किशोर कुमार //
अद्भुत! जीव-जंतुओं में भी ईश्वर का प्रतिरूप और उसकी पूजा! इसका मर्म वे क्या जानेंगे, जो जड़ों से कट गए और भारत को सपेरों का देश मानने लगे थे। पर, भारत जैसा आध्यात्मिक देश तो अपनी जड़ों से मजबूती से जुड़ा हुआ है। वह जिस तरह राम और रावण में फर्क जानता है, उसी तरह नाग के गुण-दोष को भी समझता है। उसे मालूम है कि वासुकि नाग में विष भरा है तो अमृत निकालने के काम भी वही आता है। हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। त्रिगुणायत मानवों को ही देख लीजिए। उसमें एक तरफ शील है, मर्यादा है तो दूसरी तरफ रावण जैसे अवगुण भी हैं। इसलिए, श्रद्धालु नागपंचमी के मौके पर नाग देवता का दूध से अभिषेक करके न केवल भौतिक सुख-समृद्धि की कामना करते हैं, बल्कि आध्यामिक विकास की ओर अग्रसर होने का भी यत्न करते हैं।
अष्टांग योग का भुजंगासन और तंत्र शास्त्र का कुंडलिनी योग क्या है? नागों के गुण-धर्म से मिली प्रेरणा का ही प्रतिफल तो है। संतों और योगियों का अनुभव रहा है कि प्रत्येक जीव मूलतः परमात्मा का ही प्रतिरूप है। पर, माया या अज्ञान के कारण उसे इसका ज्ञान नहीं होता। अवगुण तो दिख जाते हैं। पर गुण नहीं दिखते। योगियों ने कुंडली मारकर बैठे नाग की शक्ति देखी और कुडलिनी योग का आधार तैयार हो गया। जीवन का एक बेहद गहरे पहलू प्रतीकात्मक तरीकों से अभिव्यक्त हो गया। नागपंचमी इसका प्रतिनिधित्व करती है। इसलिए, नागपंचमी वैसे लोगों के लिए बड़े महत्व का है, जो अपनी इंद्रियों से परे अंतर्यात्रा प्रारंभ करने की इच्छा रखते हैं।
सपेरे बीन बजाते हैं और उसके धुन पर सांप झूमने लगते हैं। नागपंचमी के मौके पर ऐसा जगह-जगह देखने को मिल जाता है। अंग्रेज पहली बार भारत आए तो उन्हें विश्वास न हुआ कि सांप धुन पर झूम रहा है। वे तो यही जानते थे कि सांप सुन नहीं सकते। इसलिए कि उनके कान नहीं होते। लिहाजा, उन्होंने इंग्लैंड में बैठे अपने आकाओं को पत्र भेजा – “हम कैसे कह सकते हैं कि उनके पास कान नहीं हैं? – क्योंकि निश्चित रूप से वे संगीत सुनते हैं। वे न केवल सुनते हैं, बल्कि समझते भी हैं; न केवल समझते हैं, बल्कि उसका अनुसरण भी करते हैं।” इस पत्र से इंग्लैंड में सभी हैराना थे। वैज्ञानिक भी हैरान थे। आखिर बिना कानों के कैसे सुना जा सकता है। उन्होंने शोध किया। पता चला कि सर्पों की पूरी त्वचा ध्वनि के प्रति संवेदनशील होती है। यानी पूरी त्वाचा कान का काम करती है।
स्वामी विवेकानंद ने कुंडलिनी शक्ति की चर्चा करते हुए कहा था कि पशु समान कार्य से जिस यौन-शक्ति का नाश होता है, उसी को ऊर्ध्वगति कर देने से ओज, अथवा आध्यात्मिक शक्ति में परिणत हो जाती है। समस्त सत् चिन्तन, समस्त प्रार्थनाएँ इस पाशविक शक्ति का ओज में रूपान्तरण करने में सहायता करती है और उसी से हम आध्यात्मिक शक्ति भी प्राप्त करते हैं। यह ओज ही है मनुष्य का मनुष्यत्व और केवल मानव शरीर में ही इस शक्ति का संग्रह सम्भव है। समस्त यौन शक्तियों को ओज में परिणत करने वाला व्यक्ति देवता है। उसके वचनों में अमोध शक्ति होती है-उसके वचनों से नूतन जगत की सृष्टि हो सकती है।
नागपंचमी के कर्म-कांडों को लेकर कई पौराणिक कथाएं हैं। महाभारत की एक प्रचलित कथा तो हम सब जानते ही हैं। राजा परीक्षित को तक्षक सर्प ने डंस लिया तो तत्क्षण ही उनकी मृत्यु हो गई। उनके पुत्र जनमेजय ने प्रतिशोध की भावना से नागवंश के सफाए के लिए सर्प यज्ञ का आयोजन किया। मंत्रों की वैज्ञानिकता और उसकी शक्ति से अब हम सब वाकिफ हो चुके हैं। उसी शक्ति का तब इस्तेमाल किया गया। बड़ी संख्या में सर्प खींचे चले गए और एक-एक कर यज्ञ कुंड में भस्म होने लगे। वासुकि नाग के भांजे आस्तिक मुनि को हस्तक्षेप करना पड़ा था। राजा जन्मेजय को यज्ञ समाप्त करने के लिए राजी कराने के बाद हवन कुंड में दूध डालकर उसे शांत किया गया। तब वासुकि नाग का वरदान मिला कि सर्प मंत्र से श्रद्धापूर्वक पूजा करने वालों को सर्पदंश का भय नहीं रहेगा। चूंकि यह यज्ञ सावन शुक्ल पक्ष पंचमी को हुआ था तो वही दिन नाग पूजन के लिए उपयुक्त मान लिया गया और दूध से अभिषेक करने का रिवाज चल निकला।
वैसे, भारत के अलग-अलग हिस्सों में अन्य मान्यताओं के आधार पर भी नागपंचमी का त्योहार मनाया जाता है। महाराष्ट्र के सांगली जिले के बत्तीस शिराला गांव के लोग सदियों से नागपंचमी के दिन जीवित सांर्पों की बारात निकालते रहे हैं। पर सन् 2006 में अदालत को हस्तक्षेप करके इस प्रथा पर रोक लगानी पड़ी थी। अब लोग मिट्टी का नाग बनाकर पुरानी रीति-रिवाज से ही पूजा करते हैं। कथा है कि योगी गोरखनाथ उस गांव के एक घर में गए थे तो महिलाएं मिट्टी के सर्प बनाने में तल्लीन थीं। बाहर आने में विलंब हो गया। योगी को मिट्टी के नाग बनाए जाने का पता चला तो उन्होंने दैवीय शक्तियों वाले एक जीवित सांप को छोड़ दिया। तब से शिराला गांव के हर घर में नागपंचमी पर जीवित नाग की पूजा की जाने लगी थी।
बिहार के समस्तीपुर जिले में तो आज भी नागपंचमी के मौके जीवित नाग की ही पूजा की जाती है। श्रद्धालु विभूतिपुर प्रखंड होकर बहने वाली बूढ़ी गंडक नदी के सिंधिया घाट से जीवित सर्पों को पकड़कर जुलूस निकालते हैं और नाग देवता की पूजा करते हैं। इस मौके पर सिंधिया घाट पर विशाल मेला लगता है, जिसमें भाग लेने दूर-दूर से लोग जाते हैं। कहते हैं कि यह सिलसिला तीन सौ वर्षों से जारी है। श्रदुधालु नागपंचमी के दिन पूजा अर्चना के बाद नदी में डुबकी लगाते हैं और सांप निकालते हैं। मुरादें पूरी हो जाती हैं तो उन सांपों को सुरक्षित स्थानों पर छोड़ देते हैं।
पौराणिक उपाख्यानों में भी नाग की महत्ता बतलाई गई है। उसके मुताबिक, शेषनाग के फन पर यह धरती टिकी हुई है। सर्प विष्णु भगवान की शैय्या हैं और शंकर भगवान ने तो सर्प को ही धारण कर रखा है। दूसरी तरफ अशुभ फल देने वाले सर्पों के दमन के भी उदाहरण हैं। श्रीकृष्ण को स्वयं कालिया नाग का दर्प दमन करने में जुटना पड़ा था। राजा जन्मेजय के सर्प यज्ञ को भी इसी संदर्भ में देखना चाहिए। संदेश यह है कि सर्प का विष हो या समाज की दुष्प्रवृत्तियाँ, वे तभी हानिकारक साबित होती हैं, जब उन्हें अपने जीवन में घुलने देतें हैं। वरना, कितनी ही घातक दुष्प्रवृत्तियां बाल बांका नहीं कर पातीं हैं।
हम जानते हैं कि नाग आदियोगी के गणों में एक महत्वपूर्ण गण है। शिव के संपर्क में उसका गुण-धर्म अलग होना लाजिमी है। इसलिए ईश्वरीय लीला से परिस्थितियां इस तरह निर्मित हुईं कि शिव को प्रिय सावन महीने में ही नाग देवता की आराधना की परंपरा चल निकली। साक्ष्यों से पता चलता है कि दुनिया के अनेक देशों में प्रकारांतर से नाग की पूजा की जाती रही है। मेसोपोटामिया के एक देवता को चढ़ाए गए फूलदान पर दो लिपटे हुए साँपों के एक रेखाचित्र से पता चलता है कि चार हजार वर्ष पहले भी सर्प की पूजा की जाती थी। मौजूदा समय में, नाग देवता को समर्पित नागपंचमी मुख्य रूप से भारत-नेपाल का एक बड़ा उत्सव है। इसके आध्यात्मिक संदेश मानव के सर्वांगीण आत्म-विकास के लिए बेहद फलदायी है।
(लेखक उषाकाल डॉट कॉम के संपादक और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।