पूरी दुनिया में एक तरफ ध्यान की लोकप्रियता आसमान छू रही है। दूसरी तरफ शरीर और मन पर ध्यान के प्रभावों को लेकर वैज्ञानिक शोध बड़े पैमाने पर किए जा रहे हैं। प्राय: हर सप्ताह एक न एक रिपोर्ट सार्वजनिक हो रही है। सबका सार यही है कि ध्यान मन के प्रबंधन का बड़ा औजार है। यह स्थिति लोगों को ध्यान के लिए प्रेरित कर रही है। जाहिर है कि इस ट्रेंड को देखते हुए योग के कारोबारियों का ज्यादा फोकस ध्यान पर ही है। पर इसके साथ ही बड़ा सैद्धांतिक सवाल भी खड़ा हो गया है। वह यह कि ध्यान सीखा या सिखाया जा सकता है? दूसरी बात यह कि ज्यादातर लोग ध्यान के लिए जो विधि अपना रहे हैं, वह ध्यान नहीं तो क्या है?
राजयोग के सूत्रधार महर्षि पतंजलि से लेकर योग के अनेक ग्रंथों का मोटे तौर पर सार यही है कि ध्यान जीवन की महानतम कला है। पर यह सीखी जा सकती। शक्तिपात हो जाए तो बात अलग है। जे कृष्णमूर्ति बीसवीं सदी के महान दार्शनिक थे। मस्तिष्क की प्रकृति, ध्यान, मानवीय सम्बन्ध, समाज में सकारात्मक परिवर्तन आदि विषयों पर उनका मौलिक दर्शन था। वे कहते थे, ध्यान की कोई प्रणाली ध्यान नहीं है। सजगता का अभ्यास किया जा सकता है, जिसे योग की भाषा में प्रत्याहार कहते हैं। यदि कोई सजगता के ‘अभ्यास’ के दौरान असावधानियों के प्रति सजग हो जाए, तो मन की एकाग्रता के लिए किसी अभ्यास की दरकार नहीं पड़ेगी। जंगल, पहाड़ कहीं नहीं जाना पड़ेगा।
कृष्णमूर्ति के विचार योगसूत्रों के व्याख्याकारों व संतों की अनुभूति से मेल खाते हुए हैं। परंपरागत योग के संत भी यही कहते हैं कि ध्यान की कोई तकनीक और तरकीब नहीं होती। पर बाजार में चले जाएं तो ध्यान पर मोटी-मोटी पुस्तकें मिल जाएंगी। ज्ञानियों के प्रवचनों का संकलन होगा। यह अकारण नहीं है। प्राय: सभी धर्मों में ध्यान की महत्ता प्रतिपादित की गई है। पर देश-काल के लिहाज से तैयार ग्रंथों की सही विवेचना न होने के कारण भ्रम की स्थिति बन जाती है। जैसे, कपालभाति योग क्रिया इन दिनों खूब चलन में है। पर यह षट्कर्म भी है और प्राणायाम भी। इसकी थोड़ी साधना विधि बदलती है, परिणाम बदल जाता है। वही हाल त्राटक का है। ध्यान के साथ भी यही बात लागू है।
ध्यान साधना राजयोग का हिस्सा है तो ज्ञानयोग और भक्तियोग का भी हिस्सा है। सबकी तैयारियां अलग-अलग हैं और उद्देश्य भी अलग-अलग ही हैं। मौजूदा समय में ध्यान की जरूरत मानसिक समस्याओं से निजात पाने के लिए है। योग के ज्ञाता ऐसी परिस्थितियों के लिए राजयोग के ध्यान-मार्ग की वकालत करते हैं। पर सवाल है कि राजयोग की कौन-सी विधि मौजूदा समय के लिहाज से व्यवहारिक हो सकती है। उत्तर मिलता है – प्रत्याहार साधना। यह ध्यान की पहली सीढ़ी है। पर ध्यान नहीं है। इसके बाद धारणा योग की बारी आती है। ध्यान को इन दोनों की क्रियाओं की परिणति कहा जा सकता है। प्रत्याहार की क्रियाएं इंद्रियों को अपने विषयों से हटाती हैं। धारणा में मन को किसी एक बिंदु पर या विषय पर एकाग्र किया जाता है। इन दोनों अभ्यासों के सधाने के बाद ध्यान अपने आप घटित होता है।
भारत के आध्यात्मिक संतों से लेकर योग के वैज्ञानिक संत तक कहते रहे हैं कि किसी को प्रत्याहार की विधियां भी सध जाए तो बड़ी बात होगी। डिवाइन लाइफ सोसाइटी, ऋषिकेश के संस्थापक स्वामी शिवानंद से लेकर बिहार योग विद्यालय, मुंगेर के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती तक कहते रहे हैं कि आमतौर पर कथित ध्यान के लाभों को प्राप्त करने के लिए प्रत्याहार का जो अभ्यास किया या कराया जाता है, उसे वास्तव में ध्यान की तैयारी की पहली सीढ़ी कहेंगे। वह भी तब जब नियम से किया जाए। वरना ध्यान के नाम पर दिल बहलाने जैसी बात हो जाती है, जिससे अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाते हैं।
महर्षि पतंजलि ने अपने योगसूत्र में प्रत्याहार की बड़ी महत्ता बतलाई है। कहा है कि इससे इंद्रियों का परम निग्रह होता है। इस बात की भारत के बड़े-बड़े संतों ने व्याख्या की और सबका सार यह कि आम गृहस्थ जीवन में प्रत्याहार की कोई भी विधि सध जाए तो तनाव से राहत मिल सकती है। दुनिया भर में मन के प्रबंधन पर जो शोध हुए हैं, उनमें से कई शोधों का बारीक से अध्ययन करने का मौका मिला है। उन सभी शोधों के लिए प्रकारांतर से प्रत्याहार और कुछ मामलों में धारणा की विधियों को ही उपयोग में लाया गया था। यानी चेतना को अंतर्मुखी और एकाग्र बनाने का अभ्यास कराकर आधुनिक चिकित्सकीय विधियों से पता लगाया गया कि मन की प्रतिक्रिया पहले और बाद की कैसी होती है। बीटा और थीटा तरंगों की प्रतिक्रयाएं किस तरह की होती हैं। पर इन योग विधियों को कहा गया मेडिटेशन, ध्यान। ऐसी बातों से ही भ्रम की स्थिति बनती है।
योगनिद्रा, अंतर्मौन, अजपा जप और त्राटक या फिर इनसे ही मिलती-जुलती विधियों पर सैकड़ों अध्ययन किए जा चुके हैं। अच्छी बात यह है कि ज्यादातर अध्ययनों के नतीजे पहले के अध्ययनों के नतीजों जैसे ही है। इससे मानसिक पीड़ा झेल रहे लोगों को “ध्यान” को लेकर आश्वस्ति मिली है। मुख्य रूप से हार्वर्ड य़ूनिवर्सिटी, द यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, लॉस एंजिल्स और येल यूनिवर्सिटी में अध्ययन किए गए। देखा गया कि अवसाद के दौरान मन में किस तरह के उपद्रव होते हैं और ध्यान साधना से उन पर काबू पाना क्यों आसान होता है। यह सर्वविदित है कि मानव तंत्रिका तंत्र का मन से सीधा संबंध है। अध्ययन के दौरान देखा गया कि ध्यान के अभ्यासों के दौरान मस्तिष्क के ग्रे पदार्थ की मात्रा में परिवर्तन होता है। इसका सीधा असर मस्तिष्क के “मी सेंटर” पर पड़ता है। उसकी गतिविधि कम हो जाती है, जो अवसाद के कारण बढ़ गई होती है।
निष्कर्ष यह कि मन अशांत है तो ध्यान सधेगा नहीं। जिस उद्देश्य से ध्यान करने की जरूरत महसूस की जा रही है, उसके लिए प्रत्याहार और उसके बाद धारणा की विधियां उपयुक्त हैं। वे ध्यान जैसे हैं और ध्यान के छोटे भाई हैं। बैठकर अंतर्मौन, अजपा जप, त्राटक जैसे सजगता व एकाग्रता के अभ्यास न कर पाने की स्थिति हो और मुद्राओँ में विशेष रूप से शांभवी मुद्रा का अभ्यास भी न सध पा रहा हो तो शवासन में “योगनिद्रा” से भी कमाल के परिणाम मिलेंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)