अक्सर मन में ख्याल आता है कि जब विदेशियों को लगा था कि महान राष्ट्र नायक, स्वतंत्रता संग्राम के प्रेरणा स्तंभ और अद्वितीय आध्यात्मिक चेतना के अग्रदूत श्री अरविंद घोष नोबेल पुरस्कार के हकदार हैं, तो भारत सरकार को उन्हें “भारत रत्न” से विभूषित करने का ख्याल क्यों नहीं आया?
भारत सरकार ने सन् 1992 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस को मरणोपरांत भारत रत्न देने की घोषणा की थी। यह अलग बात है कि उनके परिवार ने कुछ कारणों से इस सम्मान को लेने इंकार कर दिया था। पर उसी नेताजी ने अपने पत्र में लिखा था – “अरबिंदो घोष बंगाल में सबसे जाने-माने और लोकप्रिय नेता हैं। आजादी के एक निडर समर्थक। इनकी साधना और इनकी राजनीति ने मिलकर इनमें एक निराली, एक अनजानी-सी आभा जगाई है, जिसने इनके व्यक्तित्व को और भी आकर्षक बना दिया है। घोष मेरे आध्यात्मिक गुरु हैं। उन्हें व उनके उद्देश्य को मेरा तन-मन अर्पित है।” इतना ही नहीं, टोक्यो से हुए रेडियो प्रसारण में आजाद हिंद फौज इंडियन नेशनल आर्मी के संस्थापकों में से एक रास बिहारी बोस ने कहा था – “यह उनके नाम एक सलामी है, जिनकी प्रेरक पुकार पर भारतीय राष्ट्रवाद का जन्म हुआ। भारतीय राष्ट्रवाद के उन महात्माओं में सबसे पहला नाम श्री अरविंदो का है। श्री अरविंदो, आपको मेरा नमन वंदे मातरम।“
सच है कि श्री अरविंद घोष भारतीय विचारधारा के ऐसे दिव्य व्यक्तित्व थे, जिनके योगदान ने देश और मानवता की दिशा ही बदल दी। उनके साहित्य, दर्शन और आध्यात्मिक साधना की वैश्विक प्रतिष्ठा का प्रमाण है कि उन्हें दो बार नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था। पहली बार 1943 में ‘द लाइफ डिवाइन’ जैसी कालजयी कृति के लिए। यह प्रस्ताव सर फ्रांसिस यंगहसबैंड ने रखा था, जो उस पुस्तक से बेहद प्रभावित थे। सात वर्ष बाद, 1950 में, चिली की नोबेल पुरस्कार विजेता मादाम गैब्रिएला मिस्ट्रल ने श्री अरविंदो का नाम शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए प्रस्तावित किया था। इस नामांकन में भारत के 36 प्रमुख नागरिक, विद्वान, विश्वविद्यालयों के कुलपति, उप-कुलपति, महाराजा, मुख्यमंत्री, राज्यपाल और कैबिनेट मंत्री भी श्री अरविंदो के अप्रतिम योगदान के समर्थन में सम्मिलित थे।
अफसोस की बात है कि तमाम वैश्विक मान्यताओं और योग्यताओं के बावजूद, उन्हें नोबेल पुरस्कार प्रदान नहीं किया गया। पर, स्वतंत्र भारत में उन्हें कितना सम्मान मिला, इससे हम सब वाकिफ हैं। यह सुखद है कि सन् 2022 में 150वीं जयंती पूरी भव्यता के साथ मनाई गई थी। इसके लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में 53 सदस्यीय कमेटी बनाई गई थी। स्मृति में सिक्का और डाक टिकट जारी किए गए थे। पर, यह सवाल अपनी जगह है कि जब रासबिहार बोस से लेकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस तक जिस श्री अरविंद को स्वतंत्रता संग्राम के महानायक व आध्यात्मिक नेता बताते रहे, विदेशियों ने भी इसी महानायक को नोबेल पुरस्कार के योग्य समझा, तो भारत माता के ऐसे रत्न को “भारत रत्न” देकर हम उपकृत क्यों न हुए?
श्री अरविंद के जीवन की मीमांसा से पता चलता है कि उनका अवतरण मानव जाति को उच्चतम विकास की ओर ले जाने के लिए था। तभी पिता की भौतिकवादी सोच से उनकी सोच कभी मेल न खाती थी। उन्होंने एक तरफ ‘वंदे मातरम्’ और “युगांतर” जैसे पत्रों के माध्यम से जनता में देशभक्ति की भावना जगाकर स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई तो दूसरी तरफ आध्यात्मिक शक्तियों और दृष्टिकोण के माध्यम से उस आंदोलन को विशिष्ट तरीके से मदद पहुंचाई थी। वे कहते थे – भारतीय स्वतंत्रता के लिए लड़ाई केवल राजनीतिक संघर्ष नहीं है, बल्कि इसमें आध्यात्मिक जागरण और मानवता की मुक्ति का लक्ष्य भी सन्निहित है। भारत की आध्यात्मिक विरासत ही उसकी सबसे बड़ी शक्ति है तथा स्वाधीनता पाने के लिए जनता का आंतरिक, आध्यात्मिक रूपांतरण आवश्यक है।“
ईश्वर की लीला देखिए कि सन् 1908 के ‘अलीपुर बम कांड’ में जेल जाते ही उनका रुपांतरण हो गया। एक साल के कारावास के दौरान उन्हें व्यापक आध्यात्मिक शक्तियों का अनुभव हुआ। वे कहते हैं कि जेल में उन्होंने स्वामी विवेकानंद की उपस्थिति महसूस की और उनकी आवाज सुनी। अपनी रिहाई के 24 दिन बाद उत्तरपाड़ा में जेल के अनुभवों को साझा करते हुए कहा था कि जब मैं जेल गया था तब तमाम देश वंदे मातरम के नारों से गूंज रहा था। पर, जेल में मेरे अंदर से एक आवाज आई, “रुको और देखो, फिर उसने मेरे हाथों में गीता रख दी।” उसकी ताकत मुझ में समां गई और मैं गीता साधना कर पाया। इस तरह उनमें निहित दैवी शक्तियों का प्रकटीकरण हो पाया था।
इस बात को एक घटना से समझिए। उन्हें कानूनी सजा दिलाने के लिए चक्रव्यूह रचा गया था। पर, अंतिम वक्त में चमत्कार हो गया। श्री अरविंद लिखते हैं – मेरी पैरवी के लिए जो व्यवस्था की गई थी, उसे अचानक बदल दिया गया और अदालत में कोई दूसरा ही वकील मेरी पैरवी के लिए खड़ा था। और संयोग देखिए कि वह कोई और नहीं, बल्कि मेरा मित्र था, जिसने सब कुछ त्याग कर, अपनी सेहत तक खराब कर कई महीनों तक आधी-आधी रात तक बैठकर मेरी पैरवी का केस तैयार किया था। वह था चित्तरंजन दास।“
जेल से निकलने के बाद वे सन् 1910 में पांडिचेरी (अब पुडुचेरी) चले गए। वहां आश्रम की स्थापना करके इंटीग्रल योग (समग्र योग) की शिक्षा देने लगे। श्री अरविंद का मानना था कि योग और साधना के माध्यम से व्यक्तिगत और सामूहिक चेतना उठेगी, जिससे देश की आत्मा जागृत होगी और स्वतंत्रता सुनिश्चित होगी। उनकी कालजयी पुस्तक “द डिवाइन लाइफ” उसी की परिणति थी। कालांतर में उनके विचार परिणाम में परिणात होते गए।
यह सुखद है कि श्री अरविंद की आध्यात्मिक विरासत आज भी जीवंत एवं प्रभावशाली है। पांडिचेरी स्थित आश्रम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय है, जहां इंटीग्रल योग (समग्र योग) की साधना और उसके सैद्धांतिक पक्षों का प्रचार-प्रसार होता है। श्री अरविंद की शिष्या श्री मां (मीर्रा अल्फासा) ने गुरु के विचारों को व्यावहारिक रूप देते हुए ऑरोविल जैसा अभिनव प्रयोग भी किया था। इससे भी श्री अरविंद की विरासत समृद्ध हुई और जीवंतता कायम है। राष्ट्रीय उत्थान के लिए श्री अरविंद के संदेश कालजयी हैं। वे हमें सदा प्रेरित करते रहेंगे। 153वीं जयंती (15 अगस्त 1872) पर शत्-शत् नमन।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)