आज अनेक देशों में युद्ध, सांप्रदायिक हिंसा और लैंगिक असमानता जैसी समस्याएँ बनी हुई हैं। ऐसे में रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाएं बड़े काम की हैं। युगदृष्टा और परमज्ञानी रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाएं केवल धार्मिक उपदेश भर नहीं हैं, बल्कि वे एक जीवन शैली को दर्शाती हैं, जो आधुनिक युग की जटिलताओं के बीच भी शांति, प्रेम और सहिष्णुता का मार्ग दिखाती हैं। साथ ही हर व्यक्ति को आत्मिक उत्थान और समाज में सकारात्मक योगदान देने की प्रेरणा देती हैं।
हमने हाल ही देखा कि प्रसिद्ध तेलुगु फिल्म अभिनेता चिरंजीवी में किस तरह पितृसत्ता का भाव गहराई से जमा हुआ है। तभी उनकी प्रबल इच्छा है कि उन्हें पोती नहीं, पोता ही हो, जो उनकी विरासत आगे बढ़ सके। समय बदला, परिस्थितियां बदली। पर हमारी सोच पुरानी ही रह गई। सामान्य धारणा है कि वैदिक युग में भी केवल पुत्र की इच्छा की जाती थी। पर, यह पूरी तरह सत्य नहीं है। ऋग्वेद (6.61.7) में पुत्रियों को भी परिवार और समाज के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण बताया गया है। याज्ञवल्क्य स्मृति (1.82) के अनुसार, “संतान चाहे पुत्र हो या पुत्री, दोनों कुल की प्रतिष्ठा बढ़ाते हैं।” महाभारत की सत्यवती, कुंती, गांधारी, द्रौपदी और अन्य स्त्रियाँ अपने-अपने स्थान पर शक्ति, नीति, साहस और धैर्य का प्रतीक हैं। गार्गी, मैत्रेयी जैसी कई ऋषिकाएँ समाज में प्रतिष्ठित थीं। इससे स्पष्ट होता है कि तब पितृसत्ता का महिमा मंडन नहीं होता था।
मॉ काली के उपासक रामकृष्ण परमहंस की सोच भी पितृसत्तात्मक नहीं थी। बल्कि, उनका महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण क्रांतिकारी था। तभी कई महिला शिष्याओं को आध्यात्मिक शिक्षा देकर समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक सोच को चुनौती दी। शारदा देवी रामकृष्ण परमहंस की न केवल पत्नी थीं, बल्कि आध्यात्मिक उत्तराधिकारी भी थीं। परमहंस जी उन्हें “माँ” का दर्जा देकर कहते थे कि वे जगदंबा (माँ दुर्गा) की अवतार हैं। मॉ ने महिलाओं को शिक्षा, भक्ति, और आत्मनिर्भरता का संदेश दिया और परमहंस जी के आध्यात्मिक मूल्यों को जीवित रखा। उन्होंने कई महिलाओं को आध्यात्मिक मार्गदर्शन दिया और उन्हें आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित किया। बाद में ये शिष्याएँ, विशेष रूप से माँ शारदा देवी, योगिनी माँ और गोलाप माँ आदि समाज में महिलाओं के उत्थान में योगदान देती रहीं।
हम जानते हैं कि किसी काल विशेष में पुरुषों का शारीरिक रूप से अधिक शक्तिशाली होना शिकार, युद्ध और संसाधन-सुरक्षा में मददगार था। तभी उन्हें महिलाओं को पालन-पोषण और संरक्षण की भूमिका दी गई। इसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि कालांतर में पितृसत्ता का आधार मजबूत होता गया। पर, समय बदल चुका है। महिलाएं युद्ध में जाती हैं और वे सारे काम कर सकती हैं, जो पुरुष करते हैं। रुढ़ीवादी विचार भी ध्वस्त होते दिखते हैं, जब वे अर्थी को कंधा देने से लेकर मुखाग्नि तक देती हैं। वैदिक और संतों की शिक्षाएं भी इसी अनुरुप हैं। बावजूद, चिरंजीवी का बयान दर्शाता है कि हम देशकाल के अनुरुप ढ़ल नहीं पाए हैं और समयानुकूल बदलाव के लिए काफी कुछ किए जाने की जरूरत है।
अब एक अन्य मुद्दे पर आइए। इस मामले में भी रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाएं सदैव बेहतरी का मार्ग दिखाती हैं। दुनिया के अनेक हिस्से सांप्रदायिकता की आग में झुलस रहे हैं। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो ऐसी हिंसा मूल रूप से अज्ञान (अविद्या), अहंकार (अहम्), और स्वार्थ का परिणाम होती है। भारत आध्यात्मिक गुरु इस समस्या के समाधान के लिए अहिंसा, प्रेम, करुणा और एकता का संदेश देते रहे हैं। वे बताते रहे है कि जब लोग अपने धर्म की वास्तविक शिक्षा को नहीं समझते, तो वे आसानी से कट्टरता और घृणा का शिकार हो जाते हैं।
परमहंस जी का मामला अनोखआ है। उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर कब का कह दिया था, “सभी धर्म एक ही सत्य को अलग-अलग तरीकों से प्रकट करते हैं।“ मानव जाति के इतिहास में वे अकेले व्यक्ति थें, जिन्होंने सभी धर्मों के मार्ग से सत्य तक जाने की चेष्टा की और सभी धर्मों से उसी शिखर को पा लिया। ईश्वर अल्लाह तेरो नाम… तो अनेक लोग जपते रहे हैं। पर उन्होंने अनुभव से जान लिया है कि ईश्वर एक है। श्रीरामकृष्ण वचनामृत में में उल्लेख है कि जब वे इस्लाम की साधना करते थे तो वे ठीक मुसलमान फकीर हो गए थे। वे भूल गये राम-कृष्ण और ‘अल्लाहू-अल्लाहू’ की आवाज लगाने लगे थे, कुरान की आयतें सुनने लगे थे।
जब वे सखी-संप्रदाय की साधना करने लगे तो उनमें स्त्रियों के सारे गुण प्रकट हो गए थे। आवाज बदल गई, चलने का तरीका बदल गया और यहां तक कि शरीर का बनावट तक बदल गया था। मासिक धर्म का चक्र शुरू हो गया था। सखी-संप्रदाय की मान्यता है कि परमेश्वर ही पुरुष है, बाकी सब स्त्रियां हैं। परमेश्वर कृष्ण है, बाकी सब उसकी सखियां हैं। इसलिए सखी-संप्रदाय का पुरुष भी अपने को स्त्री ही मान कर चलता है। लेकिन जो घटना रामकृष्ण के जीवन में घटी, वह अपवाद था। सखी-संप्रदाय के ही कई लोग कृष्ण को पति मानते हुए उनकी मूर्ति को लेकर बिस्तर पर सो जाते थे। पर अनुभूति नहीं मिल पाती थी। पर रामकृष्ण परमहंस के मन में यह भावना इतनी प्रगाढ़ हुई कि मैं स्त्री हूं, सब कुछ बदल गया था।
रामकृष्ण परमहंस की भी अनुभूति थी कि आत्मा एक है, जो विविध रूपों में भासित होती है। इसलिए उन्होंने अपने प्रिय शिष्य स्वामी विवेकानंद को अद्वैतवादी बनाया। पर जन सामान्य को सदैव अद्वैतवाद की ही शिक्षा देते रहे। वे कहते थे, “जैसे कई नदियाँ समुद्र में जाकर मिल जाती हैं, वैसे ही सभी धर्म एक ही सत्य को पहुँचाते हैं। जैसे, एक ही सूरज को कोई सूर्य, कोई खुर्शीद और कोई सन कहता है। मैंने हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सभी धर्मों की पूजा की, और मैंने पाया कि सभी धर्मों में एक ही सत्य है।”
इन तथ्यों से स्पष्ट है आधुनिक युग में जनसामान्य के लिए उनकी शिक्षाएँ आज भी मानवता के लिए प्रेरणादायक हैं और आध्यात्मिक जागरण का मार्ग प्रशस्त करती हैं। यदि हम तैयारी के साथ उस ज्ञान-गंगा में डुबकी पाएं तो मोती मिल ही जाएगा। अंग्रेजी तिथि के अनुसार 189वीं परमहंस जी की जयंती 18 फरवरी को है। आइए, उस महान संत स्मरण करें, नमन करें। इससे उनके विचारों को आत्मसात करने मदद मिलेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)