किशोर कुमार
बीसवीं सदी के महानतम संत और ऋषिकेश स्थित दिव्य जीवन संघ के संस्थापक स्वामी शिवानंद कहते थे कि योग-शक्ति हममें निहित है। आसन का निरन्तर अभ्यास तथा नियमित श्वास-प्रक्रिया का सुव्यवस्थित प्रयास हमारे अन्दर नवीन शक्ति व ऊर्जा उत्पन्न करता है, जो शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक विकास के लिए जरूरी है। आंतरिक शक्ति प्रस्फुटित होते ही हमारा व्यक्तित्व आकर्षण का केन्द्र बन जाता है। इसलिए कि शरीर में जो कुछ परिवर्तन होते हैं, वे एक आन्तरिक वातावरण उत्पन्न कर देते हैं, जो अपने आस-पास समस्त वस्तुओं को आकर्षित करता है।
इस बार बात योगासनों में एक महत्वपूर्ण योगासन “चक्रासन” की, उसकी विधियों की, उसके विज्ञान की और उसके फायदों की। आपके मन में सवाल हो सकता है कि इस स्तंभ में समग्र योग की बात होती है, अध्यात्म की बात होती है। ताकि तमोगुण से मुक्ति और सत्वगुण का विकास हो सके, जीवन रूपांतरित हो सके। फिर चक्रासन जैसे कम प्रचारित आसन की बात क्यों?
दरअसल, दो खबरों के कारण चक्रासन पर लिखने की प्रेरणा मिली। एक खबर थी पश्चिम बंगाल के पुरूलिया जिले की और दूसरी कर्नाटक के कोडगु जिले की। पुरूलिया के नवयुवक परितोष महतो ने चक्रासन योग मुद्रा में एक मिनट के दौरान 88 पुश-अप करके ख्याति अर्जित की। दूसरी तरफ, कर्नाटक के दस वर्षीय बालक सिनचवा बीके ने चक्रासन मुद्रा में एक मिनट में ग्यारह बार पैर घुमाकर दिखाए। परितोष और सिनचवा बीके की उपलब्धियों को इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स मैगजिन में स्थान मिला है। लेकिन परितोष गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में अपना नाम देखना चाहते हैं और इसके लिए प्रयासरत हैं। वैसे, अन्य योगासनों, खासतौर से सूर्यनमस्कार के मामले में कीर्तिमान स्थापित करने की होड़ लगी रहती है। कई युवा अलग-अलग समय पर कीर्तिमान स्थापित कर भी चुके हैं।
जब से स्कूली शिक्षा पाठ्यक्रमों में योग को स्थान मिला है, योग चैंपियनशिप प्रतियोगिताएं आम हो गई हैं। यह निर्विवाद है कि शिक्षा का तात्पर्य छात्रों का सर्वांगीण विकास है और योग के बिना सर्वांगीण विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। प्रारंभिक स्तर पर खेल-खेल में व्यायाम तो ठीक है। शरीर लचीला बनता और योग-मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए आधार तैयार होता है। पर, जब योग की बात आती है तो सब कुछ बदल जाता है। योग आधारित शिक्षा में केवल शारीरिक विकास से बात नहीं बनती, बल्कि मानसिक और भावनात्मक विकास पर भी जोर होता है। और इसके लिए आज्ञा-च्रक से संबंधित शीर्ष ग्रंथि का प्रबंधन जरूरी हो जाता है। बच्चों की प्रतिभा और नैतिक आचरण के लिहाज से यह बेहद जरूरी होता है। जाहिर है कि कसरती स्टाइल योग से ऐसा परिणाम मिलना कदापि संभव नहीं होता।
बीसवीं सदी के महानतम संत और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने सन् 1956 में गुजरात के पाटण में स्कूली छात्रों को बिहार योग पद्धति से समन्वित योग का अभ्यास कराया थो तो इसे बड़े रिफार्म के तौर पर देखा गया था। इसलिए कि तब योग आमलोगों में प्रचलित नहीं था। इसलिए, उन्होंने योगासन का प्रशिक्षण देने से पहले उसका सैद्धांतिक ज्ञान दिया था। बताया था कि जीवन में योगासन का क्या महत्व है और क्यों? इसका अभ्यास किस भाव से करना चाहिए? योग की सच्ची परिभाषा क्या है? आदि आदि। साथ ही कहा था कि नियमित योगाभ्यास करने से जीवन में स्वास्थ धन का भंडार बना रहता है। शरीर की ग्रंथियां समय पर और सही ढंग से विकसित होती हैं।
महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग में आसन का स्थान तीसरे पायदान पर है। वे कहते हैं कि योग की शुरूआत पांच यम और पांच नियम से होनी चाहिए। यम यानी सामाजिक जीवन कैसा हो और नियम यानी व्यक्तिगत जीवन कैसा हो। इसके बाद ही व्यक्तिगत जरूरतों को ध्यान में रखते हुए आसनों का अभ्यास फलदायी होता है। बात शुरू हुई थी चक्रासन से। यह आसन पीछे की ओर झुकने और मुड़ने वाला आसन है। पीठ के बल लेट कर पैरों को घुटनों पर मोड़ना और तलवों को नितम्बों के निकट भूमि पर रखना होता है। हथेलियों को अपने सिर के बगल में इस प्रकार रखना होता है कि उँगलियाँ शरीर की ओर अभिमुख हों। हाथों तथा पैरों पर स्थित रह कर शरीर को शनैः शनैः ऊपर उठाना होता है। इस तरह मेरुदण्ड वक्र बनता है। इस दौरान सामान्य श्वास-प्रश्वास के साथ मेरुदण्ड पर ध्यान केन्द्रित रखना होता है।
वैसे, पीछे की ओर मुड़ने वाला आसन हर उम्र के लोगों के लिए बेहद जरूरी होता है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की विश्व-विख्यात पुस्तक “आसन प्राणायाम मुद्रा बंध” में इस बारे में विस्तार से वैज्ञानिक विश्लेषण है। उसके मुताबिक, पीछे की ओर झुकने वाले आसनों का अभ्यास बैठने की गलत स्थिति के कारण उत्पन्न दोषों तथा कशेरुका स्तम्भ की तंत्रिका-पेशी का असंतुलन दूर करता है। लगातार सीधे बैठे रहने से पीठ में रक्त का प्रवाह धीमा हो जाता है। इससे अशुद्ध रक्त इकट्ठा हो जाता है। यह आसन जमे हुए रक्त को भली प्रकार से प्रवाहित करने और इसके स्थान पर ऑक्सीजनयुक्त शुद्ध रक्त पहुँचाने के लिए बहुत उपयोगी हैं। पीछे झुकने वाले आसनों को करते समय उदर एवं श्रोणि-प्रदेश पर अभावात्मक दबाव पड़ता है, जिससे सभी सम्बन्धित अंगों का तंत्रिका-संचरण पुष्ट होता है। ये आसन उदर एवं श्रोणीय अंगों, विशेषकर मलाशय-उदर क्षेत्र की मांसपेशियों में खिंचाव उत्पन्न कर इन अंगों की मालिश भी करते हैं।
चक्रासन में सर्वाधिक प्रभावपूर्ण ढंग से मेरुदण्ड का विस्तार होता है। इस स्थिति में साधक समस्त तन्त्रिका-तन्त्र को खींचकर फैला रहे होते हैं। यही चक्रासन का मूल उद्देश्य है, क्योंकि ऐसा कार्य हम सामान्यतः नहीं करते हैं। हमारे शरीर की रचना इस प्रकार हुई है कि हम केवल एक ही दिशा में मेरुदण्ड को खींच सकते हैं तथा अपने सामने की ओर आसानी से मुड़ सकते हैं। जब दूसरी दिशा में मोड़ या विस्तार होता है तो प्रत्येक स्नायु, अस्थिबन्ध और नाड़ी में खिंचाव होता है। इस खिंचाव से नाड़ियाँ खुलती हैं जो जालक के रूप में विभिन्न चक्र-क्षेत्रों में स्थित हैं। योग उपनिषदों के अनुसार चक्रासन का उपयोग चक्रों को खोलने या जाग्रत करने हेतु किया जाता है।
इस आसन को योग प्रशिक्षकों के निर्देशानुसार श्वसन क्रिया के साथ करने की सलाह दी जाती है। इस आसन का श्वसन, पाचन एवं मूत्र-प्रजनन तन्त्रों पर शक्तिशाली प्रभाव पड़ता है। इस बात का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि चक्रासन में सक्षमता प्राप्त करते-करते अनेक व्याधियां छूं मंतर हो चुकी होती हैं। इसलिए कि कई आसनों में निपुणता प्राप्त कर लेने के बाद ही चक्रासन का अभ्यास करने की सलाह दी जाती है। जाहिर है कि से योग से जुड़ाव के लिए प्रारंभिक स्तर पर कसरती स्टाइल के योगासनों को प्रोत्साहित करना एक बात है। पर शास्त्रीय विधि से चक्रासन का अभ्यास अमृत समान है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)