हम सब बचपन से ही संत कबीर की साखी “चिंता से चतुराई घटे, दुःख से घटे शरीर” पढ़ते-सुनते बड़े हुए। वैदिक ग्रंथों में भी अनेक ऐसे प्रसंग हैं, जिनसे ऐसे ही भाव प्रकट होते हैं। चतुराई के सामान्य अर्थ तो बुद्धि की तीक्ष्णता, कुशाग्रता, चालाकी आदि होते हैं। पर, वैदिक ग्रंथों से लेकर संत कबीर की वाणी तक में जिस चतुराई की बात की गई है, वह सही-गलत की पहचान करने वाली आंतरिक बुद्धि की बात है। जब मन चिंता में डूबा होता है, तो विवेक की मलिनता से चतुराई घटती है। जबकि चतुराई कैसी होनी चाहिए? संत कबीर अपनी दूसरी साखी में इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं, “चतुर सुजान, जो राम को जानै….।” चतुर वही जो परमात्मा को जान ले। ओशो इस बात को कुछ ऐसे कहते थे, “चतुराई बाहरी नहीं, भीतर की सजगता है, जो जागता है, वही चतुर है।” और दुःख किस तरह जीवन को कष्टकर बनाता है, यह कोई रहस्य नहीं है। पर, चिंता से चतुराई घटने का अंजाम कितना बुरा होता है, इस वैदिक मान्यताओं पर आधुनिक विज्ञान ने भी मुहर लागा दी है।
चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक, जब हम चिंताग्रस्त होते हैं तो सबसे पहले मस्तिष्क के ललाट खंड का ऊपरी भाग यानी प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स प्रभावित होता है। यह हमारे मस्तिष्क का वह हिस्सा है, जहां सोचने, योजना बनाने और निर्णय लेने का काम होता है। चिंता जब लंबे समय तक बनी रहती है, तो शरीर में तनाव हार्मोन कोर्टिसोल का स्तर काफी बढ़ जाता है। इससे प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स का पोषण करने वाला ब्रेन-डिराइव्ड न्यूरोट्रॉफिक फैक्टर (बीडीएनएफ) कोई तीस फीसदी तक कमजोर हो जाता है। बात यह तक सीमित नहीं रहती। टेलोमियर्स, जिसकी लंबाई से हमारी आयु जुड़ी होती है, वह कोर्टिसोल का स्तर बढ़ते ही तेजी से क्षीण होने लगता है। नतीजतन, बुढ़ापा दस्तक दे देती है। हिप्पोकैंपस, जिसे मस्तिष्क में स्मृतियों का स्टोर कहा गया है, सिकुड़ने लगता है। जाहिर है कि यादाश्त कमजोर हो जाती है। जब एक चिंता से चतुराई ही नहीं, शरीर व्याधियों का घर बनने लगता है तो जाहिर है नींद में खलल आ ही जाती है। इससे दिमाग को रिबूट करने वाला रैपिड आई मूवमेंट प्रभावित होता है। भावनाएं प्रोसेस नहीं हो पातीं। चिड़चिड़ाहट, भूलक्कड़पन आदि के रुप में कुपरिणाम सामने आने लगते हैं। जर्नल ऑफ साइकेट्री रिसर्च और अन्य कई मेडिकल जर्नल्स में इन बातों का उल्लेख मिलता है।
जाहिर है कि किसी भी कारण से हम चिंताग्रस्त हो जाते हैं तो नाना प्रकार के विकारों की श्रृंखला लंबी होती जाती है। योगशास्त्र में मानसिक अशांति के लक्षण और उससे निजात पाने के उपायों पर व्यापक चर्चा है। आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि ऐसे विकारों का मुक्तिदाता योग ही है। इस मामले में महर्षि पतंजलि का काम अद्वितीय है। वे तीन सूत्र देते हैं। उनमें पहला है – अथ योगानुसाशनम्। यानी योग एक व्यवस्था है, अनुशासन है और इसका आधार है – यम और नियम। यम से उनका अभिप्राय है स्वयं के जीवन को सम्यक दिशा देने से है। इसे आत्म—संयम भी कह सकते हैं। जैसे, इंद्रिय संयम, किसी भी प्राणी को विचार, वचन या कर्म से हानि न पहुँचाना। आदि। नियम से अभिप्राय है – व्यक्तिगत व आंतरिक अनुशासन। जैसे, बाह्य ही नहीं, बल्कि आंतरिक शुद्धि, संतोष, आत्म-चिंतन आदि। अब योगानुशासन का परिणाम क्या होना है। वे कहते हैं – योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:। यानी चित्तवृत्तियों का निरोध होगा। मन की सभी गतिविधियां, विचार और भावनाएं पूर्णतः शांत हो जाएंगी। चित्त अपने मूल शुद्ध, निष्कलंक, निर्विकल्प स्वरूप में स्थित हो जाएगा। महर्षि पतंजलि ने इस स्थिति को ही योग कहा है।
सवाल फिर भी रह जाता है कि ऐसा होने का परिणाम क्या होगा? तब महर्षि पतंजलि सूत्र देते हैं – तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्। यानी चित्तवृत्तियों का निरोध होते ही जीवन से भ्रांतियां दूर होंगी। योग सध जाएगा। आत्म-साक्षात्कार होगा। सवाल है कि शुरूआत कहां से की जाए? आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं – “सच है कि मौजूदा समय में लोगों का लक्ष्य योग-साधना का उच्चतर परिणाम पाना शायद ही होगा। पर शरीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए चित्तवृत्तियों के निरोध की दिशा में थोड़े यौगिक उपाय भी बड़े काम के साबित हो सकते हैं। चिंता या तनाव से मुक्ति पाने की राह आसान हो जाएगी। फिर तो नकारात्मक चिंता सकारात्मक चिंता में बदल जाएगी। तब हम चिंता नहीं, चिंतन भी नहीं, बल्कि मनन करने लगेंगे। ऐसे में जाहिर है कि हमारे ईर्द-गिर्द ही उपलब्ध उपाय घुप्प अंधेरे में दीपक बनकर मार्ग प्रशस्त कर देंगे।“
योग में तनावों से मुक्ति की व्यापक संभावनाएं विद्यमान हैं। योगशास्त्र की मान्यता है कि सभी बीमारियों की जड़ें शरीर और मन में होती हैं। इसलिए किसी बीमारी का यौगिक उपचार करना हो तो योगी हठयोग और राजयोग की विधियां बतलाते हैं। महर्षि पतंजलि ने आसन और प्राणायाम उतना ही बतलाया, जिससे सजगता का विकास करके मन को एकाग्र करने में मदद मिले। उनका कहना है कि आसन ऐसा हो कि शरीर को सुख मिले, आराम मिले। तभी उन्होने कहा – स्थिरसुखमासनम्। यानी स्थिर और सुखपूर्वक बैठना आसन है। और प्राणायाम? वे कहते हैं – प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य। यानी रेचक और कुंभक के द्वारा मन को नियंत्रित किया जा सकता है। इसे ही हम नाड़ी शोधन प्राणायाम के रूप में जानते हैं। शरीर को ऊर्जावान बनाने और उसे संतुलित रखने में इस योग विधि की बड़ी भूमिका है। शारीरिक व्याधियों को दूर करने से लेकर आध्यात्मिक चेतना के विकास तक में यह बड़े महत्व का होता है।
हमारे शरीर में मुख्यत: तीन नाड़ियां होती हैं – इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। सुषुम्ना तो सुषुप्त नाड़ी है। पर बाकी दो नाड़ियों में प्राण ऊर्जा के प्रवाह में बाधा आती है तो शारीरिक बीमारियां प्रकट होती हैं। मनोऊर्जा के प्रवाह में बाधा आती है तो मानसिक व्याधियां उत्पन्न होती हैं। इसलिए कि इन बाधाओं का असर शरीर की अन्य नाड़ियों पर भी होती है। इन बातों से नाड़ी शुद्धि प्राणायाम के महत्व का पता चलता है। मौजूदा समय कोई स्वस्थ व्यक्ति महर्षि पतंजलि द्वारा बताए गए सुखासन और नाड़ी शोधन प्राणायाम का नियमित रुप से अभ्यास करता रहे तो वह चिंता के प्रभावों के क्षीण करके व्याधि मुक्त रह सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

