रंग है, गुलाल है। मस्ती है, आनंद है। सतरंगी उत्सव है, उल्लास का महोत्सव है। तभी ब्रज की मस्ती भरी होली हो, महाराष्ट्र की मटकी होली हो या बरसाने की लट्ठमार होली, सभी का अंतर्निहित भाव एक है। वह है – आत्मा का परमात्मा से मिलन। इसे ही बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में भी देखा जा सकता है। शास्त्रों में उल्लेख है और संत-महात्मा अपने अनुभवों के आधार पर कहते रहे हैं कि सात्विक गुणों में अभिवृद्धि होती है तो अंतर्मन में प्रेम और श्रद्धा का दीपक जलता है। ऐसे मन में ही आनंद का आविर्भाव होता है और जीवन उत्सव बन जाता है।
होली से जुड़ी जितनी भी कथाएं हैं, वे आध्यात्मिक दृष्टिकोण बड़े अर्थपूर्ण हैं। होली की शुरुआत होलिका दहन से होती है। भक्त प्रह्लाद और दुष्ट हिरण्यकशिपु की कहानी में होलिका का दहन इस बात का प्रतीक है कि सत्य और भक्ति की शक्ति अंततः अधर्म और अहंकार को परास्त कर देती है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से यह अग्नि हमारे भीतर की नकारात्मकता—क्रोध, ईर्ष्या, भय, और अहंकार—को जलाने का संदेश देती है। होलिका दहन आधुनिक संदर्भ में भी उतना ही प्रासंगिक है जितना प्राचीन काल में था। आज की तेज-रफ्तार जिंदगी में तनाव, नकारात्मक भावनाएँ (क्रोध, ईर्ष्या, चिंता), और मानसिक बोझ आम हैं। होलिका दहन को एक प्रतीकात्मक अवसर के रूप में देखा जा सकता है, जहाँ व्यक्ति अपनी इन कमियों को “जलाने” का संकल्प लेता है।
प्राचीन काल में होलिका दहन की शुरुआत “बैठी होली” से जाती रही है। इस दौरान लोग एक वृक्ष के नीचे या खुले स्थान पर इकट्ठा होते थे। छोटे-छोटे अलाव जलाते थे और होली की तैयारी करते थे। इसमें भजन-कीर्तन, लोक गीत, और सामुदायिक गतिविधियाँ शामिल होती थी। इसके साथ ही अपने अवगुणों, अपनी कमजोरियों को पहचान कर उसे भावपूर्वक या लिखित रूस से होलिका दहन की अग्नि में प्रवाहित करते थे। कालांतर में सुविधानुसार इस प्रथा को या तो त्याग दिया या फिर इसमें आमूल-चूल बदलाव कर दिया। अब हम अपनी नकारात्मक भावनाओं के बदले अन्य कर्मकांड करके अपने कर्तव्य की इतिश्री करते हैं। जबकि प्राचीन समय में होलिका की आग में अपनी बुरी आदतों या नकारात्मक विचारों को जलाना आत्म-शुद्धि की दिशा में पहला कदम माना जाता था। बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि “आंतरिक अज्ञानता को जलाने” के इस महान अवसर का लाभ उठाना चाहिए। यह मनोवैज्ञानिक “कैथार्सिस” की तरह काम करेगा, जो मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी है।
होलिका दहन की घटना एक और महान संदेश देती है। भागवत पुराण के सातवें स्कंध की कथा के मुताबिक, हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु जब गर्भवती थी, तो देवताओं ने उसे बंदी बना लिया था। तब नारद मुनि ने उसे अपने आश्रम में शरण दी। इसलिए कि उन्हें पता चल चुका था कि कयाधु के गर्भ में एक महान विष्णु भक्त (प्रह्लाद) पल रहा है। उसी दौरान नारद मुनि ने कयाधु को भगवान विष्णु के मंत्र, भजन, और उपदेश सुनाए। गर्भ में पल रहे प्रह्लाद ने ये मंत्र सुने और जन्म से पहले ही विष्णु भक्त बन गया था। फिर क्या हुआ? उसे मारने के हिरण्यकशिपु के तमाम उपाय नाकाम होते गए। यहां तक कि फायर प्रूफ बहन होलिका ही जलकर भस्म हो गई और प्रहलाद भगवान का नाम गाते हुए अग्नि की ज्वाला से सुरक्षित बच निकले।
इस प्रसंग के अलावा अन्य पौराणिक साक्ष्यों जैसे अभिमन्यु, अष्टावक्र, और श्री राम की कथाएँ प्रमाणित करती हैं कि गर्भ में पल रहे बालक पर मंत्रों का प्रभाव पड़ता है। ये मंत्र शिशु की चेतना को जागृत करते हैं, पिछले जन्मों के ज्ञान को उजागर करते हैं, और जन्मजात गुणों को आकार देते हैं। यह भारतीय दर्शन में इस विश्वास को बल देता है कि आत्मा गर्भ में भी सक्रिय और ग्रहणशील होती है, और मंत्रों की शक्ति उसे आध्यात्मिक रूप से समृद्ध कर सकती है। अब तो न्यूरोसाइंस का भी मत है कि गर्भ में 24वें सप्ताह से शिशु की श्रवण प्रणाली विकसित हो जाती है। वह माता की आवाज और बाहरी ध्वनियों को सुन सकता है। मंत्रों की लय और कंपन मस्तिष्क में सकारात्मक न्यूरल पैटर्न बना सकती हैं। अजन्मे शिशुओं को बेहतर संस्कार देने के दृष्टिकोण से भी यह प्रेरक प्रसंग है।
अब बात होली के आध्यात्मिक महत्व की। योगियों की मानें तो होली केवल बाहरी रंगों का खेल नहीं, बल्कि जीवन को आंतरिक रंगों से सजाने और नकारात्मकता को त्यागने का अवसर है। रंगों और चक्रों का संबंध गहरा है। कुंडलिनी योग के मुताबिक, सात चक्र मानव शरीर के ऊर्जा केंद्र हैं, और प्रत्येक चक्र एक विशिष्ट रंग से जुड़ा है। जैसे, लाल रंग मूलाधार चक्र का प्रतीक है, जो जीवन शक्ति और ऊर्जा को जागृत करता है। इसे आध्यात्मिक नजरिए से देखें तो यह आत्म-जागरूकता, संतुलन, और ब्रह्मांड के साथ एकाकार होने का मार्ग है। होली में रंगों का प्रयोग इस प्रतीकात्मकता को जीवंत करता है, और हमें जीवन को पूर्णता और आनंद से जीने की प्रेरणा देता है। ध्यान और योग के अभ्यास में इन रंगों का उपयोग चक्रों को सक्रिय और शुद्ध करने का एक प्रभावी तरीका माना जाता है।
अब राधा-कृष्ण से जुड़े प्रसंग पर आइए। श्याम वर्ण वाले श्री कृष्ण का गोरी राधा रानी को अपने ही रंग में रंग देना भी बड़ा अर्थपूर्ण है। यह भक्ति योग का चरम है, जहाँ भक्त अपनी पहचान खोकर ईश्वर में समां जाता है। इस्कॉन के संस्थापक श्रील प्रभुपाद इसे “कृष्ण-चेतना” में डूबने का प्रतीक मानते थे। क्यों? क्योंकि यह सिखाता है कि सच्चा प्रेम स्वयं को दूसरे में विलीन कर देता है। राधा – कृष्ण का प्रेम इतना गहरा था कि उनकी पहचान एक हो गई – “राधा-कृष्ण” एक नाम बन गया। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के अनुसार, श्रीकृष्ण का नीला रंग विशुद्धि चक्र (संचार और सत्य) और आज्ञा-चक्र (अंतर्ज्ञान) से जुड़ा है। राधा को यह रंग देना उनकी चेतना को इन उच्च स्तरों तक ले जाना है।
इस तरह, होली हमें आत्म-निरीक्षण का अवसर देती है। यह त्यौहार हमें प्रेरित करता है कि सत्वगुणों का विकास करके प्रेम की गंगा ऐसे बहाना है कि मानवता को कलंकित करती आसुरी प्रवृत्तियों के लिए जीवन में कोई स्थान न रह जाए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)