किशोर कुमार //
महर्षि महेश योगी ज्योतिर्मठ के शंकाराचार्य रहे ब्रह्मलीन ब्रह्मानंद सरस्वती के शिष्य थे। हिमालय की गोद में कठिन साधना और अपने गुरू की ऊर्जा का असर ऐसा हुआ कि महेश प्रसाद वर्मा महर्षि महेश योगी बन गए थे। ब्रह्मानंद सरस्वती ने जब तय किया कि वे शंकराचार्य नहीं रहेंगे तो उनके सामने विकल्प था कि वे महर्षि योगी को शंकराचार्य बना सकते थे। पर उन्होंने ऐसा न करके उन्हें आशीर्वाद दिया दिया था – “तुम्हारी ख्याति दुनिया भर में होगी।“ कालांतर में ऐसा ही हुआ भी। शंकराचार्य के पद पर रहते हुए शायद यह संभव न था। शंकराचार्यों के लिए एक अलिखित नियम है कि वे समुद्र पार नहीं करते।
विश्वव्यापी आध्यात्मिक पुनरूत्थान आंदोलन की बदौलत मानसिक शांति और आनंदमय जीवन का दीप जलाने वाले महर्षि महेश योगी का बहुचर्चित भावातीत ध्यान या ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन एक बार फिर सुर्खियों में है। कोरोना महामारी के कारण मानसिक अशांति औऱ अवसाद से ग्रसित लोगों के लिए ध्यान की यह अनोखी और आजमायी हुई विधि संजीवनी का काम कर रही है। पश्चिमी देशों में पचास और साठ के दशक में ही बेहद लोकप्रियता प्राप्त कर चुकी यह विधि भारत के लोग भी अपना रहे हैं। महर्षि योगी के ब्रह्मलीन हुए एक युग बीत चुका है। पर भावातीत ध्यान की लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। इस बात का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि 126 देशों में बड़ी संख्या में प्रशिक्षण केंद्र चल रहे हैं। इन देशों में 44 यूरोपीय देश, 29 अमेरिकी देश, 34 मध्य पूर्व के देश और 19 एशियाई देश शामिल हैं।
मानव के शारीरिक और मानसिक अवस्थाओ को ध्यान में रखकर भावातीत ध्यान के प्रभावों पर अब तक कोई तीन दर्जन से ज्यादा देशों की ढ़ाई सौ प्रयोगशालाओं में सात सौ से ज्यादा अनुसंधान किए जा चुके हैं। कमाल यह कि सभी अनुसंधानों के परिणाम इस ध्यान विधि के पक्ष में रहे और अनेक रहस्यों का खुलासा हुआ था। इसलिए कोरोना महामारी की वजह से संकटग्रस्त लोगों को बार-बार परीक्षित इस ध्यान विधि को अपनाने में कोई हिचक नहीं हुई। हृदय रोगियों पर भावातीत ध्यान के प्रभावों पर बीते साल ही अमेरिका की तीन प्रयोगशालाओं में परीक्षण किया गया था। उसका परिणाम साइंस डायरेक्ट ने अपने अक्तूबर वाले अंक में विस्तार से प्रकाशित किया था। उस परीक्षण के प्रभाव को एक लाइन में कहना हो तो यही कहा जाएगा कि हृदय रोगियों के लिए रामबाण है भावातीत ध्यान।
किसी ने पूछ लिया, उन्हें संत क्यों कहा जाता है? उनका जवाब था, “मैं लोगों को ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन सिखाता हूँ जो लोगों को जीवन के भीतर झांकने का अवसर देता है. इससे लोग शांति और ख़ुशी के हर क्षण का आनंद लेने लगते हैं. चूंकि पहले सभी संतों का यही संदेश रहा है इसलिए लोग मुझे भी संत कहते हैं.”
अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन ने सन् 2013 में 55 वर्ष से ज्यादा उम्र वाले उच्च रक्तचाप के मरीजों पर भावातीत ध्यान के प्रभावों का अध्ययन कराया था। अध्ययन का विषय था – “रक्तचाप को नियंत्रित रखने के लिए दवाओं और आहार से परे वैकल्पिक दृष्टिकोण।” इससे पता चला कि उच्च रक्तचाप से होने की मौतों में 30 फीसदी की कमी आ गई थी। इसके पहले अमेरिका स्थित क्लीवलौंड क्लिनिक में सन् 2009 में कॉलेज के छात्रों पर शोध किया गया तो पता चला कि इस ध्यान पद्धति से तनाव, रक्तचाप और क्रोध कम गया था। पर्यावरण असंतुलन और अन्य कारणों से छोटे बच्चे भी तनावग्रस्त रहने लगे हैं। वैदिक परंपरा के मुताबिक दस साल से कम उम्र के बच्चों को ध्यान न करने की सलाह दी जाती है। इसलिए 13-14 साल के तनावग्रस्त बच्चों पर भावातीत ध्यान का प्रभाव देखा गया। कक्षाओं में छात्रों की ग्रहणशीलता में आश्चर्यजनक ढंग से वृद्धि हो गई थी।
फोर्ब्स पत्रिका में भी इस ध्यान पद्धति को कवरेज मिला है। उसके मुताबिक, “इस ध्यान पद्धति को सीखना और दक्ष होना बेहद आसान है। परिणाम तुरंत ही मिलने लगते हैं। सप्ताह या महीनों इंतजार करने की जरूरत नहीं। कुछ दिनों या घंटों में फर्क महसूस होने लगता है। यह साधना अधितम बीस मिनटों की होती है और इसे दिन में दो बार करने की सलाह दी जाती है।“ इसे मंत्र योग और जप योग का मिलजुला रूप कहा जा सकता है। पर ओम या कोई खास मंत्र जपने की बाध्यता नहीं होती है। भावातीत ध्यान मंत्रयोग और कर्मयोग के मिश्रण से तैयार ऐसी ध्यान विधि है, जो साधकों को कर्म से नाता रखते हुए भी मन के पार ले जाने में सक्षम है। ट्रान्सेंडैंटल मेडिटेशन में ध्यान की अन्य विधियों की तरह श्वास या जप पर ध्यान केंद्रित नहीं करना होता है, बल्कि किसी भी विचार से परे मन को आरामदायक स्थिति में ले जाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
आमतौर पर माना जाता है कि चेतना की तीन अवस्थाएं हैं। पहला जागृति की चेतना। इस दौरान मन और शरीर दोनों ही क्रियाशील रहते हैं। दूसरा, स्वप्न की चेतना। इसमें मन और शरीर आंशिक रूप से क्रियाशील रहते हैं। तीसरा है, सुषुप्ति की चेतना। इसमें मन और शरीर विश्राम की अवस्था में होते हैं। महर्षि महेश योगी कहते थे कि चेतना की चौथी अवस्था भी होती है और वह है भावातीत चेतना। इसे विश्रामपूर्ण जागृति भी कहा जा सकता है। इसलिए कि इस अवस्था में हम मानसिक रूप से पूर्ण सजग और शारीरिक रूप से गहन विश्राम की अवस्था में रहते हैं। बस, इसे अनुभव करने की जरूरत है और इसी के लिए ही है भावातीत ध्यान विधि।
महर्षि महेश योगी ने ‘राम’ नाम की एक मुद्रा भी चलाई थी जिसे नीदरलैंड्स ने साल 2003 में क़ानूनी मान्यता दी थी। इस मुद्रा को महर्षि की संस्था ‘ग्लोबल कंट्री ऑफ़ वर्ल्ड पीस’ ने साल 2002 के अक्टूबर में जारी किया गया था.
मैंने इस लेख के लिए अनेक शोध पत्रों का अध्ययन किया। मंत्रों का मानव शरीर पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन किया। मंत्रयोग और कर्मयोग का अध्ययन तो अनवरत करता ही हूं। इन सबके आधार पर कहने की स्थिति बनी कि यह साधना वाकई कमाल का असर दिखाती होगी। मैं इन बातों को विस्तार दूंगा। उसके पहले कुछ रोचक तथ्य। महर्षि महेश योगी ज्योतिर्मठ के शंकाराचार्य रहे ब्रह्मलीन ब्रह्मानंद सरस्वती के शिष्य थे। हिमालय की गोद में कठिन साधना और अपने गुरू की ऊर्जा का असर ऐसा हुआ कि महेश प्रसाद वर्मा महर्षि महेश योगी बन गए थे। ब्रह्मानंद सरस्वती ने जब तय किया कि वे शंकराचार्य नहीं रहेंगे तो उनके सामने विकल्प था कि वे महर्षि योगी को शंकराचार्य बना सकते थे। पर उन्होंने ऐसा न करके उन्हें आशीर्वाद दिया दिया था – “तुम्हारी ख्याति सारे जहॉं में होगी।“ कालांतर में ऐसा ही हुआ भी। शंकराचार्य के पद पर रहते हुए शायद यह संभव न था। शंकराचार्यों के लिए एक अलिखित नियम है कि वे समुद्र पार नहीं करते। यही वजह है कि स्वामी जयेंद्र सरस्वती के कारण यह नियम भंग हुआ था तो इसका काफी विरोध हुआ था।
मशहूर ब्रितानी रॉक बैंड बीटल्स के कलाकार 1968 में महर्षि के ऋषिकेश आश्रम में आध्यात्मिक एकांतवास के लिए लंबे समय तक ठहरे। कई गीतों की रचना भी की।
महर्षि योगी अपने गुरू से भावनात्मक रूप से इस तरह जुड़े थे कि जब ब्रहमलीन स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती को बनारस के दशाश्वमेघ घाट पर जल समाधि दी जा रही थी तो वे इसे सहन न कर पाए थे और गंगा में छलांग लगा दी थी। उन्हें किसी तरह बचाया गया था। महर्षि के जीवन में अपने गुरू का मानों ऐसा शक्तिपात हुआ था कि ध्यान की उनकी प्रभावशाली विधि और अन्य यौगिक क्रियाओं को लेकर पूरी दुनिया में अकल्पनीय दीवानगी छा गई थी। इसकी एक तात्कालिक वजह भी थी। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक ब्रह्मलीन परमहंस सत्यानंद सरस्वती अपने से आठ से बड़े उस वैज्ञानिक संत के बारे में कहा करते थे कि उन्होंने अपनी शक्तिशाली ध्यान विधि से पश्चिमी देशों को तब अवगत कराया था, जब लाखों नवयुवक मादक द्रव्यों का व्यसन छोड़कर चेतना और आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि के मार्ग की तलाश में थे।
महर्षि महेश योगी ने ऐसे युवकों के लिए भावातीत ध्यान प्रस्तुत किया तो युवा सरल साधाना विधि के कारण आकर्षित हो गए थे। पर कुछ लोगों के दिमाग में क्यों और कैसे वाले तर्क-वितर्क चलने लगे थे। उन्हें भरोसा न हुआ कि मंत्रों की इतनी शक्ति होगी कि वह आदमी की चेतना के विभिन्न स्तरों पर प्रभावशाली तरीके से काम करेगा। तब महर्षि ने विज्ञान से अपनी बातों की पुष्टि कराने की ठानी थी। जब वैज्ञानिक नतीजे पक्ष में आने लगे तो भावातीत ध्यान के लिए पश्चिमी जगत की दीवानगी अखबारों की सुर्खियां बनने लगी थी। लोगों को समझ में आ गया था कि भावातीत ध्यान से न केवल तात्कालिक समस्या का समाधान होगा, बल्कि उच्च चेतना के विकास में भी इसकी अह्म भूमिका होगी। नतीजे भी इसी इसी के अनुरूप मिलते गए थे। इस दृष्टांत से समझा जा सकता है कि कोरोनाकाल में भावातीत ध्यान को फिर से पंख क्यो लग गए हैं।
मंत्रो पर अब तक जितने भी वैज्ञानिक शोध हुए हैं, उनसे यही पता चला है कि हर शब्द, हर ध्वनि का एक रूप होता है, एक तरंग होती है। इसलिए जब मंत्रों का उच्चारण करते हैं और उसे दोहराते हैं तो उससे जो स्पंदन उत्पन्न होता है। इससे विचार, बुद्धि, भावना और उत्तेजना पर प्रभाव पड़ता है। ध्यान के समय मन अंतर्मुखी होता है तो संचित विचार बाहर निकलता है और चेतना में शुद्धता आती है। फिर ध्यान के जरिए मन को एकाग्र करना आसान हो जाता है। यदि यह सिलसिला जारी रहा तो शरीर के मुख्य चक्र भी जागृत होते हैं। महर्षि महेश योगी का कहते थे कि ध्यान लोगों को अकर्मण्य, नहीं बल्कि बेहतर दृष्टिकोण के साथ क्रियाशील बनाता है। इसलिए उन्होंने भावातीत ध्यान साधकों के लिए कर्म को साधना का अनिवार्य हिस्सा बनाया था।
भारत के प्रत्येक जिले में और फिर विकास खण्डों में महर्षि वेद पीठ की स्थापना की जायेगी। इन पीठों में वैदिक वांगमय के सभी विषयों का सैद्धाँतिक और प्रायोगिक ज्ञान हर नागरिक को अत्यन्त सरलता से एवं शुद्धता से उपलब्ध कराया जायेगा। वैदिक वांगमय में सुखी जीवन के लिये विभिन्न क्षेत्रों के सिद्धाँत व प्रयोग दिये गये हैं, इसका उपयोग मनुष्य को हर दृष्टि से सुखी बना सकता है।
ब्रह्मचारी गिरीश, महर्षि योगी संस्थानों के चेयरमैन
महर्षि महेश योगी के आध्यात्मिक उतराधिकारी ब्रह्मचारी गिरीश के मुताबिक, ‘‘भावातीत ध्यान के नियमित अभ्यास से जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पूर्णता आती है। बुद्धि तीक्ष्ण व समझदारी गहरी होती है, भावनात्मक संतुलन होता है और तंत्रिका-तंत्र को गहन विश्राम मिलने के कारण तनाव दूर होता है, स्नायु मण्डल की शुद्धि होती है।“ शोधों और ध्यान साधकों के व्यक्तिगत अनुभवों से भी इस बात की बार-बार पुष्टि हुई है। कोरोना महामारी के कारण शारीरिक और मानसिक समस्याएं झेलते लोग यूं ही इस ध्यान विधि के लिए दीवाने नहीं हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)