श्रीमद्भगवत गीता यानी भगवान् श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से निकली हुई दिव्य वाणी। आगामी 11 दिसंबर को इस संजीवनी विद्या के प्रकटीकरण के 5162 साल पूरे हो जाएंगे। उसी दिन भारत सहित विश्व के अनेक देशों में गीता जयंती मनाई जाएगी। सनातन धर्म के अनुयायी पूरे उत्साह से गीता जयंती की तैयारियों में जुटे हुए हैं। इंग्लैंड से लेकर मारीशस तक और अमेरिका से लेकर कनाडा तक में गीता महोत्सव मनाया जाना है। दुनिया भर के इस्कॉन मंदिरों में गीता जयंती की व्यापक तैयारियां हैं। पर हरियाणा के कुरूक्षेत्र, जहां युद्ध के मैदान में कृष्ण द्वारा स्वयं अर्जुन को ‘भगवदगीता’ प्रकट की गई थी, 28 नवंबर से ही अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव मनाया जा रहा है। समापण 15 दिसंबर को होना है। यह महोत्सव अध्यात्म, संस्कृति और कला का दिव्य संगम है, जहां श्रीमद्भगवत गीता के संदेशों को आज के संदर्भ में प्रचारित के लिए विविध कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। अमृतपान के लिए वहां देश-विदेश के लोग पहुंच रहे हैं।
गीता जयंती हम इस बार ऐसे समय में मनाने जा रहे हैं, जब व्यक्ति की नैतिक शक्ति और सिद्धांतों पर दृढ़ता जैसे जीवन को रुपांतरित करने वाले श्रीमद्भगवत गीता के संदेशों को दुनिया भर में प्रचारित करने वाले इस्कॉन के संन्यासी बंगलादेश में पीड़ित और प्रताड़ित किए जा रहे हैं। अच्छी बात यह है कि इससे इस्कॉन के धर्मवीर विषादग्रस्त नहीं हैं। उन्हें याद है कि पांच हजार साल पहले श्रीकृष्ण की शक्ति और धर्म के सहारे ही कुरुक्षेत्र को जीता जा सका था। इसलिए श्रीकृष्ण के संदेशों प्रेरित वे सभी अधर्म के विरुद्ध खुलकर मैदान में हैं। अधर्म के विरुद्ध इस लड़ाई में दुनिया भर में आम जनता की भागीदारी बढ़ती ही जा रही है। अधर्म पर धर्म की जीत होती आई है, होगी भी।
श्रीमद्भगवत गीता के विविध आयामों पर चर्चा से पहले स्वामी विवेकानंद से जुड़े एक प्रसंग की चर्चा यहां प्रासंगिक है। स्वामी विवेकानंद महान स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य तिलक के पुणे स्थित घर पर ठहरे हुए थे। तिलक को अजीब लगता था कि अंग्रेजों का अत्याचार चरम पर है औऱ स्वामी विवेकानंद को राजनीति से दूर-दूर का वास्ता नहीं दिखता। रहा न गया तो उन्होंने पूछ लिया, आप राजनीति के प्रति इतने उदासीन क्यों हैं? स्वामी विवेकानंद ने तपाक से उत्तर दिया – “मैं देशवासियों के प्रति उदासीन नहीं हूं। उनकी पीड़ाएं मुझे सोने नहीं देतीं। परन्तु, मुझे पता है कि भारत की यह समस्या राजनीतिक नहीं है। समस्या है मनुष्य का लोभ और स्वार्थ। समस्या है अहंकार और ऐन्द्रिय भोग की लिप्सा।
हमने पहले अपना धर्म, कर्तव्य, देशप्रेम और बलिदान का आदर्श त्यागा। उसके बाद ही विदेशी आक्रांता आकर हमारी छाती पर बैठ गए। यदि हमारा चरित्र न बदला तो कोई भी राजनीतिक संघर्ष हमें स्वराज्य नहीं दिला सकता। स्वराज्य मिल भी गया और चरित्र न सुधरा, तो पुनः दासता आ घेरेगी। इसलिए समस्या राजनीतिक नहीं, चरित्र की है। हमें इस देश का चरित्र सुधारना होगा और उसका एकमात्र मार्ग है- अध्यात्म। इसलिए मैं राजनीतिक आंदोलन के स्थान पर आध्यात्मिक अभियान का पक्षधर हूँ।“
दरअसल, स्वामी विवेकानंद समय रहते भांप गए थे कि देश के उत्थान के लिए किस तरह के इलाज की जरुरत है। इसलिए उन्होंने सन् 1897 में कलकत्ता प्रवास के दौरान अपने अनुयायियों के बीच गीता की प्रासंगिकता पर जोरदार भाषण दिया था। उन्होंने कहा था – ऐ मेरे बच्चों, यदि तुमलोग दुनिया को यह संदेश पहुंचा सको कि ‘’क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।‘’ तो सारे रोग, शोक, पाप और विषाद तीन दिन में धरती से निर्मूल हो जाएं। दुर्बलता के ये सब भाव कहीं नहीं रह जाएंगे। भय के स्पंदन का प्रवाह उलट दो और देखो, रूपांतरण का जादू।… इस श्लोक को व्यवहार में लाते ही जीवन में क्रांतिकारी बदलाव होगा। संपूर्ण गीता-पाठ का लाभ मिलेगा, क्योंकि इसी एक श्लोक में पूरी गीता का संदेश निहित है।
आजकल जीवन के जैसा उथल-पुथल होता है, वह अर्जुन विषाद से ज्यादा उलझा हुआ मामला जान पड़ता है। अर्जुन जैसा महाज्ञानी विषाद का शिकार हुआ तो स्वयं भगवान को उसे इस स्थिति से उबारने के लिए कितनी कुश्ती करनी पड़ी थी। आज की पीढ़ी को रोग, शोक, पाप और विषाद से कौन बचाए? तमाम युक्तियां आजमाने के बाद गीता ज्ञान से ही बात बनती दिखती है। इसलिए कि गीता का योग तब शुरू नहीं होता जब हम आरामदायक स्थिति में होते हैं, बल्कि योग तब शुरू होता है जब हमारे जीवन में मानसिक स्तर पर उथल-पुथल मचा होता है। गीता उन समस्याओं की बात नहीं करती है, जो मानव जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ हैं। गीता उन समस्याओं की बात करती है, जो मनुष्य में गहराई से निहित हैं और जिनके बारे में मनोवैज्ञानिक बात करते रहे हैं।
दुनिया भर के मनोविज्ञानी से लेकर चिकित्सा विज्ञानी तक इसे कलयुग के लिए किसी संजीवनी विद्या से कम नहीं मानते। उपनिषद और गीता-ध्यान में श्रीमद्भगवत गीता का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है – जितने उपनिषद् हैं, वे मानो गौएँ हैं, श्रीकृष्ण स्वयं दूध दुहने वाले (ग्वाला) हैं, बुद्धिमान् अर्जुन (उन गौओं का पन्हानेवाला) भोक्ता बछड़ा (वत्स) है और जो दूध दुहा गया, वही मधुर गीतामृत है। तभी इस गीतामृत का भारतीय भाषाओं में ही नहीं, बल्कि विदेशी भाषाओं में भी इस ग्रंथ का अनुवाद और उसका विवेचन किया जा चुका है।
अब विचारणीय विषय यह है कि क्या कुछ किया जाए कि श्रीमद्भगवत गीता के संदेशों का अधिकतम लाभ मिल सके? गीता में योग का व्यावहारिक पक्ष कर्म योग, क्रिया के योग से शुरू होता है। पर अगर आप कर्म योग पर जोर देते हैं, यानी आप सिर्फ़ कर्मयोग करते हैं, भक्तियोग नहीं, राजयोग नहीं, ज्ञानयोग नहीं, इसे अपूर्ण योग माना जाएगा। इसलिए, गुरूजन कहते हैं कि गतिशीलता के लिए कर्मयोग, भावनाओं के लिए भक्तियोग, रहस्यवाद के लिए राजयोग या मंत्रयोग या तंत्रयोग और विश्राम के लिए ज्ञानयोग या वेदांत को याद रखें। ध्यान रखें कि गीता पूर्ण योगशास्त्र है। इसमें आध्यात्मिक विकास के अठारह चरण निराशा से आरंभ होते हैं। सृकून देने वाली बात यह है कि श्रीमद्भगवतगीता की स्वीकार्यता तेजी से ब़ढ़ रही है। गीता जयंती की शुभकामनाएं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)