मिनी सहाय //
जीवन में खुशी मिले, आनंद मिले, यह कौन नहीं चाहता। जीवन-शैली जैसी भी हो, कर्म जैसा भी हो, पर खुशी और आनंद की इच्छा तो सबकी रहती है। पर जीवन में खुशियां कैसे मिले? यह अक्सर बड़ा प्रश्न बन जाता है। वैदिक ग्रंथों में विस्तार से वर्णन मिलता है कि हमारे जीवन में दु:ख क्यों होता है और किस विधि प्रसन्न रहा जा सकता है। ऋषि-मुनि सदियों से देश-काल के लिहाज से प्रसन्नता के सूत्र देने की कोशिश करते रहे हैं। लोभ, मोह, काम और क्रोध में फंसा मानव अमृत को त्याग कर विष पीता है। यह जानते हुए कि भौतिकतावाद दु:खों के मूल में है। वरना, आदमी भौतिक साधनों की प्रचूरता के बावजूद दु:खी क्यों रहता?
आधुनिक विज्ञान का निष्कर्ष है कि हैप्पी हार्मोन्स जैसे डोपामाइन, सेरोटोनिन, एंडोर्फिन और ऑक्सीटोसिन की प्रतिक्रियाओं की वजह से हमारी मानसिक स्थिति ऐसी हो जाती है कि हम कभी खुशी और कभी गम का अनुभव करने लगते हैं। पर इन हार्मोन्स की ऊर्जा का प्रवाह सही दिशा में हो इसके स्थायी उपाय वही हैं, जो वैदिक और यौगिक सूत्रों से हमें प्राप्त होते हैं। पर केवल बुद्धि-विलास से बात नहीं बनती। योग हमें विधियां देता है, जिन्हें अमल में लाकर जीवन को रूपांतरित कर पाना संभव होता है। इसलिए कहा गया है कि योग जीवन जीने की कला है और इसे हर किसी को अपने जीवन का हिस्सा अनिवार्य रूप से बनाना चाहिए।
यद्यपि योग की पूर्णता उसके अभ्यास पर निर्भर है। पर उसके दार्शनिक पक्ष को समझ लेने से योग के प्रति स्पष्ट दृष्टि मिल जाती है। इसलिए, पहले योग का दार्शनिक पक्ष। श्रीमद्भागवत् गीता के दूसरे अध्याय के 48वें श्लोक में कहा गया है – “समत्वं योग उच्चयते।” समत्व ही योग है। अर्थात हम सबके साथ एक समान व्यवहार करते हैं, सद्भावनापूर्ण व्यवहार करते हैं, प्रेमपूर्ण व्यवहार करते हैं और हर परिस्थिति में सम-भाव रखते हैं, चाहे सुख हो या दु:ख हो, सर्दी हो या गर्मी तो समझिए जीवन योगमय है। दूसरा सूत्र है – “योग: कर्मशु कौशलम्।”(2/50) यानी कर्म की कुशलता भी योग है। यदि हम कार्यों को व्यक्तिगत फल की आकांक्षा किए बिना कुशलतापूर्वक करते हैं, जैसे देश की रक्षा के लिए सीमा पर सेना पूरी कुशलता से अपने कार्यों को करती है, तो यह भी योग है। कर्मयोग है।
अब योग के व्यावहारिक पक्ष को समझते हैं। महर्षि पतंजलि ने 400 ई.पूर्व योगसूत्रों की रचना की थी। उन्होंने प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र में ही कहा है – “अथ योग अनुशासनम्।”(1/1) यानी योग-मार्ग पर आगे बढ़ना है तो हमें इस संकल्पना के साथ योगाभ्यास प्रारंभ करना होगा कि हमारा जीवन अनुशासित रहेगा। फिर अगले ही सूत्र में कहा गया है -“योगश्चितवृत्तिनिरोध:।”(1/2) चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। यानी हमारे मानस पटल पर जो असंख्य निरर्थक विचार उभरते रहते हैं, उनसे मुक्ति पाए बिना योग-मार्ग में किसी उपलब्धि की उम्मीद नहीं की जा सकती है।
मतलब यह कि जीवन में अनुशासन लाकर यौगिक अभ्यासों की बदौलत चित्त वृत्तियों का निरोध करके ही प्रसन्नता के सूत्रों को जीवन में उतारना संभव होगा। यदि हमारी ऐसी तैयारी है तो महर्षि पतंजलि बतलाते हैं –
मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्॥
यानी जो चित्त प्रसादनम् के रूप में है, उसे अपना कर स्वयं को प्रसन्न रख सकते हैं। पर इसके लिए किन प्रक्रियाओं से गुजरना होगा? महर्षि पतंजलि के मुताबिक, संसार में चार श्रेणियों के लोग होते हैं। पहली श्रेणी में वे हैं, जो सदैव प्रसन्न हैं। दूसरे वे लोग हैं जो दुखी रहते हैं । तीसरी तरह के लोग वे हैं जो कुछ अच्छा काम कर रहे होते हैं। चौथी तरह के लोग उतने अच्छे काम नहीं या बुरे काम कर रहे होते हैं। महर्षि पतंजलि चारों श्रेणियों के लोगों के प्रति एक निश्चित प्रकार की भावना का अभ्यास करने का परामर्श देते हैं। वे कहते हैं कि सुखी मानव के प्रति मित्रता की भावना, दु:खी मानव के प्रति करुणा की भावना, पुण्यात्मा के प्रति प्रसन्नता की भावना और पापात्मा के प्रति उपेक्षा की भावना रखनी चाहिए। ऐसा करने से चित्त के राग, द्वेष, घृणा, ईर्ष्या और क्रोध आदि मलों (विकारों) का नाश हो जाता है।
सुखी मनुष्यों को देख कर उनके प्रति मित्रता की भावना रखने से राग तथा ईर्ष्या आदि मलों की निवृत्ति होती है। दूसरे शब्दों में, हम जब मित्र की खुशी में अपनी खुशी तलाश लेते हैं तो मानसिक प्रतिक्रियाएं बदल जाती हैं और हैप्पी हार्मोन अपना काम करने लगता है। इसलिए, जब हमारा मित्र कोई ट्राफी जीतता है और उसकी खुशी को हम अपनी खुशी मानते हैं, तो स्वत: ही हमारे मन से ईर्ष्या आदि विकार दूर हो जाते हैं। हमें अपार हर्ष का अनुभव होने लगता है।
दु:खी मनुष्यों के साथ करुणा या दया की भावना रखने से घृणा रुपी मल (विकार) की निवृत्ति होती है। इसलिए कि ऐसी भावना उपजते ही अपने दिल से जानिए, पराए दिल का हाल वाली कहावत चरितार्थ होने लगती है। नतीजतन, हम सहज ही सहयोग में खड़े हो जाते हैं। इस प्रकार की करुणामयी भावना से घृणा की भावना से निवृत्ति मिल जाती है और हमारा मन प्रसन्न हो जाता है। पुण्यात्माओं के संपर्क में आते ही हमारे भीतर उनके प्रति श्रद्धा उपजता है। धर्मानुकूल व्यवहार होने लगता है। यानी सत्व गुणों की प्रधानता बढ़ जाती है। इससे असूया (दूसरों पर दोषारोपण) रुपी विकारों का नाश हो जाता है।
पापी मनुष्य की उपेक्षा करने से द्वेष तथा बदला लेने की चेष्टा आदि विकारों का नाश हो जाता है। ऐसी अवस्था तब उपन्न होती है, जब पापी व्यक्ति हमारा किसी प्रकार से अपमान करता है और हमारे मन में विचार आता है कि वह व्यक्ति अपना ही हानि कर रहा है। ऐसे में मैं उसके प्रति द्वेष या घृणा करके स्वयं को क्यों दूषित करूं। ऐसा विचार आते ही चित्त शुद्ध होता है और मन प्रसन्न हो जाता है।
मेरे विचार से वर्तमान समय में प्रथम और चतुर्थ श्रेणी के अभ्यासों आवश्यकता सबसे अधिक है, क्योंकि दुःखी व्यक्ति के प्रति करुणा और पुण्यात्मा के प्रति प्रसन्नता का भाव तो सामान्य रूप से उपजता ही है। पर दूसरों की खुशी से खुश होना और पापियों के साथ प्रतिशोध की भावना से विमुख होना प्राय: मुश्किल होता है। इसलिए, महर्षि पतंजलि की प्रसन्नता के इन दो सूत्रों को आत्मसात किए जाने की जरूरत पहले की तुलना में कहीं ज्यादा है।
(लेखिका योगाचार्य हैं)