दीपावली के दिन आमतौर पर हम सब क्या करते हैं? आसुरी शक्तियों का नाश और प्रभु श्रीराम के अयोध्या आगमन पर दीपोत्सव की चली आ रही परंपरा का निर्वहन करते हैं। खुद के आध्यात्मिक उत्थान के लिए बृहदारण्यक उपनिषद के मंत्र “ॐ असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर् गमय, मृत्योर् मा अमृतं गमय….” की व्यावहारिक साधना करते हैं और सुख-समृद्धि के लिए लक्ष्मी जी का पूजन करते हैं। कभी कामनाएं फलीभूत होती हैं और कभी नहीं। वैदिक ज्ञान से ज्ञात होता है कि आत्मा अमर है, शरीर नश्वर है और आत्मा का ज्ञान ही अज्ञान से मुक्ति है। अंधकार का मिट जाता है। माया या भ्रम दूर होता है और सुख-समृद्धि का वास्तविक स्वरूप समझ में आने लगता है। तब ईश्वर की कृपा होती है और कामनाएं फलीभूत होती हैं।बात एक कथा से शुरू करते हैं। एक राज्य के प्रधानमंत्री को लक्ष्मी जी में विशेष आस्था थी। वह रोज उनका पूजन किया करता था। पर जीवन में समस्याएं आती रहती थीं। एक बार पूजा करते-करते ऐसी अवस्था को प्राप्त हुआ कि लक्ष्मी जी के साक्षात् दर्शन के लिए बेचैन हो गया। पर लाख कोशिशों के बावजूद लक्ष्मी जी के दर्शन नहीं हो पा रहे थे। प्रधानमंत्री को इससे बड़ी ग्लानि हुई। मंत्र-यंत्र पर से भरोसा उठ गया। उसने संसार की सभी वस्तुओं को त्याग कर सन्यास ले लिया। प्रधानमंत्री का भवन छोड़कर वन में बनाए गए कुटीर में रहने चला गया। पर, पहले दिन ही चमत्कार हो गया। लक्ष्मी जी प्रकट हो गईं।
संन्यासी खुश होने की बजाय बच्चों जैसा व्यवहार करने लगा – “देवी, यहां से चली जाओ। अब मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं है। मैं साधु हूं। साधु को विलासिता, ऐश्वर्य, दौलत और सांसारिक भोगों से क्या मतलब? जब मुझे तुम्हारी जरुरत थी तो आई नहीं, अब मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं है।“ देवी ने उत्तर दिया, “तुमने स्वयं मेरा रास्ता रोक रखा था। जब तक तुम मेरी इच्छा कर रहे थे, तब तक तुम द्वैत का प्रतिपादन कर रहे थे। तब तक तुम अपने को भिखारी बनाए हुए थे और ऐसे मनुष्य को कुछ भी नहीं मिलता। जिस क्षण तुम कामनाओं से परे चले गए, द्वैत न रहा। तुम देवता हो गए…और याद रखो कि गौरव देवताओं के हिस्से की वस्तु है।”
अब जरा अपने देश के संदर्भ में इस कथा का विश्लेषण कीजिए तो एक अलग ही तस्वीर उभरकर सामने आती है। यह तो हम सब जानते ही हैं कि कभी भारत सोने की चिड़िया कहलाता था। यह आज के सम्पूर्ण यूरोप और अमेरिका से भी अधिक धनवान था। यूनान भारत की बदौलत अमीर हुआ। ईरान भारत की बदौलत अमीर हुआ। अफ़ग़ानिस्तान भारत की बदौलत अमीर हुआ और भारत की बदौलत ही इंग्लैंड की समृद्धि बढ़ी। फिर लक्ष्मी जी हमसे रूठ क्यों गईं? चूक कहां हो गई? महान वेदांती परमहंस स्वामी रामतीर्थ कहते थे कि हमने इच्छाओं की पूर्ति का मार्ग बदल दिया। हम याचक बन गए। लक्ष्मी जी रूठ गईं और तामसिक गुणों वाली शक्तियों का वर्चस्व होता गया। यदि व्यावहारिक वेदांत का अभाव न हुआ होता तो आज तस्वीर कुछ और होती। भारत तो वेदान्त और आध्यात्मिकता का घर था, एकता का मूल स्रोत था, ‘सब एक है’ की भावना का मूल-स्थान था। वही भारत, जिससे दैवी ज्ञान, आध्यात्मिक ज्ञान, आत्म-सम्मान, आत्म-ज्ञान, ‘आत्म-गौरव की गंगा बही थी, वही भारत व्यावहारिक वेदांत से हीन हो गया और यही पतन का कारण बना। बिना आध्यात्मिक पतन के किसी राष्ट्र का किसी भी दृष्टि से पतन नहीं हो सकता। इन बातों को व्यावहारिक वेदांत के तौर पर खुद के संदर्भ में किस तरह समझें? इसके लिए जरूरी है कि हमें विचार करना चाहिए कि हमारी आध्यात्मिकता पर भौतिकता कितनी भारी है। बात विज्ञान सम्मत है कि प्रत्येक कामना अपनी पूर्ति अपने साथ लिए रहती है। प्रत्येक अभिलाषा और प्रत्येक संकल्प किसी न किसी समय पूर्ण होने का वचन देता है, पूर्ण होगा। पर, दैनिक जीवन में हमें ऐसा ही अनुभव नहीं होता है। स्वामी रामतीर्थ का कथन हैं कि प्रार्थना का सारांश इस वाक्य में है कि तेरी मर्जी पूरी हो। यानी तू जैसा चाहता है, वैसा ही हो। यही समर्पण है, यही आत्म-त्याग है। तुच्छ आत्मा का उत्सर्ग है। हृदय से निकली हुई प्रार्थनाओं का यही मर्म है। प्रार्थनाओं का अंत केवल स्वार्थपूर्ण कामनाओं में होता है तो उनकी सुनवाई नहीं होती।
स्पष्ट है कि भावनाओं का परिष्करण करके ही हम अपने जीवन को आनंदमय बना सकते हैं। कलयुग के अनुरूप दीपावली की वैदिक व्याख्या और मानव की आध्यात्मिक उन्नति के लिहाज से संतों ने बृहदारण्यक उपनिषद के मंत्र “ॐ असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर् गमय, मृत्योर् मा अमृतं गमय….” के व्यावहारिक पक्ष की साधना पर बहुत जोर दिया है। ताकि हमारे अज्ञान का अंधेरा मिटे और आत्म-प्रकाश से जीवन आनंदमय हो जाए। महर्षि अरविंद से जुड़ा एक प्रसंग है। उनके किसी छात्र ने अपनी कॉपी में असतो मा सद्गमय…..मंत्र लिखकर उसका प्रचलित अर्थ लिखा – हमें अज्ञान से ज्ञान की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर और मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो। महर्षि अरविंद की इन पंक्तियों पर नजर गई तो उन्होंने लिख दिया – तथास्तु यानी ऐसा ही हो! साथ ही मंत्र को और स्पष्ट किया – “हमें अवास्तविकता (क्षणभंगुर अस्तित्व) से वास्तविकता (शाश्वत आत्मा) की ओर ले चलो, हमें अंधकार (अज्ञान) से प्रकाश (आध्यात्मिक ज्ञान) की ओर ले चलो और हमें मृत्यु के भय से अमरता के ज्ञान की ओर ले चलो।“
यहाँ, यह “अवास्तविक” शब्द किसका प्रतीक है? यह भ्रम (माया) की दुनिया की बात है। दूसरी पंक्ति में अंधकार से अभिप्राय बाह्य अंधकार से नहीं है, बल्कि उस अंधकार की बात है जो हमारे भीतर क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, अहंकार और आसक्ति के रुप में घनीभूत है। इसी के कारण अज्ञान के बादल से दिव्य प्रकाश ढंका रह जाता है और अंधकार मिट नहीं पाता। अंतिम पंक्ति में अमरता की बात है। हम सभी जानते हैं कि मृत्यु एक अपरिहार्य सत्य है। पर गुरुजन बताते हैं कि जो स्वयं को साकार करके शाश्वत जीवन प्राप्त कर लेता है, वह जीवित रहते हुए अमरता का अनुभव करने में सक्षम है। तो आइए, दीपावली के मौके पर यौगिक शक्तियों के सहारे खुद का दीपक बनकर जीवन को रूपांतरित करें।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)
हरि ॐ तत्सत 🙏