चार दिवसीय लोक आस्था का महापर्व छठ कल यानी पांच नवंबर को नहाय-खाय के साथ प्रारंभ हो जाएगा। पर, शारदा सिन्हा के सुमधुर छठ गीतों से बीते कई दिनों से पूरा वातावरण गूंजायमान है। ये वही शारदा सिन्हा हैं, जो कोई चार-पांच दशकों से छठ व्रतियों के दिलों पर राज कर रही हैं और जिन्हें पद्मश्री से लेकर पद्मभूषण तक का सम्मान मिल चुका है। हाल के वर्षों में अनेक गायकों ने छठ पूजा के गीत गाए और उनके एलबम जारी किए गए। पर, शारदा सिन्हा के गीतों के बिना बात बनती नहीं। सब कुछ सूना-सूना लगता है। यह कहना गलत न होगा कि छठ महापर्व के प्रति लोक आस्था को दृढ़ बनाने में शारदा सिन्हा के गीतों की भी बड़ी भूमिका रही है। इसे विडंबना ही कहिए कि एक तरफ जहां शारदा सिन्हा के स्वर छठ व्रतियों के घरों में गूंज रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ खुद शारदा सिन्हां दिल्ली के एम्स में जीवन के कठिनतम दौर से गुजर रही हैं। सूर्यदेव की कृपा बरसे और वह स्वस्थ हो जाएं, यही प्रार्थना है।
हम जानते हैं कि इस महापर्व की शुरूआत बिहार से ही हुई थी। पर ऐसा संयोग कैसे बना? नई पीढ़ी के युवा इस तरह के सवाल करते मिल जाते हैं। इसमें दो मत नहीं कि वैदिक काल से की जा रही सूर्योपासना ही छठ महापर्व का आधार बनी थी। इसे चलन में आने के सवाल पर अलग-अलग तर्क दिए जाते रहे हैं। एक कथा है कि दानवीर राजा कर्ण की सूर्योपासना से प्रभावित होकर छठ पूजा की शुरूआत हुई थी। दानवीर कर्ण अंग प्रदेश के राजा थे, जिसमें आज का पूरा बिहार समाहित था। शास्त्रों में उल्लेख है कि वे सूर्य के पुत्र थे। वे बिहार के मुंगेर स्थित उत्तरवाहिनी गंगा में नियमित रूप से स्नान करने के बाद मंत्रोच्चारण के साथ सूर्य की उपासना किया करते थे। वे खुद तो सूर्य की आराधना करते ही थे, प्रजा को भी सूर्य की शक्तियों के बारे में बतलाते थे। लोग उनकी बातों को आजमाते थे और लाभान्वित भी होते थे। इससे सूर्योपासना में आस्था बढ़ती चली गई। कालांतर में लोग सूर्य षष्ठी व्रत करने लगे। वही बाद में छठ पूजा के रूप में प्रचलित हुआ।
दूसरी कथा ब्रह्मवैवर्त पुराण पर आधारित है। उसके मुताबिक, जब भगवान ने दुनिया का निर्माण किया, तो उन्होंने पुरुष और प्रकृति के द्वैत का भी निर्माण किया। फिर प्रकृति को कई तत्वों में विभाजित किया गया, जिनमें से छठे भाग को षष्ठी और बोलचाल की भाषा में छठी कहा गया। नाम देवसेना रखा गया। भगवान कार्तिकेय की पहली शादी उन्हीं से हुई थीं। कथा है कि स्वयंभु मनु के पुत्र राजा प्रियव्रत, जिनकी राजधानी मौजूदा बिहार के किसी भू-भाग में थी, संतानहीन थे। पुत्रकामेष्ठी यज्ञ किया तो रानी ने बच्चे को जन्म दिया। पर बच्चा मृत पैदा हुआ। रानी इस बात से दु:खी हो कर आत्महत्या करने नदी के तट पर पहुंच गईं। तभी देवसेना/षष्ठी प्रकट हुईं और सलाह दी कि वह सूर्यदेव की पूजा करें। इच्छित फल अवश्य मिलेगा। रानी ने ऐसा ही किया और इच्छित फल मिला भी। कहते हैं कि तभी से छठ पूजा की शुरुआत हुई।
वैसे, छठ पूजा चाहे जब भी और जिन परिस्थितियों में शुरू हुई हो। पर यह शास्त्रसम्मत है कि वैदिक काल से आध्यात्मिक चेतना के एक परम शक्तिशाली प्रतीक के रूप में सूर्योपासना की जाती रही है। भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में। सूर्य की आध्यात्मिक और वैज्ञानिक महत्ता का उल्लेख वैदिक ग्रंथों में विस्तार से है। वेदों में गायत्री मंत्र के रूप में सविता अर्थात् सूर्यदेव से ही ज्ञान प्रदान करने और अंधकार से निकालकर प्रकाश में ले जाने की प्रार्थना की गई है। प्रमुख उपनिषदों में सूर्योपनिषद का विशिष्ट स्थान है। उसमें कहा गया है कि जो व्यक्ति सूर्य को ब्रह्म मानकर उपासना करता है, वह शक्तिशाली, क्रियाशील, बुद्धिमान और दीर्घजीवी होता है।
वृहदारण्यक उपनिषद् में भी सूर्य की महिमा का बखान यह कहते हुए किया गया है कि उसके प्रकाश में इतनी शक्ति है कि वह मनुष्य को बुद्धि और विवेक से लेकर अमरत्व तक प्रदान कर सकता है। सौर पुराण में तो यहां तक कहा गया है कि जो व्यक्ति सौर पुराण का केवल एक ही श्लोक का नियमित पाठ करता है, वह तमाम पापों से मुक्त होकर सूर्यदेव के पद को प्राप्त करता है। श्रीराम, रामभक्त हनुमान और पांडवों से जुड़ी पौराणिक कथाएं भी सूर्यदेव की आराधना और उसकी मह्त्ता पर प्रकाश डालती हैं। कथा है कि जब रावण को मारना बिल्कुल असंभव लगने लगा तो महर्षि अगस्त्य की सलाह पर भगवान श्रीराम ने युद्धभूमि में रावण का वध करने से पूर्व तीन बार भगवान सूर्यदेव के आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ भी किया था और इसके बाद ही रावण मारा जा सका था।
इन तथ्यों के आधार पर भी कहा जा सकता है कि छठ महापर्व इस युग में वैदिककालीन सूर्य उपासनाओं की एक प्रमुख विधि है, जिसकी लोक कल्याण की दृष्टि से महिमा अपरंपार है। सदियों से एक निश्चित विधि से छठ पूजा की जाती रही है। पर, इसके साथ ही सूर्यदेव का विधिपूर्वक ध्यान करना विशेष फलदायी हो सकता है। वैदिक ग्रंथों में सूर्यदेव की जैसी कल्पना की गई है, उसके आधार पर ध्यान की विधि कुछ इस तरह बनती है – कल्पना करनी चाहिए कि सूर्यदेव सूर्यमंडल के मध्य कमलासन पर बैठे हैं। उन्होंने भुजाओं में बाजूबन्द, कानों में मछली की आकृति के कुण्डल और सिर पर मुकुट धारण किया हुआ है। उनके कण्ठ पर हार सुशोभित है। उनके शरीर की चमक सुवर्ण जैसी है। हाथों में शंख और चक्र है। सोने से सजे हुए रथ का एक ही पहिया है और हाथ में कमल है। फिर किसी सूर्य मंत्र का जप करते हुए प्रार्थना करनी चाहिए। जैसे, ॐ ह्रीं ह्रीं सूर्याय नमः या ॐ घृणिः सूर्याय नमः।
मंत्रों की वैज्ञानिकता पर पहले ही कई बार लिख चुका हूं। गुरुजन कहते हैं कि अर्थ मंत्र का प्राण नहीं है। मंत्र का प्राण है उसका उच्चारण और उसकी ध्वन्यात्मक सृष्टि। अर्ध्यदान को भी सूर्योपासना का महत्वपूर्ण अंग माना जाता है। इसलिए छठ पूजा में अर्ध्य का बड़ा महत्व है। आइए, छठ महापर्व के मौके पर सूर्यदेव की ध्यानपूर्वक आराधना के जरिए अपनी अंतर्निहित शक्तियों को जागृत करके आनंदमय जीवन प्राप्त करें।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)