अध्यात्म जीवन को नियंत्रित नहीं, बल्कि रूपांतरित कर देता है। दुनिया भर में यह समझ जैसे-जैसे बढ़ रही है, फिल्मकारों की रूचि भी इन विषयों में बढ़ती जा रही हैं। आध्यात्मिक फिल्मों के निर्माण के प्रति बढ़ती रूचि को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। हाल ही भारत में एक फिल्म रिलीज हुई है – कर्तम् भुगतम्। यानी जो जैसा करेगा, वैसा ही फल पाएगा। हालांकि इस फिल्म में कर्म सिद्धांतों पर उस तरह फोकस नहीं है, जैसा कि किसी आध्यात्मिक साधक की अपेक्षा हो सकती है। इस फिल्म में जादू-टोने से अगाह करते हुए बताने की कोशिश है कि कर्मों का लेख मिटता नहीं। उसे भोगना ही होता है। पर हमें इस बात से ही संतोष है कि बॉलीवुड के फिल्मकार आध्यात्मिक विषयों पर अधिक फिल्में बनाने की ओर प्रवृत्त तो हो रहे हैं।
वैसे तो बीते पचास-साठ दशकों में बॉलीवुड में आध्यात्मिक विषयों पर कई फिल्में बन चुकी हैं, जिनमें से कुछ को आम दर्शकों के साथ ही आध्यात्मिक साधकों की भी खूब सराहना मिली थी। जैसे, संत ज्ञानेश्वर, जय संतोषी मॉ, स्वामी विवेकानंद आदि। पर 21वीं सदी के प्रारंभ से ही रावण, ब्रह्मास्त्र, कलियुग, अवतार आदि फिल्मों के अलावा डक्युमेंट्रीज और टेलीफिल्मों के निर्माण की रफ्तार में आई तेजी सुखद है। एक तरफ भारत के अलावा विशेष रूप से पश्चिमी देशों में आध्यात्मिक फिल्में बन रही हैं तो दूसरी ओर योग व अध्यात्म के विभिन्न आयामों पर बड़े पैमाने पर वैज्ञानिक शोध किए जा रहे हैं। योग व आध्यात्मिक साधकों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है।
बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वमी सत्यानंद सरस्वती ने तीन दशक पहले ही कहा था कि उन्हें भविष्य की स्पष्ट झलक मिली है कि 21वीं शताब्दी भक्ति की शताब्दी होगी। उसका आधार शुद्ध वैज्ञानिक होगा। भारत ही नहीं, दुनिया भर में बच्चे भी वैज्ञानिक आध्यात्मवाद में रूचि लेंगे। पूछेंगे कि मीराबाई जहर पी कर भी जिंदा कैसे रह गई थीं? अब लगता है कि वह समय आ गया है। ऐसे में फिल्म उद्योग में भी योग और अध्यात्म पर ज्यादा गंभीर कार्य करने की जरूरत आ पड़ी है। फिल्मकारों को सोचना होगा कि मसाला फिल्मों की तरह ही आध्यात्मिक फिल्में परोसने से बात नहीं बनने वाली।
मीराबाई की तरह एक प्रसंग अनुधुनिक युग में भी घटित हो चुका है और वह भी वैज्ञानिकों की मौजूदगी में। कलकत्ते के एक वैज्ञानिक को झारखंड के मधुपुर में नरसिंह स्वामी नामक एक संन्यासी मिल गए थे। उनका कहना था कि आधुनिक विज्ञान की योग और अध्यात्म की गहराइयों तक शायद ही पहुंच बन पाएगी। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि वे पोटेशियम साइनाइड पी कर भी जीवित रह सकते हैं। वैज्ञानिक ने उनकी चुनौती स्वीकार कर ली। नरसिहं स्वामी कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में विख्यात वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता सर सीवी रमण की मौजूदगी में सल्फ़्यूरिक एसिड और कार्बोलिक एसिड से लेकर पोटेशियम साइनाइड तक पी गए। पर उनका बाल बांका नहीं हुआ। तीन घंटे बाद कोलकाता के चिकित्सकों ने नरसिंह स्वामी के पेट से सारे जहरीले पदार्थ वापस निकाल लिए थे। तब सर सीवी रमण को कहना पड़ा था कि यह आधुनिक विज्ञान के लिए चुनौती है। जाहिर है कि ऐसे विषयों पर अगंभीर बातों से काम नहीं चलेगा। यदि आध्यात्मिक फिल्में शास्त्रों के अनुरूप और वैज्ञानिक शोधों आलोक में न हुईं तो आध्यात्मिक रूप से जागृत होती पीढ़ी शायद ही उन्हें स्वीकार कर पाएंगी।
पश्चिमी देशों ने इस बात को शिद्दत से समझा है। अमेरिकी इतिहास में पहली बार वहां के सार्वजनिक टेलीविजन चैनल पर स्वामी विवेकानंद के संदेशों पर आधारित फिल्म “अमेरिकाज फर्स्ट गुरू” प्रदर्शित की गई है। खास बात यह कि इस फिल्म का निर्माण भारतीय फिल्मकार ने किया है। यह किसी मसाला फिल्मों की तरह नहीं, बल्कि गंभीर और शोधपूर्ण फिल्म है, जिसे हर वर्ग के दर्शकों से सराहना मिल रही है। सच तो यह है कि पश्चिमी देशों में हाल के दशकों में आध्यामिक विषयों पर अनेक गंभीर फिल्में बन चुकी हैं। उन फिल्मों की कहानी की शास्त्रीय व्याख्या को लेकर कभी हमारी अहसमिति हो सकती है। पर उनकी दृष्टि से फिल्म को स्तरीय और अर्थपूर्ण बनाए रखने में कोई कोताही नहीं दिखती। इस संदर्भ में इट्स ऑल अबाउट कर्मा, क्लाउड एटलस, द गुड प्लेस आदि फिल्मों के नाम उल्लेखनीय हैं।
वैदिक ग्रंथों में पुनर्जन्म और कर्म सिद्धांतों की विशद व्याख्या है। पुनर्जन्म भारतीय संस्कृति का मुख्य आधार है। भारतीय दर्शन शरीर को नश्वर एवं आत्मा को अमर मानता है। सांख्य के प्रथम सूत्र के अनुसार पुनर्जन्म के कारण ही आत्मा का शरीर, इंद्रियों तथा विषयों से संबंध जुड़ते रहते हैं। न्यायदर्शन के अनुसार जीव को सुख-दुःख के भोगों के लिए बार-बार एक शरीर से दूसरे शरीर में भटकना पड़ता है। इसलिए आद्य शंकराचार्य ने कहा है, ‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।’ आत्मा अपने पूर्वजन्म के प्रबल संस्कारों को लेकर पुनः शरीर धारण कर लेती है। इसी को पुनर्जन्म कहते हैं। पुनर्जन्म और कर्मफल के सिद्धांतों से अब भारत ही नहीं, बल्कि ज्यादातर देशों के लोग इत्तेफाक रखने लगे हैं। तभी पश्चिमी देशों में इन विषयों को लेकर हजारों पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। भारत में तो श्रीमद्भगवतगीता और रामायण से लेकर योग उपनिषदों तक में पुनर्जन्म और कर्म सिद्धांत वर्णन है। रामचरितमानस में कहा गया है – कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा।
पर दूसरी तरफ संतों का अनुभव रहा है कि योग विद्या में इतनी शक्ति है कि शूल की पीड़ा को सुई में बदला भी जा सकता है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहा करते थे कि मनुष्य जैसे-जैसे उच्चतर चेतना का विकास करता जाता है, भाग्य के लेखों और कर्मों का वह क्रमश: अतिक्रमण करता जाता है। भविष्य पर शोध करने वाले प्रख्यात डॉ. एडमर मिटहेल का मत है कि मस्तिष्कीय वैचारिक तरंगों के बदलने से भविष्य की क्रियाओं को बदला जा सकता है। अर्थवेद का संदेश है – “यह हाथ ही भगवान है। यह भगवान से भी बलवान है। कर्म ही भाग्य है। कर्म का कारण और फल दोनों हाथ में है।“ श्रीमद्भगवतगीता का संदेश भी ऐसा ही है। इसलिए, इन आध्यात्मिक संदेशों को ध्यान में रखते हुए कर्मयोग की विभिन्न पहलुओं पर गंभीर फिल्मों का निर्माण युवापीढ़ी के लिए अर्थपूर्ण होगा। उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाले दिनों में इस दिशा में गंभीर काम होंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)