसलिए कि जैसे-जैसे चेतना का विकास हो रहा है, सत्य की झलक स्पष्ट होती जा रही है। पर विवाद प्रिय लोग हर युग में रहे हैं, आज भी हैं। हां, एक बदलाव है। कुछ दशक पहले तक स्थिति थी कि वैदिक संदेशों के संदर्भ में वैज्ञानिक साक्ष्य मिलते ही लोगों की जुबान बंद होती थी। मौजूदा युग में विरोध के लिए विरोध है। ऐसे लोगों को वैज्ञानिक साक्ष्यों से भी कुछ लेना-देना नहीं। आईआईटी, मंडी के नए पाठ्यक्रम को लेकर विवाद को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इस प्रमुख इंजीनियरिंग संस्थान में बीटेक स्टूडेंट्स को अतिमानसिक चेतना और पुनर्जन्म के बारे में पढ़ाया जाना है। इन दोनों ही बातों के संदर्भ में वैदिक साक्ष्य भरे पड़े हैं। वैज्ञानिक साक्ष्य भी मिल रहे हैं।
सामवेद के 200वें श्लोक में पुनर्जन्म और कर्मफल का उल्लेख है। श्रीमद्भगवत गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- हे अर्जुन! मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म हो चुके हैं….। माता पार्वती के पुनर्जन्म की कहानी की चर्चा तो सावन महीने में ही खूब हुई। रामचरितमानस में कागभुशुंडिजी की कथा है। वह पक्षीराज गरूड़जी से कहते हैं कि कौए का शरीर ही मुझे बहुत प्यारा है। क्यों? क्योंकि इस शरीर में प्रभु की भक्ति अंकुरित हुई और इसी शरीर से भजन हो पाता है। गरुड़ पुराण में दशावतार का तो भागवत पुराण में भगवान विष्णु के वामन अवतार का प्रसंग है। शिव संहिता में योगी मत्स्येंद्रनाथ के पुनर्जन्म की कहानी है।
वैदिक और पौराणिक बातों से आगे बढ़िए तो सुकरात, पाइथोगोरस और प्लेटो जैसे दार्शनिकों का भी अनुभव रहा कि पुनर्जन्म होता है। सुकरात जीवन के अंतिम पड़ाव तक पहुंचने से ठीक पहले कहा था, पुनर्जन्म सत्य है। नया जीवन मृत्यु से ही प्राप्त होता है। पाइथोगोरस का तो दावा था कि उसे पूर्व जन्मों की सारी बातें याद हैं। आधुनिक युग में भी अनेक संतों ने योगबल से पिछले जन्म के बारे में जाना-समझा। बीसवीं सदी की महान योगिनी श्रीश्री मां आनंदमयी को पूर्व जन्म का ज्ञान था। वे कहती थीं कि यदि कोई व्यक्ति ऊंचे सिंहासन पर बैठा है तो उसमें पूर्व जन्म के पुण्यों का भी योगदान होता है। ऐसा ही अनुभव लाहिड़ी महाशय, परमहंस योगानंद और स्वामी शिवानंद सरस्वती से लेकर न जाने कितने ही आत्मज्ञानी संतों का रहा है।
आधुनिक युग के वैज्ञानिकों ने भी वैदिक ग्रंथों, ऋषियों, संतों और दार्शनिकों के पुनर्जन्म के पक्ष में कही गई बातों पर मुहर लगा दी है। यूनिवर्सिटी ऑफ वर्जीनिया स्कूल ऑफ मेडिसिन के प्रोफेसर इयान प्रीटीमैन स्टीवेन्सन की चर्चित पुस्तक है- “रिइंकार्नेशन एंड बायोलॉजी।” इसमें दुनिया भर के लगभग छह सौ ऐसी घटनाओं का जिक्र है, जो पुनर्जन्म को प्रमाणित करते हैं। इनमें कई घटनाएं भारत से संबंधित हैं। उत्त्तर प्रदेश के कन्नौज की एक घटना उल्लेखनीय है। कनौज के उस बालक के शरीर पर जन्मकाल से ही गहरे घावों के पांच निशान थे। वह कहता था पिछले जन्म में शत्रुओं ने उसकी हत्या चाकुओं से गोद कर की थी। ये वही निशान हैं। जांच करने पर यह बात प्रमाणित हो गई थी। इधर, बंगलोर स्थित नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंस (नीमहांस) के डॉक्टर सतवंत पसरिया ने पुनर्जन्म से संबंधित पांच सौ मामलों पर शोध किया है। इनके परिणाम ‘श्क्लेम्स ऑफ रिइंकार्नेशनरू एम्पिरिकल स्टी ऑफ केसेज इन इंडिया’ नामक पुस्तक में लिपबद्ध हैं। इसकी कई सच्ची कहानियां अखबारों की सुर्खियां बटोर चुकी हैं।
अंत में एक मजेदार प्रसंग। विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती फ्रांस में थे। सत्संग के बाद किसी ने पूछ लिया – स्वामी जी, क्या पुनर्जन्म होता है? स्वामी जी ने मन टटोलने के लिए कहा – मान लो मैं कहूं कि पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता तो? यह सवाल सुनते ही भीड़ एकदम से हो! हो! करने लगी। इतने सारे साक्ष्यों के बाद कोई भी पुनर्जन्म के विरोध में कुछ भी सुनने को तैयार न था। कुछ बुद्धिजीवी चुप रहे। आज भारत की भी ऐसी ही स्थिति है।
(लेखक उषाकाल के संपादक व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)