परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती //
योगी की दृष्टि में सौ फीसदी बीमारी मन से उत्पन्न होती है। यह ठीक है कि बीमारियों में परिस्थिति, परिवेश और प्रदूषण सबका योगदान होता है। पर यह कुप्रभाव भी तब होता है जब मन कमजोर पड़ जाए। मधुमेह रोग नहीं है। यह तो चिकित्सकों द्वारा दिया गया नाम है। हमलोगों के भीतर जन्म से ही काम, क्रोध, ईर्ष्या, राग, व्देष, मोह, लोभ आदि है। रोग यही हैं। हमारे जीवन के साथ इनका जैसे-जैसे विकास होता है, मन की अवस्था बिगड़ती है। मन दुर्बल हो जाता है।
शास्त्रों में लिखा है कि जन्म, व्याधि, जरा और मृत्यु जीवन के शाश्वत सत्य हैं। आदमी जन्म लेता है। उसके बाद उसे जिस सत्य का सामना करना पड़ता है वह है व्याधि। फिर जरा यानी बुढ़ापा आता है। अंत में मृत्यु। इन अवस्थाओं में व्याधि शब्द व्यापक है। इसलिए कि व्याधि केवल मधुमेह, दमा या कैंसर नहीं है। व्याधि जन्म से उत्पन्न भी होती है, जिसे हम मन से उत्पन्न व्याधि या बीमारी कहते हैं।
मन विकारों से भरा हुआ है। ये जीवन को प्रभावित करते हैं, जीवन को संकीर्ण बनाते हैं और प्रतिभा को कुंठित करते हैं। नतीजतन बौद्धिक, आध्यात्मिक और भौतिक प्रगति धीमी गति से होती है। पर योग बताता है कि संयम से मन के स्वभाव को कैसे बदला जा सकता है। संयम एक परिष्कृत व्यक्तित्व, एक सुलझे हुए व्यक्तित्व की पहचान है। जिसके जीवन में संयम की आधारशिला पड़ गई, उसके विचार, व्यवहार और कर्म धर्मानुकूल होते हैं।
साफ है कि जीवन से संबंधित व्याधि या मनोरोग का निदान संयम से ही संभव है। योगसूत्र में भी पहली बात कही जाती है – योगश्चित्तवृत्ति निरोध: । यानी चित्त वृत्ति का निरोध। ताकि मनोरोग को समाप्त किया जा सके। इसके बाद दृष्टा की अवस्था प्राप्त होती है और स्वयं का ज्ञान होता है। यह जीवन की ऐसी अवस्था है, जिसमें आदमी अपने को संतुलित, संयत और सत्व में स्थापित कर पाता है। जब तक मनुष्य संतुलित नहीं होता, खुद का दृष्टा नहीं होता, संयमी नहीं होता, खुद का नियंता नहीं होता, योगाभ्यासी नहीं होता, स्वास्थ्य को प्राप्त नहीं करता। स्वास्थ्य की परिभाषा है – अपने में स्थिर होना। “तदा द्रष्टु: स्वरूपे अवस्थानम्।“ यह योग की परिभाषा है।
व्याधि के बाद की अवस्था है जरा, बुढ़ापा। हम सभी जानते हैं कि आमतौर पर बुढ़ापे में किस दौर से गुजरना पड़ता है। बुढापे में तो कोई अंग ठीक से काम नहीं करता। तब हमें युवावस्था के उत्साह के बाद दु:ख का अनुभव होता है। पर योग की उल्टी रीति है। योग कहता है कि दु:ख को संयम के माध्यम से आनंद में बदल दो। चाहे इसके लिए जो भी मार्ग अपनाना पड़े। तब कोई कर्म मार्ग को अपनाता है तो कोई सेवा मार्ग को। कोई ज्ञान मार्ग को अपनाता है तो कोई ध्यान मार्ग को।
तात्पर्य यह कि अध्यात्म के क्षेत्र में हमारा जो भी प्रयास होता है, वह हमारे भौतिक जीवन को परिवर्तित करने के लिए होता है। अगर दु:ख है तो उसके बदले सुख, अगर विषाद है तो उसके बदले आशा। यदि अशांति है तो उसके बदले शांति। इस प्रयास को हम योग साधना कहते हैं। और अंत में, अपने आप में स्थित होना। यह जीवन में पूर्णता और उपलब्धि की निशानी है। जब मनुष्य अपने आप में स्थित हो पाता है तो उसके जीवन में योग सिद्ध होता है।
(परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य हैं।
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