किशोर कुमार//
स्वामी सत्यानंदजी महाराज देश में आर्यसमाज के बड़े आध्यात्मिक नेता थे। सन् 1925 में उन्हें दयानंद जन्मशताब्दी समारोह के दौरान एकांतवास करने की आंतरिक प्रेरणा हुई। चले गए डलहौजी। साधना के दौरान ब्यास पूर्णिमा की रात उन्हें “राम” शब्द बहुत ही सुंदर और आकर्षक स्वर में सुनाई दिया। फिर आदेशात्मक शब्द आया – राम भज…राम भज…राम भज। स्वामी सत्यानंदजी महाराज समझ गए कि श्रीराम की अनुकंपा हो चुकी है। इस तरह वे आर्यसमाज से नाता तोड़कर पूरी तरह राम का गुणगाण करने में जुट गए। इसके बाद “राम शरणम्” नाम से संस्था बनाई, जिसका प्रभाव आज भी खासतौर से उत्तर भारत में दिखता है। एक बार महात्मा गांधी शिमला में स्वामी सत्यानंदजी महाराज से मिले। उनकी चिंता थी कि देश को आजाद कराने में तमाम तरह की बाधाएं आ रही हैं। स्वामी जी ने अपने हाथ का माला देते हुए कहा – राम नाम का सुमिरन करिए। सोने से पहले प्रतिदिन पांच माला जप कीजिए। सफलता अवश्य मिलेगी। हम सब जानते हैं कि प्राण छूटते समय भी गांधी के मुंख में राम नाम ही था। संत तुलसीदास भी कह गए हैं – “कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा।“ यानी कलियुग में नाम जप ही प्रभावी योग साधना है।
चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि दो दिनों बाद ही है। श्रीराम का जन्मोत्सव श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाएगा। वैसे, नवरात्रि शुरू होते ही नवदुर्गा की आराधना के साथ ही राम कथाओं का सिलसिला भी जारी है। हमने देखा था कि अयोध्या में बाल राम की प्राण प्रतिष्ठा के मौके पर देश भर में राम-भक्ति का ज्वार किस स्तर पर था। राम कथाओं के आयोजनों में भी वैसी ही राम-भक्ति की झलक मिलती है। इसलिए कि मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम हमारे लिए वरेण्य हैं। उनके आदर्शों से ही हमारी संस्कृति पल्लवित-पुष्पित हुई है। वह संस्कृति आज भी हम सब में बीज रूप में मौजूद है। यह बात दीगर है कि नाना प्रकार के आघातों के कारण उस बीज का पोषण सही तरीके से नहीं हो पाया। पर अब समय आ गया है कि हमें दशरथ नंदन राम की कथाओं से आगे बढ़कर जगत पसारा राम के गुणों को आत्मसात कर खुद को रूपांतरित करना चाहिए। परब्रह्म राम से आशीष लेने का यही एकमात्र उपाय है।
श्रीराम की कथा तो हम सब जानते ही हैं। कल राजतिलक होना है और आज उन्हें वनगमन का फैसला लेना पड़ा और वनवास के लिए ऐसे निकल पड़े, मानों राजतिलक के लिए जा रहे हों। अयोध्या से चलकर चित्रकूट पहुंचे तो रास्ते में कांटे ही कांटे होने के कारण पैर लहूलुहान हो गए। पर चिंता इस बात को लेकर थी कहीं वही कांटे उनके भाइयों को न चुभ जाएं। इसलिए चित्रकूट के वनवासियों से आग्रह किया कि रास्ते के कांटों को हटा दें। उनका दिल कहता है कि उनसे मिलने उनके भाई भरत और शत्रुध्न जरूर आएंगे। जरा सोचिए, जिसकी मां के कारण वनवास हुआ, उसके बेटे के लिए ऐसा सद्विचार! हमारे लिए कितनी बड़ी सीख है। और हमारी स्थिति क्या होती है? हमारी वृत्तियां इतनी दोषपूर्ण है कि जीवन में छोटी-मोटी घटनाएं भी विचलित कर देती हैं और अजब-गजब कारनामे करवा देती हैं।
संत कबीर दास की वाणी है, एक राम दशरथ का बेटा , एक राम घट घट में बैठा ! एक राम का सकल पसारा, एक राम है सबसे न्यारा। सामान्य बुद्धि से देखें तो यहां चार राम की बात हो गई। इसलिए कि दशरथनंदन राम के जन्म से पहले भी भी राम नाम का अस्तित्व तो था ही न और ऐसा भी नहीं है कि कबीर साहेब से पहले राम के विविध रूपों को लेकर चर्चा न हुई थी। याज्ञवल्यक-भारद्वाज संवाद में प्रसंग आता है। ऋषि भारद्वाज याज्ञवल्यक से पूछ लेते हैं कि दशरथनंदन राम और घट-घट में बैठे राम क्या एक ही हैं? याज्ञवल्यक मुस्कुराते हुए कहते हैं, श्री राम भाव की दृष्टि से दशरथ नंदन हैं और ज्ञान की दृष्टि से घट-घट में समाए हुए हैं। दोनों राम हैं एक ही……पर मैं जानता हूं कि तुम्हें इस बात को लेकर कोई संशय नहीं है। संशय तो सामान्य बुद्धि वालों को होगा और तुम उनकी तरफ से यह सवाल पूछ रहे हो। ताकि इसी बहाने फिर राम जी के गुणों का रसपान भी हो जाए।
भक्तमाल की एक कथा है। ‘रामचरितमानस’ के रचयिता तुलसीदास पास से एक शवयात्रा गुजर रही थी। उसमें दूसरे लोगों के अलावा मृतक की पत्नी भी थी, जिसे धर्म के तहत मान्य सती-प्रथा के अनुसार पति के शव के साथ आत्मदाह करना था। उस स्त्री ने तुलसीदास को दूर से ही प्रणाम किया और उन्होंने उसे सुहागवती रहने का आशीर्वाद दे दिया। इस वजह से वह स्त्री धर्म से विरत हो गई थी। सौभाग्य से यह कथा इस अप्रिय मोड़ पर नहीं खत्म होती। तुलसी ने मामले को अपने हाथ में ले लिया। उन्होंने पूरी जमात को इकट्ठा किया और राम में सच्ची आस्था रखने की प्रेरणा दी। मानो वे शव-यात्रा के दौरान ‘राम नाम सत्य है’ के मर्सिया के सत्य को बताना चाहते थे। जब उन्होंने देखा कि उनकी आस्था सच्ची है, तो वे ब्राह्मण को जीवित करने के उपक्रम में लग गए और उसकी स्त्री को जो आशीर्वाद दिया था, उसे सच कर दिया। उस स्त्री का धर्म बच गया, क्योंकि उसे वास्तव में पति की सेवा का सौभाग्य मिला। इस घटना से लोग चमत्कृत रह गए। तब तुलसीदास ने कहा कि वे कोई चमत्कार नहीं जानते, केवल राम नाम जानते हैं। इस कथा का संदेश यह है कि धर्म की पारंपरिक माँगें भक्ति की नीति से पूरी हो सकती हैं। भक्ति की शक्ति भगवान को प्रकट कर देती है। ।
संत कबीर हों या रहीम, वैदिककालीन ऋषि हों या आधुनिक युग के आत्मज्ञानी संत, किसी ने अलग-अलग राम की बात नहीं की, बल्कि एक ही राम के अलग-अलग गुण-धर्मों का बखान किया। ताकि मानव जीवन धन्य हो सके। तभी कबीर ने सामान्य जनों को संबोधित करते हुए कहा, कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूंढे वन माहि। ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया खोजत नाहि।।….तो दूसरी तरफ रहीम ने कहा, राम नाम जान्यो नहीं, जान्यो सदा उपाधि कहि रहीम तिहिं आपुनो, जनम गंवायो वादि। यानी जिन लोगों ने नाम का नाम धारण न कर अपने धन, पद और उपाधि को ही जाना और राम के नाम पर विवाद खडे किए, उनका जन्म व्यर्थ है। वह केवल वाद-विवाद कर अपना जीवन नष्ट करते हैं।
सबका सार एक ही है कि केवल कथा के राम में उलझे रहने का कोई सार नहीं है। हमें समझना होगा कि भगवान अवतार क्यों लेते हैं? वे असुरों का संहार करके शांति और सद्भाव के लिए ही तो अवतार लेते हैं। फिर, सोचने वाली बात है कि रामायण या रामचरितमानस में जिन कथाओं का वर्णन है, वे केवल भौतिक जगत में ही घटित होते हैं? क्या हमारा जीवन अपने आप में रामायण का रंगमंच नहीं है? सच तो यह है कि हमारे जीवन में रोज-रोज राम-रावण युद्ध चलते रहता है। संत-महात्मा कहते रहे हैं कि योगबल से ही अपने अंतर्मन में चल रहे युद्ध को जीता जा सकता है। लोभ,मोह, क्रोध, अहंकार आदि दुर्गुणों वाले रावण रूपी इंद्रियों का शमन का कोई दूसरा उपाय नहीं। दुर्गुणों के शमन से ही सीता रूपी शांत बुद्धि मुक्त होकर अयोध्या रूपी आत्म-निकेतन में वापस लौट सकती है। इसलिए रामकथा को ऐतिहासिकता के दायरें में ही देखना, हीरा छोड़कर कंकड़ चुन लेने के समान है।
रामचरितमानस की कथा है कि सती जी को श्रीराम के परब्रह्म परमात्मा होने पर संशय हो गया था। क्यों? इसलिए कि शिवजी जिस श्रीराम की आराधना करते हैं, उसका गुण-धर्म ऐसा कैसे हो सकता है कि वह पत्नी के लिए जंगलों में भटके और विलाप करता रहे। सो, सती जी ने सीता समान बनकर श्रीराम के समक्ष प्रस्तुत हो गईं। कोई तर्कशील प्राणी कह सकता है कि सती का सीता रूप धारण कर लेना कवि की कल्पना मात्र हो सकता है। पर हमारे जैसे लोग योगविद्या की शक्ति की गहराइयों का अंदाज भी नहीं लगा सकतें। योगशास्त्र में परकाया प्रवेश विद्या का उल्लेख है। आदिगुरू शंकराचार्य ने कामशास्त्र के ज्ञान के लिए मृत राजा अमरुक के शरीर में प्रवेश किया था। नजीजतन, राजा जीवित हो गया था और अपनी पत्नी के साथ रहने लगा था, जबकि उसमें राजा अमरूक की नहीं, बल्कि शंकराचार्य की आत्मा थी।
विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय, मुंगेर के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती सत्संग में आए लोगों से पूछते थे कि आज हमारे समाज की स्थिति इतनी दयनीय क्यों है? हम इतने महान् होते हुए भी क्यों गिर रहे हैं? विश्व का इतिहास देख लीजिए। जितने ज्ञानी, महात्मा, परमहंस, ऋषि, मुनि तया तत्ववेत्ता इस धरती पर पैदा हुए हैं, उतने और कहीं भी नहीं हुए। हिमालय और कन्याकुमारी के बीच स्थित इस देश में महान् विभूतियों ने जन्म लिया है। इतनी ज्यादा शक्ति होने के बावजूद भी आज इस देश की ऐसी स्थिति क्यों है? फिर वे उत्तर भी देते थे। कहते थे कि इसका मूल कारण ढूंढने से पता चलता है कि आज इस देश का मानव घट-घट व्यापी उस राम को जानने के लिए न तो उत्सुक है और न कोई उपाय ढूँढता है।
खैर, श्रीराम तो परब्रह्म हैं। उनसे क्या छिपा रह सकता है। उन्होंने न केवल सती जी को पहचान कर प्रणाम किया, बल्कि शंकरजी के बारे में भी पूछा। सती जी लज्जित हो गईं। माफी मांगकर वापस लौटने लगीं। पर थोड़ी ही दूर जाकर पीछे मुड़ती हैं तो देखती हैं कि श्रीराम सीताजी और लक्ष्मणजी के साथ खड़े हैं। तब उनका बचा-खुचा संशय भी जाता रहा। भगवान की माया और योगमाया समझ में आ जाती है। सच है कि माया और योगमाया दोनों ही भगवान की शक्तियां हैं। संतजन कहते हैं कि जब हम अपनी वृत्तियों को अंदर से बाहर की ओर ले जाते हैं तो माया या भोग कहलाता है। दूसरी तरफ जब हमारी अंतर्यात्रा होती है तो वह योग होता है। इस प्रसंग से भी प्रेरणा मिलती है कि हम श्रीराम को केवल दशरथनंदन राम ही समझने की भूल न कर दें। उनकी लीलाओं के संदेश मानव जीवन को धन्य कर देने वाले हैं। पर हमारे जीवन में इन संदेशों का प्रस्फुटन योगबल से ही संभव है। स्वयं भगवान श्रीराम ने भी मानव शरीर धारण किया तो अपना मूल स्वरूप जानने के लिए गुरू वशिष्ठ से योगविद्या ग्रहण करनी पड़ी थी।
रामनवमी के मौके पर प्रभु श्रीराम के अवतरण का जश्न मनाइए। पर ध्यान रखिए कि हमारे भीतर भी श्रीराम की शक्ति का उदय होना चाहिए। परंपरा के दुर्भाग्य पर रोने का वक्त गया। हमारी संस्कृति का सौभाग्य है कि हमारे पास शक्तिशाली योगबल है, जिसका सिंचन करके फिर रामराज्य की स्थापना संभव है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योगविज्ञान विश्लेषक हैं।)
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