जब मनुष्य अपने आत्मस्वरूप — सत्य, करुणा और विवेक से विमुख हो जाता है, तब वह हिंसा और विनाश के पथ पर बढ़ता है। आतंकवाद इसी आत्म-विमुखता का चरम रूप है। यह केवल एक राजनीतिक षड्यंत्र या सामाजिक विद्रोह नहीं, बल्कि उस सनकी मनोभाव का विस्फोट है, जिससे घृणा, क्रोध और वैचारिक कट्टरता मनुष्य की चेतना पर पूरी तरह हावी हो जाते हैं।
आतंकवाद केवल एक सामाजिक या राजनीतिक समस्या नहीं, बल्कि एक गहरी आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक विकृति है। यह घृणा, क्रोध, और वैचारिक कट्टरता से उपजा वह सनकी मनोभाव है, जो संज्ञानात्मक पक्षपात और भावनात्मक असंतुलन का शिकार होकर तर्क, संवाद, और सहिष्णुता को ठुकराता है। अमेरिकी दार्शनिक एरिक हॉफर की कृति “द ट्रू बिलीवर” इसी मनोभाव की पड़ताल करती हुई बहुचर्चित पुस्तक है। उसका सार है कि कट्टरवादी ऐसी भावनाओं का गुलाम बनकर हिंसक और आत्म-विनाशकारी हो जाते हैं। वे दूसरों को शत्रु और हिंसा को न्याय मान लेते हैं। ऐसी मानसिकता न केवल व्यक्ति, बल्कि समाज और मानवता के लिए घातक बन जाती है। जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में आतंकवादी हमला ऐसे ही किसी सनकी मनोभावों का प्रकटीकरण था।
आतंकवादी कार्रवाई में कुल 26 पर्यटकों की नृशंस हत्या के बाद भारतीयों का गुस्सा चरम पर होना स्वाभाविक है। घटना के तुरंत बाद ऐसा लगा था कि भारत त्वरित जबावी कार्रवाई करते हुए पाकिस्तान पर हमला बोल देगा। पर, सदैव अहिंसा का पुजारी रहे इस देश ने रणनीतिक कौशल का परिचय दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण के दौरान आतंकवादियों और उनके आकाओं को चेतावनी देते हुए रामचरितमानस की एक चौपाई का उल्लेख किया – ” बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीती। सरल सुभाउ न मोरि रघुबीती॥” भाव यह कि क्रोध या भय हमेशा नकारात्मक नहीं होता। जब यह अधर्म, अन्याय, या अत्याचार के खिलाफ होता है, तो यह धर्म की रक्षा का साधन बनता है। जाहिर है कि यह हमले से पहले की भयपूर्ण चेतावनी थी।
प्रधानमंत्री चाहते तो रामचरितमानस के ही “भय बिनु होइ न प्रीति गुसाईं, नृपति प्रजा प्रति करहु बड़ाई” का हवाला दे सकते थे। इस “भय” से अभिप्राय शासकीय दंड से है, परन्तु उन्होंने सीधे-सीधे ऐसा नहीं कहा। वैदिक दर्शन में शांति को सर्वोच्च लक्ष्य माना गया हैं। अथर्ववेद और यजुर्वेद में शांति के लिए प्रार्थनाएँ हैं। वैदिक दृष्टिकोण है कि पड़ोसी देश के साथ विवाद होने पर शांतिपूर्ण समाधान से भी बात न बने तो दूसरे विकल्पों पर विचार करना चाहिए। हालांकि चेतावनियों के बावजूद पाकिस्तान और उसके एजेंडे पर काम करने वाले लोग जिस तरह की हरकतें करते रहते हैं, दूसरे विकल्पों पर विचार करना जरूरी जान पड़ता है। फिर भी भारत ने सीधे कठोर दंड देने का मार्ग नहीं चुना। “बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीती…” चौपाई आध्यात्मिक संदर्भ में है और नैतिक भय जैसे, अधर्म से डर या ईश्वर के प्रति श्रद्धा की आवश्यकता पर जोर देती है, न कि हिंसक आतंक का। यह यजुर्वेद के “मा हिंस्यात् सर्वं भूतानि” के सिद्धांतों से प्रेरित है, जो अहिंसा को प्राथमिकता देता है। आधुनिक युग के लिहाज से इसे रणनीतिक कौशल कहना चाहिए, जो “अहिंसा परमो धर्मः” जैसे वैदिक सिद्धांत के अनुरूप है।
शिव पुराण की कथा तो पता ही हैं। दक्ष प्रजापति ने भगवान शिव का अपमान करने के लिए एक यज्ञ का आयोजन किया और शिव-सती को आमंत्रित नहीं किया। सती ने अपने पिता के इस हिंसक और अहंकारी व्यवहार का अहिंसक तरीके से विरोध किया। फिर भी दक्ष ने शिव का अपमान जारी रखा, तो सती ने आत्मदाह कर लिया। पर, इसकी अंतिम परिणति क्या हुई? शिव जी ने वीरभद्र को भेजकर दक्ष के यज्ञ को नष्ट कराया और दक्ष का वध। बाद में, शिव की कृपा से ही दक्ष का पुनर्जन्म हुआ। यहां सती के आत्म-बलिदान से दक्ष के अहंकार का पता चलता है और दक्ष के पुनर्जन्म से प्रमाणित होता है कि अहिंसा और क्षमा हिंसा से अधिक टिकाऊ और सुधारात्मक होती हैं। शिव जी की ब्रह्मांडीय शक्ति इस बात का प्रतीक है कि अहिंसा में नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति होती है, जो हिंसक अहंकार को परास्त कर सकती है।
आधुनिक युग का आतंकवाद भी आध्यात्मिक विकृति का ही परिचायक है। यह उस अधर्म का रूप है, जो मनुष्य को अपने आत्म स्वरूप से भटका देता है। यह लोभ, क्रोध, द्वेष और अहंकार की उस जड़ से उत्पन्न होता है, जिसे पहचानना और उखाड़ फेंकना आज समय की मांग है। बृहदारण्यक उपनिषद कहा गया है कि जब आत्मा सत्य से विमुख होती है, तब हिंसा और दुःख जन्म लेते हैं। ऐसी ही परिस्थितियों का निर्माण होता है तो दैवी शक्ति-संपन्न लोगों का आगे आना होता है। श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण स्पष्ट कहते हैं, “जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब मैं प्रकट होता हूँ… दुष्टों के विनाश और धर्म की पुनर्स्थापना हेतु।” श्री रामावतार का संदेश भी कुछ ऐसा ही है। श्रीराम का स्वभाव सरल और कोमल है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वे कमजोर हैं। आवश्यकता पड़ने पर वे दृढ़ और कठोर निर्णय लेने में सक्षम हैं।
कोई कह सकता है कि आधुनिक युग में श्री राम श्री कृष्ण का अवतरण कपोल-कल्पना मात्र है। सामान्य बुद्धि से ऐसी ही समझ बनती है। पर, आध्यात्मिक दृष्टिकोण से, श्रीराम और श्रीकृष्ण का अवतरण मानव मन में सुप्त दैवीय गुणों का जागरण है। यही वह गुण है जो हमें सत्य और अहिंसा के मार्ग से विचलित नहीं करता। हमारा संत समाज ऐसे ही दैवीय गुणों का स्वामी ही होता है। तभी जब-जब भारत भूमि की रक्षा की जरूरत हुई, संत समाज ने आगे बढ़कर भूमिका निभाई। “अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काज, दास मलूका कह गए, सबके दाता राम” महान संत मलूकदास का यह दोहा तो हम सबकी जुबान पर अक्सर होता है। उसी मलूकदास परंपरा के संत और वृंदावन स्थित मलूक पीठ के पीठाधीश्वर संत राजेंद्र दास ने पहलगाम की घटना के बाद करो या मरो शैली में जैसा संदेश दिया, उसे अधर्म के खिलाफ दैवीय शक्ति के जागरण का ही प्रतीक माना जाना चाहिए। राष्ट्रीय जनमानस के जागरण के लिहाज से ऐसी शक्ति किसी परमाणु बम से कम नहीं होती।
राष्ट्र की भौतिक शक्ति, उसकी सेना, उसके हथियारों की ताकत, उसकी रक्षा प्रणाली और उसकी तकनीकी प्रगति युद्ध के लिए निर्णायक जरूर होती है। पर, अध्यात्मिक शक्ति ही वह तत्व है, युद्ध के दौरान केवल लड़ाई की शक्ति नहीं देती, बल्कि यह राष्ट्र के भीतर नैतिक शक्ति, साहस, और धैर्य का निर्माण करती है। इसमें साधु-संन्यासियों की शक्ति जुड़ जाती है तो बात सोने पे सुहागा जैसी हो जाती है। इसे एक प्रसंग से समझिए। कलकत्ते में बैठकर पूरे देश पर नियंत्रण बनाने का ख्वाब रखने वाले गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स इस बात से बेहद परेशान रहते थे कि जिन साधु-संन्यासियों की संगठित फौज नहीं है, उनका कोई नगर नहीं है, राजधानी नहीं है….यहां तक कि ज्ञात किला भी नहीं है। फिर भी वे इतने ताकतवर लड़ाके हैं कि अंग्रेजी फौज से दो-दो हाथ करने से नहीं घबड़ातें हैं। उन्हें धूल चटा देते हैं….। उन्होंने अपनी डायरी में इस बात का उल्लेख करते हुए लिखा था, “मैं तो कई बार साधु-संन्यासियों की हरिध्वनि से कांप उठता हूं। मेरे सिपाही भी भयभीत रहने लगे हैं।“ बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास “आनंदमठ” में यह प्रसंग विस्तार से है। कहना न होगा कि आध्यात्मिक शक्ति के मामले में भारत अनूठा देश है, जहां के साधु-महात्मा धर्म की रक्षा के लिए कोई कसर नहीं छोड़ते।
बात पहलगाम आतंकी हमले के संदर्भ में है तो कहना होगा कि अधर्मियों के लिए यह वक्त चेत जाने का है। इतिहास साक्षी है कि जो लोग मानवता के विरुद्ध हिंसा का मार्ग चुनते हैं, वे इस युगधर्म के विरुद्ध खड़े होते हैं। ऐसे अधर्मियों को युगधर्म नष्ट कर देता है। नाना रूपों में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह “दिनकर” की पंक्तियां, “हित-वचन नहीं तूने माना, मैत्री का मूल्य न पहचाना……याचना नहीं, अब रण होगा, जीवन-जय या कि मरण होगा“ जीवंत हो उठती हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व अध्यात्म विज्ञान विश्लेषक हैं।)